Sunday, September 30, 2007

रंगमंचः दो संदर्भ

पूर्वरंग

कुर्सियां लग चुकी हैं
प्रकाश व्यवस्था संपूर्ण है
माइक हो चुके हैं टेस्ट
अब एक-एक फुसफुसाहट पहुंचती है प्रेक्षागृह के कोने-कोने में

तैयार है कालिदास
बस वस्त्र बदलने बाकी हैं
मल्लिका निहारती है अपने बादल केश
तनिक अंधेरे ग्रीन रूम के मैले दर्पण में
बेचैन है विलोम
अपने हिस्से के संवाद मन ही मन
दुहराता हुआ
और सिहरता हुआ अपने ही प्रभाव से
खाली प्रेक्षागृह को आकर देख जाती है अंबिका
अभी अंधेरा है मंच
कुछ देर बाद वह यहीं सूप फटकारेगी
और आएगी भीगी हुई मल्लिका
लेकिन थोड़ी देर बाद

अभी तो मंच पर अंधेरा है
और सुनसान है प्रेक्षागृह
धीरे-धीरे आएंगे दर्शक
कुर्सियां खड़खड़ाती हुई भरेंगी
बातचीत के कुछ टुकड़े उभरेंगे
और सहसा मंद पड़ जाएंगे
कोई पुरुष किसी का हाल पूछेगा
कोई स्त्री खिलखिलाएगी
और सहसा चुप हो जाएगी
अपनी ही प्रगल्भता पर खुद झेंपकर

नाटक से पहले भी होते हैं नाटक
जैसे कालिदास बार-बार लौट कर जाता है
मंच पर घूमता है ऑथेलो
पुट आउट द लाइट
पुट आउट द लाइट
मैकबेथ अपनी हताशा में चीखता है
बुझ जाओ नश्वर मोमबत्तियों

प्रेक्षागृह की तनी हुई दुनिया में
सदियां आती-जाती हैं
दीर्घा की चौथी कतार की पांचवीं कुर्सी पर
बैठी स्त्री छींकती है
और सहसा एक कड़ी टूट जाती है

सबके ऊपर से बह रहा है समय
सब पर छाया है संवादों का उजास
सबके हाथ सबके हाथों को छूते हैं
नमी है और कंपकंपाहट है
मंच पर ऑथेलो है
मगर ऑथेलो के भीतर कौन है?
कौन है जो उसे देख रहा है दर्शक दीर्घा से
और अपने मन की परिक्रमा कर रहा है
क्या वह पहचान रहा है
अपने भीतर उग रहे ईर्ष्यांकुर को?

सबका अपना एकांत है
सबके भीतर बन गए हैं प्रेक्षागृह
सबके भीतर है एक नेपथ्य
एक ग्रीन रूम, जिसमें मद्धिम सा बल्ब जल रहा है
और आईने पर थोड़ी धूल जमी है
सब तैयार हैं
अपने हिस्से के अभिनय के लिए
सबके भीतर है ऑथेलो
अपनी डेसडिमोना के क़त्ल पर विलाप करता हुआ
विलोम से बचता हुआ कालिदास

जो कर रहे हैं नाटक
उन्हें भी नहीं है मालूम
कितनी सदियों से चल रहा है यह शो
तीन घंटों में कितने सारे वर्ष चले आते हैं
जब परदा खिंचता है और बत्तियां जलती हैं
तो एक साथ
कई दुनियाएं झन्न से बुझ जाती हैं


नाटक के बाद
कुर्सियां खाली हैं
छितराई हुई सी
मंच पर अंधेरा है
हेमलेट के एकालाप अब अकेले हैं
उन्हें कोई नहीं कह रहा कोई नहीं सुन रहा
बेआवाज़ वे घूमते हैं ठंडे प्रेक्षागृह में
पहली बार महसूस हो रहा है रात है
और बाहर अंघेरा है
और कोई नहीं चीख रहा है मंच पर
कि मृत्यु की तरह भयंकर होती है कभी-कभी चुप्पी
ढेर सारे शोर-शराबे के बाद
ऐंठती-इठलाती छायाओं और मृदु मग्न तालियों के बाद
नीली स्पॉटलाइट की स्निग्धता बुहार नहीं सकी है जिस दुःख को
उसके बीत जाने के बाद
अंधेरा है
मृत्यु की तरह काला
चुप्पी है
मृत्यु की तरह भारी
न कोई दर्शक
न अभिनेता
न साज़िंदे न वाद्य वृंद
न कोई समय, न कोई दुःख
सिर्फ़ एक निर्वेद में
सांस रोके लेटा है प्रेक्षागृह
एक शव की तरह
क्या पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में?

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