Wednesday, December 12, 2007

जीने के साधन

बढ़ते जा रहे हैं जीने के साधऩ
सिकुड़ती जा रही है जीने की जगह
सांस भी लो तो हवा का वजन महसूस होता है
पानी गले से नीचे उतरता है जेब पर भारी पड़ता है

अनगिनत आवाज़ें हैं
लेकिन सुनाई बहुत कम पड़ता है
और उससे भी कम समझ में आता है
रोशनी बहुत है लेकिन दूर तक देखना मुश्किल

बिल्कुल अंधेरा समय इस धरती से जैसे उठता जा रहा है
और इसी के साथ गुम हुई जा रही है
काले आसमान में बिछी सितारों की झिलमिल चादर
हालांकि रोज़ खोजे जा रहे हैं नए ग्रह-उपग्रह, चांद और नक्षत्र
आकाश के किसी अदृश्य अछोर में
दो विराट आकाशगंगाओं का नृत्य इंसान की सबसे बडी दूरबीन
का सबसे दिलकश नजारा है
जिसमें झरते हैं लाखों सितारों के चूरे

लेकिन इनका एक भी कण धरती के करीब नहीं फटकता
वह इंसान और सामान से भरी एक ऐसी उदास जगह
में बदलती जा रही है
जहां बेआवाज टहलती हैं अकेली इच्छाएं
जो बहुत सारी खरीददारी के बीच, बहुत सारे रुपए खर्च कर देने के बावजूद
और बहुत सारे साधन जुटा लेने की कामयाबी पर भी
अधूरी रह जाती हैं

दिन कामनाओं और कामयाबी की एक न खत्म होने वाली सड़क पर भागते गुजरता है
शामें इस रफ़्तार में कब कुचल दी जाती हैं, पता भी नहीं चलता
और
रात को उनींदी थकी आंखें
सपनों के धूसर बिंबों के बीच आने वाले दिनों के डरों का सामना करती हैं
और घबरा कर जाग जाती हैं
कि एक और सुबह उनके सामने सवाल की तरह खड़ी है।

Sunday, December 9, 2007

तोड़ना और बनाना

बनाने में कुछ जाता है
नष्ट करने में नहीं
बनाने में मेहनत लगती है. बुद्धि लगती है, वक्त लगता है
तो़ड़ने में बस थोड़ी सी ताकत
और थोड़े से मंसूबे लगते हैं।
इसके बावजूद बनाने वाले तोड़ने वालों पर भारी पड़ते हैं
वे बनाते हुए जितना हांफते नहीं,
उससे कहीं ज्यादा तोड़ने वाले हांफते हैं।
कभी किसी बनाने वाले के चेहरे पर थकान नहीं दिखती
पसीना दिखता है, लेकिन मुस्कुराता हुआ,
खरोंच दिखती है, लेकिन बदन को सुंदर बनाती है।

लेकिन कभी किसी तोड़ने वाले का चेहरा
आपने ध्यान से देखा है?
वह एक हांफता, पसीने से तर-बतर बदहवास चेहरा होता है
जिसमें सारी दुनिया से जितनी नफरत भरी होती है,
उससे कहीं ज्यादा अपने आप से।

असल में तोड़ने वालों को पता नहीं चलता
कि वे सबसे पहले अपने-आप को तोड़ते हैं
जबकि बनाने वाले कुछ बनाने से पहले अपने-आप को बनाते हैं।
दरअसल यही वजह है कि बनाने का मुश्किल काम चलता रहता है
तोड़ने का आसान काम दम तोड़ देता है।

तोड़ने वालों ने बहुत सारी मूर्तियां तोड़ीं, जलाने वालों ने बहुत सारी किताबें जलाईं
लेकिन बुद्ध फिर भी बचे रहे, ईसा का सलीब बचा रहा, कालिदार और होमर बचे रहे।
अगर तोड़ दी गई चीजों की सूची बनाएं तो बहुत लंबी निकलती है
दिल से आह निकलती है कि कितनी सारी चीजें खत्म होती चली गईं-
कितने सारे पुस्तकालय जल गए, कितनी सारी इमारतें ध्वस्त हो गईं,
कितनी सारी सभ्यताएं नष्ट कर दी गईं, कितने सारे मूल्य विस्मृत हो गए

लेकिन इस हताशा से बड़ी है यह सच्चाई
कि फिर भी चीजें बची रहीं
बनाने वालों के हाथ लगातार रचते रहे कुछ न कुछ
नई इमारतें, नई सभ्यताएं, नए बुत, नए सलीब, नई कविताएं
और दुनिया में टूटी हुई चीजों को फिर से बनाने का सिलसिला।

ये दुनिया जैसी भी हो, इसमें जितने भी तोड़ने वाले हों,
इसे बनाने वाले बार-बार बनाते रहेंगे
और बार-बार बताते रहेंगे
कि तोड़ना चाहे जितना भी आसान हो, फिर भी बनाने की कोशिश के आगे हार जाता है।

Thursday, November 29, 2007

कविता की जगह

सच है कि अकेली कविता बहुत कुछ नहीं कर सकती
हमारे समय में लड़ाइयों के जितने मोर्चे खुले हुए हैं
और वार करने की जितनी नई तरकीबें लोगो के पास हैं
खुद को बचाने के जितने सारे कवच-
उन सबको देखते हुए कविता एक निरीह सी कोशिश जान पड़ती है
एक ऐसी कोशिश जिस पर बहुत सारे हंसते हैं
और जिसका बहुत सारे अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हैं।
कविता अब न किसी को डराती है
न किसी को जगाती है
वह न मिसाल बन सकती है न मशाल
ज्यादा से ज्यादा वह है एक ऐसा खयाल
जो आपको खुश करे तसल्ली दे
जिसे आप अपने बचे रहने की
तार-तार हो चुके सबूत की तरह देखें

यह भी सच है कि हमारा ज्यादातर समय कविता के बिना बीतता है
हमारी ज्यादातर लड़ाइयों में कविता काम नहीं आती
कई बार वह एक अनुपयोगी अनुषंग की तरह बची लगती है
जो डार्विन के विकासवाद के मुताबिक
सिकुड़ती-छीजती जा रही है
यह कह देना अहसास से कहीं ज्यादा चलन का मामला है
कि इसके बावजूद वह बची रहेगी
देती रहेगी दस्तक हमारी अंतरात्मा के बंद दरवाज़ों पर
कि किसी फुसफुसाहट की तरह नई हवाओ में भी हमें पुराने दिनों की याद दिलाती रहेगी
हमें हमसे मिलाती रहेगी
लेकिन सच्चाई यह है कि धीरे-धीरे जैसे ईश्वर की, वैसे ही कविता की भी
जगह घटती ही जा रही है जीवन में
ईश्वर से पैदा हुआ शून्य कविता भरती है
कविता से पैदा हुआ शून्य कौन भरेगा?
क्या कविता नहीं रहेगी तो
हमारा होना एक ब्लैकहोल में, किसी बुझे हुए सितारे की राख की तरह बचा रहेगा?
इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं, आपके पास हो तो हो
फिलहाल तो मैं बस इतना चाहता हूं कि मैं बना रहूं
और मुझमें मेरी कविताएं बनी रहें।

Wednesday, November 28, 2007

आग

अपने लिखने पर बहुत भरोसा रहा हमें
एक भोला भरोसा
जो एक कमजोर सी कलम के बूते देखता रहा दुनिया बदलने का सपना
जबकि दुनिया हमें बदलती रही
उसने हमारे लिए कलमें बनाईं
उनका मोल लगाया
उसने हमारी आग को अपनी धमन भट्ठियों के लिए इस्तेमाल किया
उसने हमारे हुनर से अपने घर सजाए
उसने हमारे ऊपर सुविधाओं का पानी डाला
हम पहले धुआं हुए, कुछ की आंखों में गड़े
फिर राख हुए
समाधिलेख की सामग्री बने
वैसे हमें बुझाने के और भी आसान तरीके सामने आ गए
लोगों ने पहले हमारा जादू देखा
फिर इस जादू का बिखरना देखा
हम बंद हो गए एक माचिस की डिबिया में
हम छोटी-छोटी तीलियों में बदल गए
बस इतने से आश्वस्त और खुश
कि हमारे भीतर बची हुई है आग
कि थोड़ी सी रगड़ से वह दिखा सकती है अपना कमाल
कि अब भी उसमें कहीं भी जल उठने, कुछ भी जला देने की क्षमता है
लेकिन माचिस की डिब्बी में बंद ये तीलियां
यह तक नहीं देख पाईं
कि वे किन पाकशालाओं, किन जेबों के हवाले हैं
और
किनका चूल्हा चलाने, किनकी सिगरेट जलाने में
उनका इस्तेमाल हो रहा है।
हम आग थे, हममें जलने की संभावनाएं थीं
हममें बदलने की संभावनाएं थीं
लेकिन हमने हवाओं से मुंह छुपाया
दिशाओं से पाला बदला
कुछ भी देखने से इनकार किया
ये भी नहीं देखा
जिसे हमें मशाल समझते रहे
वह तीली-तीली सिमटती गई
बडी उपमाओं के नीचे बनते रहे छोटे-छोटे यथार्थ
ध्यान से देखें तो जिनमें दिखेगी एक अट्टाहासी कामयाबी
आग को जीतकर ही इंसान ने सभ्यता बनाई
आग को गुलाम रखकर ही वह अपनी इस सभ्यता को बचा रहा है।

Sunday, October 21, 2007

इस तरह बनना

कुछ समय हमेशा पीछे छूट जाता है
सिर्फ़ तभी नहीं जब पत्ते झरते हैं
तब भी जब पत्ते बनते रहते हैं
एक छोटे से हरे विन्यास पर
उकेरी उनकी एक-एक महीन रेखा
न जाने कितने बिंदुओं को पीछे छोड़कर उभरती है
जब कभी किसी फुरसत में
या अनायास आए किसी अंतराल में
हम अपनी हथेलियों में थामते हैं
एक मुलायम मुस्कुराती पत्ती
जिसमें हमारे मासूम बचपन की
कोमलता और गंघ बसी होती है
तब हमें लगता है
कितना पीछे छूट गया है समय
लेकिन सच्चाई यही है कि
जब हम वह पत्ती थामते हैं
और पीछे की यात्रा नए सिरे से शुरू
करने के उल्लास से भर जाते हैं
तब भी कोई अनजान सी आरी
चुपचाप चलती रहती है हमारे वजूद पर
बहुत ध्यान से सुनने पर ही
समझ में आती है उसकी मद्धिम आवाज
जिसे हम कभी हवा की फुसफुसाहट, कभी पत्ती की सरसराहट और
कभी उड़ती-बैठती धूल का शोर समझ कर
नजरअंदाज करते हैं।
दरअसल कुछ न कुछ समय हमारे भीतर बनता भी जाता है छूटता भी जाता है
चाहें तो हम अपने-आप को बार-बार पहचान सकते हैं नए सिरे से
और समझ सकते हैं
यह समय नहीं है जो बनता और छूटता जा रहा है
यह हम हैं जो लगातार कुछ होने की प्रक्रिया में हैं-
कुछ जीता है हमारे भीतर कुछ मरता है
हमें हर पल कुछ नया करता है।

Wednesday, October 17, 2007

तरक्की

हममें से बहुत सारे हैं
जिनकी पीठ पर चाबुक की तरह पड़ता हैये वक्त
बहुत सारी हताशाएं हैं
बहुत सारे टूटे हुए अरमान
लेकिन टीस इतने भर की नहीं है
हमारा चेहरा उतार लिया है किसी ने
खींच ली है हमारी ज़ुबान
हमारे हंसने और रोने का वक़्त और इसकी वजह
तय करता है वही
हमें हंसना नहीं है
बस उसकी हंसी में मिलानी है अपनी हंसी
लेकिन ये याद रखते हुए कि उससे ज्यादा गूंज और खनक
पैदा न हो इस हंसी में
और रोना तो कतई नहीं है,
बेआवाज़ रोना भी नामंजूर
ख़बरदार जो हवा ने भी देख लिया
और किसी पोली दीवार ने सुन लिया
ये निजताएं गोपनीय हैं
इन्हें अपने वेतन की तरह छुपा और संभाल कर रखिए
आत्मविश्वास बस इतना हो
जिससे चल जाए उसका काम
इतना नहीं कि डोलने लगे
उसका भी अपने-ऊपर भरोसा।
आप एक सामाजिक प्राणी हैं और कुछ तौर-तरीके निर्धारित हैं आपके लिए
ज्यादा से ज्यादा आप कर सकते हैं
अपनी झुकी हुई रीढ़ के साथ
इंतज़ार उस दिन का
जब एक चाबुक आपके हाथ में भी होगा
और आप किसी की पीठ पर उसकी सटाक
सुन कर ख़ुद को तसल्ली देकर कह सकेंगे
कि नहीं गई बेकार इतने दिनों की मेहनत और ज़िल्लत
और फिर अपनी खोई हुई हंसी और खनक
और अपने आत्मविश्वास को अपने हिलते हुए चाबुक के साथ
रखकर तौलेंगे
और इतराते हुए सोचेंगे मन ही मन
कहां से कहां कारवां पहुंच गया ज़िंदगी का
सच है, रंग लाती है मेहनत
और सब पर मेहरबान होती है नियति कभी न कभी।

Thursday, October 11, 2007

नाचते गाते लोग

शादी-ब्याह के दिनों में समूचे उत्तर भारत की सड़कों पर एक दृश्य बेहद आम है। बैंड-बाजे के साथ कोई बारात धीरे-धीरे खिसक रही है और उसके आगे कुछ हिंदी फिल्मों की तेज़ धुनों पर बच्चे से बूढ़े तक- जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं- कूल्हे मटका कर, कमर हिलाकर, हाथ ऊपर-नीचे फेंक कर कुछ ऐसा कर रहे हैं जो उनके मुताबिक नाचना है। इस नाच में लड़के के मां-बाप, भाई-बहन, मित्र-परिजन- सभी शामिल होते हैं और जो शामिल नहीं होता, वह या तो अतिशय शर्मीला माना जाता है या फिर दूर का ऐसा रिश्तेदार, जिसके लिए यह शादी थिरकने का अवसर नहीं है। संभवतः महारानी विक्टोरिया के ज़माने की अजीबोगरीब अंग्रेज़ पोशाक पहन कर बैंड-पार्टी के ग़रीब शहनाई वाले 'बंबई से आया मेरा दोस्त' से लेकर 'ये देश है वीर जवानों का' तक की मोटी-कर्कश धुनें निकाला करते हैं और सिर पर ट्यूबलाइट ढो रही महिलाओं के बीच सूट-बूट पहने लोग नाच-नाच कर अपनी खुशी का इजहार करते रहते हैं।
सड़क का यातायात अस्त-व्यस्त कर देने वाले इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम को चिढ़ते और झुंझलाते हुए देखने का सौभाग्य हम सबको अक्सर मिलता रहता है। दरअसल यह सड़कनाच उत्तर भारत के मध्यवर्गीय समाजों में इन दिनों पसरी संस्कृतिविहीनता का सबसे नायाब नमूना है। यह वह समाज है, जिसमें बच्चों को संगीत और नृत्य की शिक्षा देने का आम तौर पर चलन नहीं है। गाने-बजाने का शौक अच्छी चीज नहीं समझा जाता है, नाचना तो ख़ैर बहुत दूर की चीज है। ऐसे में किसी को नाचना पड़ जाए तो वह हिंदी फिल्मों की नकल न करे तो क्या करे।
दरअसल मोटे तौर पर जो हिंदी भाषी समाज है, उसके लिए संस्कृति और मनोरंजन के मायने कभी सिनेमा हुआ करता था और अब इन दिनों उनमें टीवी आ जुड़ा है। संस्कृति की सारी सीख उसे यही दो माध्यम देते हैं। अचरज नहीं कि शास्त्रीय संगीत और नृत्य उसकी सांस्कृतिक परिभाषा में अजूबी चीज़ें हैं जिनकी ज्यादा से ज्यादा पैरोडी की जा सकती है। शब्दों की दुनिया में साहित्य उसे सुहाता नहीं, कविता उसे मोहती नहीं, आधुनिक चित्रकला तो खैर उसके लिए चुटकुला है। गीत-संगीत की उसकी सांस्कृतिक समझ उन फिल्मी गानों से बनती है जिनमें झोंपड़ी में चारपाई होती है और सोलह साल की लड़की सत्रह साल के लड़के को अपने दिल का हाल बताती है।
ऐसे में शादी-ब्याह के मौके पर उसे जब अपने उल्लास की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम चुनना होता है तो उसके पास उन फूहड़ नृत्यों की भौंडी नकल के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता जिनकी कुछ धुनें उसे याद रहती हैं। बल्कि यह अवसर उसके लिए वर्षों से संचित संकोच को तोड़ने का अवसर होता है। कई लोग जैसे शादी में शराब पीकर अपना अहं तुष्ट करते हैं, वैसे ही नाच कर भी खुद को तसल्ली दे देते हैं कि हां, उनमें अपनी खुशी जाहिर करने की कुव्वत बची हुई है। जो बहुत बूढी महिलाएं और जो वृद्ध पुरुष नाच नहीं पाते, वे किसी नाचने वाले के सिर पर कुछ रुपए घुमाते हुए बैंड वालों को थमाते हैं, जैसे वे भी अपने हिस्से का ज़रूरी सांस्कृतिक कर्त्तव्य पूरा कर रहे हों।
पहले ऐसे नृत्यों पर पुरुषों का एकाधिकार था। मगर इन वर्षों में महिलाओं ने इस एकाधिकार को तोड़ा है। वे भी साहस के साथ सड़क पर नाचती नज़र आती हैं। इनमें से कई ऐसी स्त्रियां होती होंगी जिन्होंने अपने बचपन और कैशोर्य में नृत्य या संगीत सीखने की इच्छा प्रगट की होगी और भाइयों और पिता से डांट सुनकर दिल को फिल्मी गीतों भर से बहला लिया होगा। ध्यान से देखिए तो ये सारे नाचते हुए स्त्री-पुरुष उल्लास मनाते नहीं दिखेंगे, बल्कि उनमें नाचने-गाने की जो इच्छा दबी रह गई उसे किसी तरह पूरा करने की हड़बड़ी दिखेगी।
मगर ध्यान से देखने लायक बात यहां दूसरी है। इस तरह नाचना क्या बताता है? यही कि समाजों के लिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति अपरिहार्य होती है। जो समाज अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां छोड़ देते हैं वे भी किसी शून्य में नहीं रह जाते। जीवन में उल्लास के और उदासी के भी ऐसे अवसर आते हैं जब मनुष्य और समाज उनको किसी माध्यम से व्यक्त करना चाहता है। जब संस्कृति बची नहीं रहती तो उसकी जगह अपसंस्कृति ले लेती है। यानी लोग नाचना-गाना तो चाहते हैं, मगर पाते हैं कि उन्हें यह आता नहीं या सिखाया नहीं गया। ऐसे में वे संस्कृति के नाम पर सिनेमा या टीवी द्वारा पेश किए जा रहे सतही और फूहड़ गीत-संगीत की उससे भी ज्यादा फूहड़ नकल कर सकते हैं और करते हैं।
अक्सर ऐसी बारातों में सड़कें एकाध घंटे जाम रह जाया करती हैं और उन पर न कोई झुंझलाता है और न नाराजगी व्यक्त करता है। भारतीय समाज के भीतर इस अनूठी सांस्कृतिकता ने जो अपनी सार्वभौमिक स्वीकृति बनाई है, यह उसी का प्रमाण है। हर किसी को मालूम है कि एक दिन वह भी किसी की बारात में शामिल होगा और सड़क पर नाचते हुए रास्ता जाम करेगा। आखिर हर किसी को अपने उल्लास को अभिव्यक्त करने का हक मिलना ही चाहिए। उत्तर भारतीय समाज ने इस अभिव्यक्ति के बाकी सारे माध्यम खो दिए हैं तो क्या हुआ। सड़कें बची हुई हैं और उन पर नाचने की छूट है।

Tuesday, October 9, 2007

युद्ध

युद्ध हम सबने देखा
हम सब हुए आहत
हम सबने की निंदा
ताकि ख़ुद को हो तसल्ली
कि अब भी हमारे भीतर
है थोड़ी सी आंच ज़िंदा
बहुत दूर था मेसोपोटामिया
वहां हम कैसे जाते
रक्त में नहाई दजला-फुरात की
रुलाई कैसे सुन पाते
यों भी था शोर बहुत
ढेर सारे संदेशवाहक
जो दिख रहा था
जो आ रहा था
उस पर संदेह करते नाहक
हमने विरोध किए
हमने धरने दिए
घायल बच्चों और रोती मांओं की
चीख सुन रोया किए
और क्या कर सकते थे
ताक़तवर के आगे
बस प्रार्थना की
कि उसकी अंतरात्मा जागे
अगर न जागे
तो भी बनी रहे उसकी दया़
हम हैं कायर ये मानने में
काहे का शर्म कैसी हया
हम पर न आए
जो दूसरों पर आई आफत
किसी तरह बची रहे
हमारे लिए ये तसल्ली ये राहत
किसी कमबख़्त ईश्वर से
की जाने वाली ये दुआ
कि शुक्र है हमारे साथ
ये सब न हुआ

Sunday, October 7, 2007

साल

जनवरी नए उगते फूलों की ख़ुशबू जैसी लगती है
जब हम पहली बार बाग में दाख़िल हो रहे हों
सोचते हुए, अभी तो शुरू हुआ है साल
और इस बार तो सहेज लेंगे वह सब जो इतने सालों से बिखरा पड़ा है

फिर फरवरी आकर कुछ फूल गिरा जाती है पांवों पर
और सरग़ोशियों में याद दिला जाती है
कि कुहरे-कुहरे में कुछ वक़्त फिसल गया है
फिर भी अफ़सोस नहीं है न ताज़गी में कमी है कोई
आख़िर कम नहीं होते ग्यारह महीने
और सहेजना शुरू करने में लगता तो है थोड़ा वक़्त

मार्च थोड़ी तपिश और थोड़ा पसीना छोड़ जाता है
कुछ फ़िक्र भी कि अब तक ज़िंदगी पटरी पर नहीं आई है
फिर भी एक तसल्ली है कि मौसम से ऊष्मा है
और थोड़े से धीरज, थोड़ी समझदारी से तानी जा सकती हैं
वक़्त की प्रत्यंचाएं अपने अनुकूल।

अप्रैल के साथ आता है शुष्क सा यथार्थ
कि फिर वही फिर वही मौसम जिसमें वक़्त की धूप
कोमल इरादों की पत्तियों को झुलसाना शुरू करती है
हम कमरे में हैं मेज़ पर और कलम खुली पड़ी है
काग़ज़ उड़ रहा है और शब्द पकड़ में नहीं आ रहे
थोड़ी सी बोरियत कुछ थकान और चाय पीने की इच्छा
जो हमें खींच लाती है कमरे से बाहर।


और अब हम मई के सामने हैं, बाहर धूल है भीतर क्लांति
बीच में सिर पर पड़ती हुई धूप
हम क्या करें कहां जाएं
ये वो मौसम है जो कमरे से बाहर जाने की इजाज़त नहीं देता
ये ख़ुद को याद दिलाने का वक़्त है
कि साल अपने आधे सफ़र के अंतिम पड़ाव पर है
और उम्मीदों और इरादों के इम्तिहान लगातार होते जाएंगे मुश्किल
लेकिन फिर वही सवाल कहां जाए, क्या करे कोई

जून थोड़ी सी उमस और चिपचिपाहट के साथ आता है
आधे के बचे होने का अहसास बांधे हुए है अब भी
और मेज़ से धूल साफ़ की जा रही है
उजले काग़ज़ रखे जा रहे हैं
किताबें क़रीने से सजाई जा रही हैं
और एक ख़ुशनुमा सा अहसास
देर से ही सही, शुरुआत तो हुई

कि सामने आ खड़ी होती है जुलाई
बारिश में भीगी अपनी गीली चोटी लटकाए
कमरे में बूंदें आ रही हैं और कागज़ कोरा का कोरा है
कलम पड़ी है एक किनारे और मन स्थिर नहीं है
कुछ दोस्तों की मीठी याद, कुछ दुश्मनों से तुर्श ईर्ष्या
जिन्हें मौसम का कोई दखल रोकता नहीं।

अगस्त से शुरू हो जाती है ढलान
और कुछ थकान भी
जिसमें पहली बार शामिल है यह उदास करने वाला खयाल
कि यह साल भी जेब और ज़िंदगी से यों ही न निकल जाए

सितंबर थोड़ा सहारा देता है तसल्ली भी
कि बाक़ी है लिखने की इच्छा
इसके बावजूद कि बहुत सारी अड़चनें हैं उलझनें भी
और उससे ज़्यादा अनमनापन कि कोई चीज़ इन दिनों छूती नहीं
छूती है तो टिकती नहीं

अक्तूबर तुरही बजाता हुआ आता है
याद दिलाता हुआ कि सारे उत्सव मना लो इन्हीं दिनों
यह अपने किए को सहेजने का वक़्त है
लेकिन अनकिए को कोई कैसे सहेजे, यह नहीं बताता।

नवंबर से शुरू हो जाता है विदागीत
हल्की-हल्की सर्दियां और पहाड़ों-आसमानों से उतरता
कोमल धूप में लिपटा चिड़ियों का संगीत
यह हिसाब-किताब करने का वक़्त है
खोया-पाया की बही खोलने का
और देखने का
कि इरादों की कोमल पत्तियां वक़्त की पुस्तक में दबे-दबे सूख गई हैं
हालांकि उनके निशानों में भी है रचना की गुंजाइश


और दिसंबर तो बस आता है नए साल का दरवाज़ा खोलने के लिए
बची-खुची छुट्टियां लेने का वक़्त और खुद से किए वायदों को भूल
नए वायदे करने का।
कि पहली बार महसूस होता है कि अरे, निकल गया यह साल तो
लेकिन साथ में उतरता है यह बोझ भी
कि चलो भले बीता कोरा का कोरा
लेकिन इसके बाद तो आ रहा है नया साल
जिसमें हम बांध सकेंगे नए सिरे से मुट्ठियां
और ख़ुद को दे सकेंगे तसल्ली
कि बाकी हैं अब भी कई बरस हमारे लिए

Friday, October 5, 2007

अच्छी कविता की गुंजाइश

कविगण,
सही है कि यह वक़्त आपका नहीं,
लेकिन इतना बुरा भी नहीं
जिसे आप इस क़दर संदेह और नफ़रत से देखें
इस वक़्त बहुत सारे नामालूम से प्रतिरोध गुत्थम-गुत्था हैं
सदियों से चले आ रहे जाने-पहचाने अन्यायों से
यह वक़्त हैवानियत को कहीं ज़्यादा साफ़ ढंग से पहचानता है
यह अलग बात है कि हाथ मिलाने को मजबूर है उससे
सही है कि देह अब भी सह रही है चाबुक का प्रहार
लेकिन पीठ पर नहीं. चेहरे पर
यह ज़्यादा क्रूर दृश्य है
लेकिन ये भी क्या कम है कि दोनों अब आमने-सामने हैं
एक-दूसरे से मिला रहे हैं आंख
सही है कि वक़्त ने निकाली हैं कई नई युक्तियां
और शासकों ने पहन ली हैं नई पोशाकें
जो बाज़ार सिल रहा है नई-नई
उन्हें लुभावने ढंग से पेश करने के लिए

फिर भी कई कोने हैं
कई सभाएं
कई थकी हुई आवाज़ें
कई थमे हुए भरोसे
कई न ख़त्म होने वाली लड़ाइयां
जिनमें बची हुई है एक अच्छी कविता की गुंजाइश

Wednesday, October 3, 2007

मौत ने दिलाई जिनकी याद

वे स्कूलों और शरारतों के दिन थे
जब कभी हम दोस्त हुए, आने वाले कई सालों तक सड़कों पर भटकने के लिए
और एक दिन
इस तरह जुदा होने के लिए
कि फिर सीधे मौत ने ही याद दिलाया कि हम कभी दोस्त थे
जोड़ने पर निकला, गप्पू बचपन से अब तक का चौथा दोस्त है
जिसे उम्र के इस मध्याह्न में खो चुका हूं
वह अचानक नहीं गया,
मौत उसे धीरे-धीरे अपने साथ ले गई
यह सबको पता था कि नशे में गर्क़ यह ज़िंदगी
बहुत दिन नहीं संभाल पाएगी अपने क़दम
लेकिन कम लोगों ने समझा
कि नशे से ज्यादा यह ज़िंदगी की मजबूरी थी जिसमें गप्पू मौत की तरफ बढ़ता चला गया
गप्पू के जाने से ही याद आई भुवनीश की
मुहल्ले के नुक्कड़ पर अपने बड़े भाई की पान दुकान पर
रोज़ कुछ घंटे बैठ अपनी कत्थई उंगलियां लिए जब वह बाहर आता
और उस ऊबड़-खाबड़ मैदान की तरफ चल पड़ता जहां हम क्रिकेट के विकेट लगाया करते
तब उसके चेहरे पर पान की दुकान की जगह एक आसमान चला आता
उसकी खुशी में एक खिलखिलाहट शामिल होती
वह हमारे बीच का सबसे चंचल और हौसले वाला दोस्त साबित होता
जो रास्ते में पड़ती एक नदी से मछलियां भी पकड़ा करता था
एक दिन पता चला, उसे कई बीमारियों ने घेर लिया है
और भाई के पास उसके इलाज के पैसे नहीं हैं
लेकिन वह बेफ़िक्र था या अनजान
फिर न पान की दुकान पर बैठा न खेल के मैदान में आया
आसमान के कोने में अब भी होगी उसकी एक जगह
जिसमें शायद स्मृति और विस्मृति के बीच धुंधलाते हमारे चेहरे होंगे
कौसीन दोस्त नहीं थी
दोस्त से कुछ कम थी, कुछ ज़्यादा भी
वह दूर भी थी पास भी- उसकी आंखों में अनिश्चय के घबराए बादल दिखा करते
और उन्हीं के बीच तिरती उम्मीदों की नाव
एक बेहद गहरा डर और उससे भी गहरी ज़िद जीने की
जिसे वह इस विकट दुनिया में अपने डरे हुए चौकन्नेपन के साथ बार-बार संभव बनाती रही
और फिर वे दिन भी आए जब वह अपनी मर्ज़ी से अपनी चुनी हुई सड़कों पर चल रही थी
अपने ज़मीन आसमान ओढ़-बिछा रही थी
हालांकि यह कविता में जितना रोमानी लगता है, जिंदगी में उतना ही कठोर था
लेकिन न उसे मालूम था न हमें
कि एक दिन मौत एक सड़क पर उसे घेर लेगी
अरसे बाद एक दोस्त से मिली जानकारी ने
मुझसे छीन लिए मेरी ज़िंदगी के वे लम्हे
जो एक मुश्किल घड़ी में अपनी एक मासूम सी दोस्त के काम आने के ग़रूर के साथ
मेरे भीतर बचे हुए थे।
कई और भी हैं जो ज़िंदगी में सितारों की तरह कौंधे और बुझ गए
सबा याद आती है, चमकती आंखों वाली वह लड़की जिसने
एक छोटे से काम के लिए एक बडा सा थैंक्यू लिखा
जो हर बार अघिकार के साथ दनदनाती चली आती
और मुस्कुराती लौट जाती
हालांकि कामकाज़ी रिश्ता उससे दफ्तर का रहा लेकिन जिस दिन मौत ने ये रिश्ता तोड़ दिया
उस दिन अपने भीतर भी कुछ टूटता मैंने महसूस किया।

याद करने को और भी चेहरे हैं रिश्ते हैं नाम हैं जो अब नहीं रहे
वे भी जो दोस्त से ज्यादा रहे और दिल और जीवन के इतने क़रीब
कि उनके बारे में लिखते हुए कलम बाद में कांपेगी,
सोचते हुए देह पहले सिहरती है, आंख पहले भर आती है।

वे कथाएं मैं लगातार स्थगित करता जाऊंगा इस उम्मीद में
कि एक दिन इतना समर्थ या निष्ठुर हो पाऊंगा कि लिख सकूंगा
अपने ही मिटने-कटने और तिल-तिल मरने, फिर भी बच निकलने की वे भावुक लगने वाली दास्तानें
जिनमें जितना अधूरापन होगा, उतना ही खालीपन भी जिसे ढंकने के लिए मैं अस्तित्व और जीवन से जुड़े
बड़े दार्शनिक और वैचारिक झूठों का सहारा लूंगा।

फिलहाल यह अधूरी कविता इतना भर जानती है
कि कभी भी हममें से कोई भी कहीं से भी जा सकता है
सरकारी अस्पताल में अपनी तकलीफ़ से लड़ते भुवनीश की तरह
घर में तिल-तिल घुलते गप्पू की तरह
एक सड़क हादसे में मारी गई कौसीन की तरह
या फिर समंदर में डूब गई सबा की तरह
कोई भी अपना या पराया
जिस पर बेमुरव्वत मौत डाल देगी एक दिन परदा।

चाहूं तो कह दूं कि फिर भी वह उन्हें ख़त्म नहीं कर पाएगी
आख़िर वे मेरे भीतर ज़िंदा हैं
लेकिन सच तो यह है
कि मेरे भीतर भी वे एक दिन धुंधलाते मरते चले जाएंगे
जैसे मैं एक दिन
बरसों बाद जिसकी धुंधलाती याद किसी को तब आएगी
जब अपने बीच का कोई और जा चुका होगा।

Tuesday, October 2, 2007

रांची से दिल्लीः १४ बरस बाद

८ जुलाई १९९३ को मैं रांची से दिल्ली के लिए चला
लगभग ये कसम खाकर कि ज्यादा नहीं ठहरूंगा
जल्दी ही लौट जाऊंगा अपने शहर
लेकिन तब नहीं मालूम था
बड़ी शिद्दत से खाई गई क़समें भी
पुरानी चिट्ठियों की तरह नए बने घर के किसी कोने में ठूंस दी जाती हैं
जहां न स्मृतियों की कोई हवा पहुंचती है न आत्मीयता की कोई रोशनी
अपने से किया घर लौटने का वादा भूलने में वक्त लगता है
लेकिन कभी वह दिन भी चला आता है,
जहां शहर लौटने का वादा ही नहीं, शहर भी बेमानी जान पड़ता है।

बहुत आसान है इस सबके लिए इस महानगर को ज़िम्मेदार ठहरा देना
कह देना कि उसके ऑक्टोपसी पंजों ने पीछे मु़ड़कर देखने की फुरसत नहीं दी
कि महानगर बडी से बडी कसमों को लील जाता है
लेकिन यह सच कम से कम अपने से नहीं छुपा पाऊंगा
कि इन सबके पीछे कुछ हिस्सा, कुछ हाथ मेरा भी रहा है
कि बेख़बरी में या जान बूझ कर
मोह में या मजबूरी
मैं छोड़ता गया या मुझसे छूटता गया
मेरा वह शहर जो कई साल तक
इस महानगर में बिल्कुल मेरे साथ-साथ चलता रहा
सड़कों पर घिसटता हुआ बसों के धक्के खाता हुआ
किसी तकलीफ़ में तसल्ली देता हुआ
किसी दुख में साझा करता हुआ।
हमेशा उम्मीद बंधाता हुआ
कि एक घर वहां हमेशा बना रहेगा
मेरे इंतज़ार में,
जो मेरी थकान में मेरी टूटन में, मेरी बेदखली में
मुझे आसरा देगा
एक क्यारी हमेशा खाली रहेगी जो मुझे किसी भी दिन नए सिरे से
रोपने को तैयार होगी।

लेकिन क्या इतने साल बाद भी वह आश्वस्ति मेरे साथ मेरे भीतर है?
बीच-बीच में जाता रहता हूं
अपने उस शहर को हर रोज़ कुछ टूटता कुछ बनता देखता रहता हूं
और कोशिश करता हूं इस नए बनते शहर से मेरी जान-पहचान मिटे नहीं।
लेकिन धीरे-धीरे अपने भीतर बनती उस खला को
नज़रअंदाज़ नहीं कर पाता
जो दरअसल मेरे शहर और मेरे बीच की है
और लगातार बड़ी होती जा रही है।
यह उदास करने वाला अहसास
अब पीछा नहीं छोड़ रहा
कि जिस शहर को मैं अपने हथेली के विस्तार की तरह देखता था
जिसकी सड़कें मेरे पांवों में लिपटी रहती थीं
वह धीरे-धीरे अजनबी होता जा रहा है
कि एक दिन मैंने शहर को छोडा था
अब उस शहर ने मुझे छोड़ दिया है।

लेकिन जब सब कुछ छूटता जा रहा है, टूटता जा रहा है
तब वह इतना बेसाख़्ता याद क्यों आ रहा है?
क्यों ऐसा अक्सर होता है
कि किसी उनींदी रात की सरहद पर जो सपना
नई दिल्ली के ग्रेटर कैलाश की किसी ऊंची इमारत से शुरू होता है
वह पलक झपकते रांची के किशोरगंज मुहल्ले की एक बेहद पुरानी गली में उतर जाता है
कि अंगूर की लतरों वाला एक पुराना आंगन अपने आम-अमरूद के पेडों के
साथ अब भी पुराने झूले, पुराने खेल, पुराने गाने और पुरानी गेंद
लेकर मेरे भीतर चला आता है
और मुझे याद दिलाने लगता है
कि कहीं तुम वही तो नहीं?

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए नहीं
बस यह बताने के लिए लिखी है यह कविता
कि जब हम बहुत दूर चले जाते हैं तब भी
एक आंगन हमारे भीतर बचा रहता है
कहीं ऐसा न हो कि एक दिन ऐसा भी आए
जब वह आंगन भी चला जाए
यह उस दिन होगा
जब हमारी नींद में हमारी आंखों में हमारी रातों में
कोई सपना नहीं बचा रहेगा।

Sunday, September 30, 2007

रंगमंचः दो संदर्भ

पूर्वरंग

कुर्सियां लग चुकी हैं
प्रकाश व्यवस्था संपूर्ण है
माइक हो चुके हैं टेस्ट
अब एक-एक फुसफुसाहट पहुंचती है प्रेक्षागृह के कोने-कोने में

तैयार है कालिदास
बस वस्त्र बदलने बाकी हैं
मल्लिका निहारती है अपने बादल केश
तनिक अंधेरे ग्रीन रूम के मैले दर्पण में
बेचैन है विलोम
अपने हिस्से के संवाद मन ही मन
दुहराता हुआ
और सिहरता हुआ अपने ही प्रभाव से
खाली प्रेक्षागृह को आकर देख जाती है अंबिका
अभी अंधेरा है मंच
कुछ देर बाद वह यहीं सूप फटकारेगी
और आएगी भीगी हुई मल्लिका
लेकिन थोड़ी देर बाद

अभी तो मंच पर अंधेरा है
और सुनसान है प्रेक्षागृह
धीरे-धीरे आएंगे दर्शक
कुर्सियां खड़खड़ाती हुई भरेंगी
बातचीत के कुछ टुकड़े उभरेंगे
और सहसा मंद पड़ जाएंगे
कोई पुरुष किसी का हाल पूछेगा
कोई स्त्री खिलखिलाएगी
और सहसा चुप हो जाएगी
अपनी ही प्रगल्भता पर खुद झेंपकर

नाटक से पहले भी होते हैं नाटक
जैसे कालिदास बार-बार लौट कर जाता है
मंच पर घूमता है ऑथेलो
पुट आउट द लाइट
पुट आउट द लाइट
मैकबेथ अपनी हताशा में चीखता है
बुझ जाओ नश्वर मोमबत्तियों

प्रेक्षागृह की तनी हुई दुनिया में
सदियां आती-जाती हैं
दीर्घा की चौथी कतार की पांचवीं कुर्सी पर
बैठी स्त्री छींकती है
और सहसा एक कड़ी टूट जाती है

सबके ऊपर से बह रहा है समय
सब पर छाया है संवादों का उजास
सबके हाथ सबके हाथों को छूते हैं
नमी है और कंपकंपाहट है
मंच पर ऑथेलो है
मगर ऑथेलो के भीतर कौन है?
कौन है जो उसे देख रहा है दर्शक दीर्घा से
और अपने मन की परिक्रमा कर रहा है
क्या वह पहचान रहा है
अपने भीतर उग रहे ईर्ष्यांकुर को?

सबका अपना एकांत है
सबके भीतर बन गए हैं प्रेक्षागृह
सबके भीतर है एक नेपथ्य
एक ग्रीन रूम, जिसमें मद्धिम सा बल्ब जल रहा है
और आईने पर थोड़ी धूल जमी है
सब तैयार हैं
अपने हिस्से के अभिनय के लिए
सबके भीतर है ऑथेलो
अपनी डेसडिमोना के क़त्ल पर विलाप करता हुआ
विलोम से बचता हुआ कालिदास

जो कर रहे हैं नाटक
उन्हें भी नहीं है मालूम
कितनी सदियों से चल रहा है यह शो
तीन घंटों में कितने सारे वर्ष चले आते हैं
जब परदा खिंचता है और बत्तियां जलती हैं
तो एक साथ
कई दुनियाएं झन्न से बुझ जाती हैं


नाटक के बाद
कुर्सियां खाली हैं
छितराई हुई सी
मंच पर अंधेरा है
हेमलेट के एकालाप अब अकेले हैं
उन्हें कोई नहीं कह रहा कोई नहीं सुन रहा
बेआवाज़ वे घूमते हैं ठंडे प्रेक्षागृह में
पहली बार महसूस हो रहा है रात है
और बाहर अंघेरा है
और कोई नहीं चीख रहा है मंच पर
कि मृत्यु की तरह भयंकर होती है कभी-कभी चुप्पी
ढेर सारे शोर-शराबे के बाद
ऐंठती-इठलाती छायाओं और मृदु मग्न तालियों के बाद
नीली स्पॉटलाइट की स्निग्धता बुहार नहीं सकी है जिस दुःख को
उसके बीत जाने के बाद
अंधेरा है
मृत्यु की तरह काला
चुप्पी है
मृत्यु की तरह भारी
न कोई दर्शक
न अभिनेता
न साज़िंदे न वाद्य वृंद
न कोई समय, न कोई दुःख
सिर्फ़ एक निर्वेद में
सांस रोके लेटा है प्रेक्षागृह
एक शव की तरह
क्या पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में?

समय

समय बहुत दूर चला जाता है
इतनी दूर कि बस एक छाया की तरह नज़र आता है
हवाएं ख़ामोश निकल जाती हैं
दिशाएं चुपचाप बदल लेती हैं पाला
उम्र नाम का एक अदृश्य प्रेत
हमारे जिस्म में बैठा
कहीं बदलता रहता है पुर्ज़े
उसे ठीक-ठीक पता होता है
जोड़ों में कब से शुरू होता है दर्द
हड्डियां कब चटखने लगती हैं
कब शरीर देने लगता है जवाब-

यह शुरुआत है
जो सिर्फ़ याद दिलाती है
वसंत बीत गया अब मौसमों के साथ ज़्यादा एहतियात से पेश आने की ज़रूरत है
कि बेक़ाबू हौसलों के पंख लगाकर उड़ने की जगह
सयाने फ़ैसलों की सड़क पर चलने का वक़्त है
शायद यही बालिग़ होना है
इसमें कुछ थकान होती है, कुछ एकरसता की ऊब
कि बनी-बनाई पटरियों पर ठिठक कर रह गई है ज़िंदगी
थोड़ी सी उदासी भी
कि कितना कुछ किए जाने को था, जो अनकिया रह गया

लेकिन इन सबके बावजूद
न भरोसा ख़त्म होता है न ख़्वाब
न ये इरादा कि अभी बहुत कुछ करने लायक बाक़ी है

यह छलना हो, जलना हो या चलना हो
ज़िंदगी लेकिन इसी से बनती है।

Thursday, September 27, 2007

मुर्ग़े

मुर्ग़े पक्षियों की तरह नहीं लगते
न ठीक से उड़ सकते हैं न गा सकते हैं
और तो और चिड़ियों में दिखने वाला सौंदर्य बोध भी उनमें नज़र नहीं आता
फूलों और बागीचों में सैर करने की जगह
घूरे में भटकते, चोंच मारते मिलते हैं
और लड़ते हुए इंसानों की तरह।

क्या है वह जो उन्हें हमारी निगाह में चिड़िया नहीं होने देता?
क्या इसलिए कि वे असुंदर हैं?
क्या इसलिए कि उनकी आवाज़ कर्कश है
भले ही वे सभ्यता के सूर्योदय के पहले से ही
हमारी सुबहों को पुकारने का काम करते रहे हैं?

देखें तो वे बेहद उपयोगी हैं- सदियों से हमारे उपभोग की सबसे लज़ीज़ वस्तुओं में एक
आज भी मुर्ग़े के ज़िक्र से किसी चिडिया का खयाल नहीं आता
प्लेट पर परोसे एक खुशबू भरे व्यंजन की महक फैलती है

जबकि यह सब बडी आसान क्रूरता से होता है
बड़ी सहजता से हम उन्हें हलाल होता देखते हैं
पहले उनकी जान ली जाती है, फिर उनके पंख नोचे जाते हैं
फिर उनकी खाल उतारी जाती है
और फिर उन्हें तौला और तराशा जाता है
और यह सब देखते हुए हमारी पलक नहीं झपकती
बाद में खाते हुए भी एक पल को याद नहीं आती
वह तड़फती हुई आख़िरी कोशिश
जो कोई मुर्ग़ा किसी कसाई के हाथ से छूटने के लिए कर रहा होता है।

हालांकि चाहे तो तर्क दे सकते हैं
कि मुर्गे उन ढेर सारे पंछियों से कहीं ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत हैं
जिनकी प्रजातियां या तो मिट गईं या मिटने के कगार पर हैं
भले ही वे रोज़ करोडों की तादाद में हलाल किए जाते हों
और बीच-बीच में किसी बीमारी के डर से ज़िंदा जला दिए जाते हों
आख़िर इंसान ही उन्हें पालता है
न उनकी तादाद में कमी है न उनके कारोबार में
वे बचे हुए तो इसलिए कि हम उन्हें खाते हैं

यहां ये मरते या बचते हुए मुर्गे फिर एक दिलचस्प सवाल उठाते हैं,
क्या सिर्फ वही बचे रहेंगे जिन्हें इंसान खाता है या खा सकता है
क्या ये पूरी धरती सिर्फ इंसान के भोग का भूगोल है?
बाक़ी जो हैं बेकार हैं, मार दिए जाने योग्य हैं, या भुला दिए जाने लायक?
आखिरी सच यह है कि एक मरते हुए मुर्ग़े के लिए इन सवालों का कोई मतलब नहीं
हम एक प्रतीक की तरह उसमें चाहे गू़ढ़ार्थ ढूढ़ लें
यह हकीक़त बदलती नहीं
कि मुर्ग़ा बस मुर्ग़ा है, और इंसान को उसके उपयोग की अनंत विधियां मालूम हैं
दरअसल यह भी एक विडंबना है कि एक मुर्ग़े को लेकर अनायास पैदा हुई यह करुणा
एक कविता की अपनी मांग भर है
जो बस लहर की तरह आई है और गुज़र जाएगी
और कवि जब लिखने की मेज़ छोड़ खाने की मेज़ पर जाएगा
तो अपने लिए एक लज़ीज़ मुर्गा ही मंगाएगा
और
एक अच्छी कविता लिखने की खुशी के साथ मिला कर खाएगा।

Tuesday, September 25, 2007

अहंकारी धनुर्धर

सिर्फ़ चिड़िया की आंख देखते हैं अहंकारी धनुर्धर
आंख के भीतर बसी हुई दुनिया नहीं देखते
नहीं देखते विशाल भरा-पूरा पेड़
नहीं देखते अपने ही वजन से झुकी हुई डाली
नहीं देखते पत्ते जिनके बीच छुपा होता है चिड़िया का घोंसला
नहीं देखते कि वह कितनी मेहनत से बीन-चुन कर लाए गए तिनकों से बना है
नहीं देखते उसके छोटे-छोटे अंडे
जिनके भीतर चहचहाहटों की कई स्निग्ध मासूम संभावनाएं
मातृत्व के ऊष्ण परों के नीचे
सिंक रही होती हैं
वे देखते हैं सिर्फ़ चिड़िया
जो उनकी निगाह में महज एक निशाना होती है
अपनी खिंची हुई प्रत्यंचा और अपने तने हुए तीर
और चिड़िया के बीच
महज उनकी अंधी महत्त्वाकांक्षा होती है
जो नहीं देखती पेड़, डाली, घोंसला, अंडे
जो नहीं देखती चिड़िया की सिहरती हुई देह
जो नहीं देखती उसकी आंख के भीतर नई उड़ानों की अंकुरित होती संभावनाएं
वह नहीं देखती यह सब
क्योंकि उसे पता है कि देखेगी
तो चूक जाएगा वह निशाना
जो उनके वर्षों से अर्जित अभ्यास और कौशल के चरम की तरह आएगा
जो उन्हें इस लायक बनाएगा
कि जीत सकें जीवन का महाभारत
दरअसल यह देखने की योग्यता नहीं है
न देखने का कौशल है
जिसकी शिक्षा देते हैं
अंधे धृतराष्ट्रों की नौकरी बजा रहे बूढ़े द्रोण
ताकि अठारह अक्षौहिणी सेनाएं अठारह दिनों तक
लड़ सकें कुरुक्षेत्र में
और एक महाकाव्य रचा जा सके
जिसमें भले कोई न जीत सके
लेकिन चिड़िया को मरना हो

Saturday, September 22, 2007

स्टिंग का दंश और कानून का डंडा

टीवी चैनलों में सामग्री को नियंत्रित करने के पुराने सरकारी मंसूबे को बीते दिनों एक टीवी चैनल द्वारा किए गए फर्ज़ी स्टिंग ऑपरेशन ने जैसे नया तर्क दे डाला है। इसे चैनलों की गैरज़िम्मेदारी के एक बड़े सबूत की तरह पेश करती हुई केंद्र सरकार अब फिर से चैनलों को रास्ते पर लाने के लिए किसी कानून की जरूरत पर जोर दे रही है। सरकार का मूल तर्क यही है कि चैनलों को अभिव्यक्ति के अबाध अघिकार हासिल हैं और इसका वे दुरुपयोग कर रहे हैं। पहले इस दुरुपयोग की मिसाल के तौर पर उनके पास टीवी चैनलों द्वारा परोसे जा रहे भूत-प्रेत से लेकर रहस्य रोमांच के वे किस्से थे जो संजीदा खबरों के लिए जगह नहीं छोड़ते और अब बाकायदा एक ऐसी नकली स्टिंग है जो साबित करती है कि टीवी चैनल दर्शकों को लुभाने के लिए आपराधिक हदों तक जा सकते हैं। सरकार का दूसरा तर्क यह है कि टीवी चैनल अपना कारोबार तो बढ़ा रहे हैं, लेकिन अपनी विषयवस्तु को लेकर कोई मानदंड तय नहीं कर रहे। किसी भी चैनल के पास ऐसी आचार संहिता या सामग्री संहिता नहीं है जो बताए कि चैनल अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभाने को लेकर गंभीर हैं। इसलिए अब यह सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इन चैनलों के एक आचार संहिता तय करे जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हो।
जो लोग टीवी चैनलों पर रोज चलने वाला तमाशा देखते हैं, शायद उन्हें ये तर्क ठीक भी लगे। सरकार की इस शिकायत में दम है कि टीवी चैनलों ने व्यावसायिक सफलता के लिए बौद्धिक सजगता को दांव पर लगा दिया है। टीआरपी की दौड़ में बेतुके उपक्रमों में लीन कई चैनल अगंभीर ही नहीं, बचकाने और हास्यास्पद तक जान पड़ते हैं।
लेकिन क्या इसके बावजूद सरकार द्वारा प्रस्तावित किसी कानून की ज़रूरत है? और क्या वाकई टीवी चैनल टीआरपी की दौड़ में इस कदर खो गए हैं कि उन्हें सही और गलत का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं है? इस सवाल की पड़ताल के लिए पहले उस मुद्दे पर ध्यान दें जहां से ये बहस नए सिरे से खडी होती दिख रही है- यानी एक चैनल का झूठा स्टिंग ऑपरेशन। इस ऑपरेशन के बाद पुलिस ने उन दो पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया है जो इनमें लिप्त रहे। ऑपरेशन की शिकार शिक्षिका को ज़मानत मिल गई है। इस बीच लगभग सारे टीवी चैनलों ने इस ऑपरेशन को गलत बताया है। सब मान रहे हैं कि इस घटना के बाद टीवी चैनलों का माथा शर्म से झुक गया है। अपवाद के लिए भी किसी ने स्टिंग करने वाले पत्रकार को किसी तरह की रियायत देने की वकालत नहीं की है। इस पूरी घटना से दो चीजें सामने आती हैं। एक तो यह कि टीवी चैनलों में अब भी अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास बाकी है। उनके पास कोई लिखित सामग्री संहिता हो या न हो, लेकिन .यह समझ और संवेदना है कि ख़बर बेचने के नाम पर किसी पत्रकार को दूसरों की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने या झूठे किस्से गढ़ने का हक नहीं है। दूसरी बात यह कि अगर कोई चैनल या पत्रकार इसके बावजूद इस लक्ष्मण रेखा को फलांगने की कोशिश करे तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई का रास्ता खुला हुआ है। पुलिस उसे गिरफ़्तार कर सकती है और अदालत में पेश कर सकती है। यानी कम से कम इस नकली स्टिंग ऑपरेशन से सरकार द्वारा प्रस्तावित किसी कानून का कोई तार्किक आधार नहीं बनता। उल्टे यह पता चलता है कि ऐसे गलत कदम पर मी़डिया का रुख बिल्कुल साफ है और कानून का रास्ता भी।
इसमें संदेह नहीं कि समाचार चैनलों के मौजूदा रवैये को लेकर कानून बनाने की जरूरत पर चल रही बहस इतने भर तर्क से ख़त्म नहीं हो जाती। सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी की साफ राय है कि जिन चैनलों को खबर दिखाने का लाइसेंस मिला हुआ है, वे कुछ और दिखा रहे हैं। वे जरूरी और गंभीर ख़बरों की जगह जुर्म, सनसनी, हंसी और अपराध बेच रहे हैं। लेकिन क्या इस बात से भी सरकार को कानून बनाने का तर्क मिल जाता है? सीधी बात यह है कि अगर सरकार को लगता है कि जिस चैनल को उसने खबर दिखाने का लाइसेंस दिया है, वह कुछ और दिखा रहा है तो सरकार यह लाइसेंस रद्द भी कर सकती है। किसी चैनल के लिए इससे सख्त कदम कुछ और नहीं हो सकता कि उसे प्रसारण की इजाज़त ही न मिले। यानी बिना कोई कानून बनाए भी सरकार के पास यह कानूनी विकल्प है जिसके सहारे वह चैनलों पर मनचाहा लगाम लगा सकती है।
पूछा जा सकता है कि अगर समाचार चैनलों में अपनी जिम्मेदारी का भाव इतना गहरा है तो वे किसी कानून से डर क्यों रहे हैं? आखिर कानून तभी काम करेगा जब वे कुछ गलत करेंगे। लेकिन यह भोला तथ्य हाल के कई उदाहरणों की उपेक्षा कर देता है। यह साफ दिखाई पड़ता है कि सरकारें अपने लोगों को बचाने के लिए मीडिया को निशाना बना सकती हैं। मिसाल के लिए वह पहला और ऐतिहासिक स्टिंग ऑपरेशन लें, जिसने भारतीय पत्रकारिता को एक बिल्कुल नए हथियार से परिचित कराया। जब तहलका डॉट कॉम के दो पत्रकारों ने एक नकली हथियार कंपनी बनाकर भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान में होने वाले सौदों की कलई खोली और भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को एक लाख रुपए लेते और डॉलर मांगते दिखाया तो सरकार ने पहले इस खुलासे के नतीजों पर जांच बिठाने की जगह पत्रकारों की नीयत जांचनी शुरू कर दी। आने वाले दौर में तहलका को अपने साहस की कितनी सज़ा भुगतनी पडी, यह किसी से छुपा नहीं है। दासमुंशी कह सकते हैं कि यह उनकी सरकार का मामला नहीं था, उन दिनों केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी। लेकिन कोई चैनल यह तर्क नहीं रख सकता कि एक नकली स्टिंग ऑपरेशन बस एक चैनल के एक पत्रकार का काम है, उससे बाकी चैनलों का सरोकार नहीं है। जाहिर है, मीडिया में अपनी सामूहिक ज़िम्मेदारी का अहसास कम से कम राजनीति से कहीं ज्यादा है। वैसे बाद के दौर में हुए कई और स्टिंग ऑपरेशनों का नतीजा भी कुछ ऐसा ही है- जिनके खिलाफ पत्रकारों ने बेईमानी के सबूत दिए, वे आज़ाद घूम रहे हैं और पत्रकारों को अपने लिए जमानत से लेकर माफी तक के इंतज़ाम करने पड़ रहे हैं।
दरअसल इस सिलसिले में केंद्र सरकार और उसके नुमाइंदे लगातार यह भ्रम पैदा करने की कोशिश में हैं कि भारत में पत्रकार ढेर सारे विशेषाधिकारों का लाभ ले रहे हैं। हाल ही में एक टीवी चैनल पर कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनुसिंघवी ने सरकार द्वारा प्रस्तावित विधेयक पर बहस के दौरान कहा कि पत्रकारों को संविधान के अनुच्छेद १९ के तहत ढेर सारे अधिकार हासिल हैं। दरअसल अनुच्छेद १९ मौलिक अघिकारों का हिस्सा है जिसमें उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ इस देश के पत्रकारों का ही नहीं, तमाम नागरिकों का अघिकार है। इस मौलिक अधिकार को कांग्रेस प्रवक्ता ने पत्रकारों के विशेषाधिकार की तरह प्रस्तुत किया और यह बात छुपा ली कि दरअसल इस देश का कानून पत्रकारों को अलग से कोई अधिकार या रियायत नहीं देता। उल्टे केंद्र और राज्य सरकारें गाहे-बगाहे ढेर सारे ऐसे कानून बनाती हैं जो पत्रकारों के अधिकार सीमित करते हैं। कुछ दिन पहले तक लागू टाडा और पोटा के तहत ऐसे प्रावधान थे जिनमें किसी आतंकवादी के संपर्क में आने तक के लिए किसी पत्रकार को गिरफ़्तार किया जा सकता था। अब भी छत्तीसगढ़ और दूसरे राज्यों में नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानून बने हुए हैं जो पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इन सबसे अलग वह सरकारी गोपनीयता कानून अब तक कायम है जिसे न जाने कब खत्म हो जाना चाहिए था।
जाहिर है, पत्रकारिता को भारतीय कानून न अलग से कोई संरक्षण देते हैं न सुविधा। अगर कुछ पत्रकारों को ऐसी सुविधा मिलती या संरक्षण हासिल होता दिखाई पड़ता है तो इसका वास्ता कानून की कमी से नहीं, बडे और ताकतवर लोगों के उस गठजोड़ से है जिसमें गाहे-बगाहे पत्रकार भी शामिल हो जाते हैं। इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए कानून की नहीं, मानसिकता की जरूरत है। वैसे यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि अब भी तमाम प्रलोभनों के बीच पत्रकारिता की बड़ी बिरादरी खुद को ऐसे गठजोड़ों से दूर रखती है।
बहरहाल, जहां तक स्टिंग ऑपरेशनों का सवाल है, उन पर पूरी तरह रोक का कोई कानून न जरूरी है न उचित। झूठी स्टिंग के खिलाफ सरकार के पास कानून हैं और अगर वाकई किसी बड़े घोटाले को उजागर करने के लिए कोई पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन करता है तो अपनी शर्तों पर करता है और
उसके जोखिम भी उठाता है। अगर इस स्टिंग ऑपरेशन के दौरान वह किसी कानून का उल्लंघन करता है तो उस पर कार्रवाई होनी चाहिए। जब तहलका वालों ने स्टिंग ऑपरेशन किया तो उसकी जितनी भी तारीफ हुई हो, लेकिन इस बात पर सबने एतराज़ किया कि तहलका ने अफसरों की पोल खोलने के लिए कॉलगर्ल तक की पेशकश की। जाहिर है, यहां भी एक `सेल्फ रेगुलेशन’ की भावना काम करती दिखाई पड़ती है। स्टिंग ऑपरेशन अगर कानून के दायरे में रहकर हो तो इस पर एतराज नहीं किया जा सकता। आखिर स्टिंग ऑपरेशन खबरें सामने लाने का एक औजार भी है और यह औजार हाल के तकनीकसमृद्ध दिनों में कितना असरदार रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है।
जहां तक आचार संहिता या सामग्री संहिता का सवाल है, इसमें दो राय नहीं कि चैनलों को तत्काल यह काम करना चाहिए। यह उनके पेशागत ही नहीं, व्यावसायिक सरोकारों के लिए भी ज़रूरी है। क्योंकि अगर वे खबर की जगह तमाशा देते रहेंगे तो उनके चुकने में वक्त नहीं लगेगा। पिछले कुछ सालों में हम कई फार्मूलों को पिटता देख चुके हैं। एक समय अपराध कथाओं को जितने दर्शक मिलते थे, अब नहीं मिल रहे। इसी तरह अंधविश्वासों का खेल ज्यादा नहीं टिक सकता। हंसी के कलाकारों का स्टॉक भी खत्म होता नजर आ रहा है। अब बेतुके और अजीबोगरीब कारनामों का दौर है, जो भरोसा करना चाहिए, ज्यादा नहीं चलेगा। जहां तक सेक्स का सवाल है, वह समाचार चैनलों से कहीं ज्यादा बहुतायत में दूसरे चैनलों और बड़ी आसानी से सुलभ हिंदी फिल्मों में मिल सकता है। यानी खबरों के चैनल बचेंगे तो खबर बेच कर ही। यह बात उन्हें समझनी चाहिए और अपनी खबरें तय करने का एक मानदंड बनाना चाहिए। कुछ चैनलों ने इस दिशा में पहल भी कर दी है।
इस समूची बहस में अब भी सबसे एतराज लायक मुद्दा सरकार द्वारा प्रस्तावित कानून है। क्योंकि अभी जितने कानून हैं उन पर ठीक से अमल हो तो सरकार अश्लीलता भी रोक सकती है, मनगढ़ंत आरोप भी और दूसरे गैरकानूनी खेल भी। लेकिन लगता नहीं कि सरकार की इसमें दिलचस्पी है। उसे डंडा इसलिए चाहिए कि वह अपनी जरूरत के हिसाब से किसी की पीठ सेंक सके, अपने खिलाफ खड़े हो रहे किसी चैनल की खबर ले सके। कम से कम पुराने अनुभव इसी की तस्दीक करते हैं।