Sunday, September 23, 2012


कुछ झूठी कविताएं

एक
झूठ लिखूंगा अगर लिखूंगा कि कभी झूठ नहीं बोला
सच बोलने के लिए अब भी नहीं लिख रहा
यह समझने के लिए लिख रहा हूं
कि सच-झूठ के बीच किस तरह झूलता रहा हमारा कातर वजूद।
जीवन भर सच बोलने की शिक्षा और शपथ के बीच
कई फंसी हुई गलियां आईं जब झूठ ने ही बच निकलने का रास्ता दिया।
जब सच से आंख मिलाने का साहस नहीं हुआ तब झूठ ने ही उंगली पकड़ी और कहा, आगे चल।
यह झूठ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन नहीं है,
बस यह समझने की कोशिश है कि आखिर क्यों जी यह झूठी ज़िंदगी
क्या रस मिलता रहा इसमें?
या जैसे 24 कैरेट सोना ठोस नहीं हो पाता,
उसमें भी दो कैरेट करनी पड़ती है मिलावट
क्या कुछ वैसा ही है ज़िंदगी का माज़रा?
जो सच के धागों से बुनी होती है
लेकिन झूठ के फंदों में फंसी होती है?
या यह एक झूठा तर्क है
अपने जिए हुए को, अपने किए हुए को सही बताने का
झूठ को सच के सामने लाने का?

दो
सच बोलने के लिए जितना साहस चाहिए
झूठ बोलने के लिए उससे ज्यादा साहस चाहिए
आखिर पकड़े जाने का ख़तरा तो झूठ बोलने वाले को उठाना पड़ता है।
सच बोलने वाले को लगता है, सिर्फ वही सच्चा है
जबकि झूठ बोलने वाला जैसे मान कर चलता है, सब उसकी तरह झुठे हैं
इस लिहाज से देखें तो झूठ सच के मुकाबले ज़्यादा लोकतांत्रिक होता है।
सच इकहरा होता है, झूठ रंगीन
सच में बदलाव की गुंजाइश नहीं होती, झूठ में भरपूर लचीलापन होता है
कहते हैं, झूठ के पांव नहीं होते, लेकिन उसके पंख होते हैं
लेकिन कहते यह भी हैं
दलीलों की ज़रूरत झूठ को पड़ती है
सच को नहीं।

तीन
अक्सर बहुत ज़ोर से सच बोलने का दावा करने वाले
भूल जाते हैं कि सच क्या है
सच की दिक्कत यह है कि वह आसानी से समझ में नहीं आता
ज़िंदगी सच है या मौत?
अंधेरा सच है या रोशनी?
अगर दोनों सच हैं तो फिर दोनों में फ़र्क क्या है?
सच सच है या झूठ?
झूठ भी तो हो सकता है किसी का सच?
और ज़िंदगी के सबसे बड़े सच
सबसे नायाब झूठों की मदद से ही तो खुलते हैं।
पूरा का पूरा रचनात्मक साहित्य अंततः कुशल ढंग से बोला गया झूठ ही तो है
जो न होता तो ज़िंदगी के सच हमारी समझ में कैसे आते?
कायदे से सच को झूठ का आभारी होना चाहिए
झूठ है इसलिए सच का मोल है।

चार
झूठ है सबकुछ
झूठ है ज़िंदगी जिसे ख़त्म हो जाना है एक दिन
झूठ हैं रिश्ते जो ज़रूरत की बुनियाद पर टिके होते हैं
झूठ है प्यार, जो सिर्फ अपने-आप से होता है- दूसरा तो बस अपने को चाहने का माध्यम होता है
झूठ है अधिकार, जो सिर्फ होता है मिल नहीं पाता
झूठ है कविता- अक्सर भरमाती रहती है
झूठ हैं सपने- बस दिखते हैं होते नहीं
झूठ है देखना, क्योंकि वह आंखो का धोखा है
झूठ है सच, क्योंकि उसके कई रूप होते हैं
झूठ हैं ये पंक्तियां- इन्हें पढ़ना और भूल जाना।

Friday, August 31, 2012

पैसे



एक

बहुत पैसे कमाता हूं
ज़रूरत, शौक या दिखावे पर खरचने के लिए
अब सोचना नहीं पड़ता।
मॉल और मल्टीप्लेक्स में धड़ल्ले से जाता हूं
अब पहले की तरह डॉक्टर के पास जाने के पहले नई सैलरी का इंतज़ार नहीं करना पड़ता
या महीने के आखिर में मेहमानों के चले आने पर पैसे का इंतज़ाम नहीं करना पड़ता
इसके बावजजूद न फिक्र घटती है
न तनाव कम होता है
उल्टे वह बढ़ता जाता है
सबसे ज़्यादा बढ़ती है असुरक्षा
उससे कुछ कम, लेकिन फिर भी काफी, बढ़ जाती है अतृप्ति।
सबसे कम बढ़ती है खुशी.
बल्कि उसे खोजना पड़ता है,
उसका इंतज़ाम करना पड़ता है
जिसमें बहुत पैसा लगता है
और ये भ्रम भी बनता है
कि और पैसा होगा तो और खुशी खरीद लाएंगे हम।
धीरे-धीरे यह भ्रम यकीन में तब्दील होता जाता है
फिर ज़रूरत में और अंत में आदत में।
इस बीच पैसा कमाने की दौड़ बड़ी होती जाती है
हांफती हुई उम्र अपने लिए उल्लास की तलाश में निकलती है
और बाज़ार जाकर लौट आती है- किसी कचोट के साथ महसूस करती हुई
कि ज़िंदगी तो छूट गई पीछे।

दो


बहुत पैसे कमाता हूं
लेकिन तब भी कुछ लोगों के आगे कम लगते हैं।
क्योंकि जो ऊपर हैं वे बहुत ऊपर हैं।
जिस रफ़्तार से मैं पैसे कमाता हूं
उस रफ्तार से मुकेश अंबानी जितने पैसे कमाने के लिए
मुझे 72,000 जन्म लेने पड़ेंगे।
या करीब इतने ही लोगों के जीवन से खेलना पड़ेगा।
इतनी उम्र या इतनी ताकत
मानव रहकर तो नहीं आ सकती
उसके लिए शायद राक्षस जैसा कुछ बनना पड़ेगा।
जबकि यह अभी ही लगता है,
पैसे भले कुछ बढ़ गए हों
मनुष्यता कुछ घट गई है
अपनी भी और अपने आसपास भी।
आवाज़ें सुनाई नहीं पड़तीं, दृश्य दिखाई नहीं पड़ते।
लोग बहुत दूर और पराए लगते हैं
उनका कोई सुख-दुख छूता-छीलता नहीं।
अपने सुख-दुख का भी पता कहां चलता है।
जब कभी आईना देखता हूं तो पाता हूं
कोई अजनबी खड़ा है सामने
पूछता हुआ, कहां खो गए तुम?

तीन


निकला नहीं था मैं पैसे कमाने
भटकता हुआ आ गया इस गली में
इस भ्रम में आया कि यहां शब्दों का मोल समझा जाता है
ये बाद में समझ पाया कि यहां तो शब्दों की पूरी दुकान लगी है।
मुझे लोगों ने हाथों-हाथ लिया
क्योंकि शब्दों के साथ खेलने का अभ्यास मेरा खरा निकला।
जिसने जैसा चाहा उससे कहीं ज़्यादा चमकता हुआ लिखा।
जितनी जल्दी चाहा, उससे जल्दी लिखकर दिया।
लेख लिखे, श्रद्धांजलियां लिखीं, कविता लिखी, कहानी लिखी,
साहित्य की बहुत सारी विधाओं में घूमता रहा
किताबें भी छपवा लीं
संकोच में पड़ा रहा, वरना दो-चार पुरस्कार भी झटक लेता।
हिंदी साहित्य और पत्रकारिता में जोड़े ढेर सारे पन्ने
और हर पन्ने की पूरी क़ीमत वसूल की
लेकिन यह करते-कराते, कभी-कभी लगता है
खो बैठा उस लेखक को, जो मेरे भीतर रहता था
दुख सहता था और संजीदगी से कहता था
कभी-कभी जब उससे आंख मिल जाती है
तो अपनी ही कलई खोलती ऐसी बेतुकी कविता सामने आती है।

Saturday, July 7, 2012


19 बरस हो गए

एक छोटा सा सूटकेस था,
एक बड़ा सा झोला
जिसमें बिछाने के लिए चादर थी और
ओढ़ने के लिए कंबल
और
एक छोटा सा बैगजिसमें
अख़बार में लिपटे हुए अलग-अलग पैकेटों में पड़ी थीं
कुछ रोटियां और सब्ज़ी
जो मां ने दी थी बड़े जतन से संभालकर
हिदायत देते हुएकि समय रहते खा लेना
और
अगर बासी हो जाए तो छोड़ देना।
बस यही असबाब लेकर 19 साल पहले
इन्हीं दिनों- ठीक-ठीक बताऊं तो- 8 जुलाई 1993 को
मैं रांची से दिल्ली के लिए चला था।

तब मूरी एक्सप्रेस दोपहर 3.45 को खुला करती थी
और
अगले दिन रात को 10 बज कर 20 मिनट पर पहुंचाती थी
लेकिन अक्सर वह दो-तीन घंटे लेट रहा करती
और इस तरह आधी रात के बाद
मैं रोशनी से चमचमाते इस शहर के स्टेशन उतरा था
जिसका नाम दिल्ली था।
  
उस रात इस अनजान शहर में किसी अजनबी की तरह खड़ा मैं
कुछ संशय से भरा था और कुछ उम्मीद से
और ढेर सारी यादों से
जो जैसे लगातार आवाज़ दे रही थीं लौट लौट आओ
लेकिन निकल पड़ने के बाद लौटना होता कहां है
तो अपना छोटा सा सूटकेस, बड़ा सा झोला
और एक बैग लेकर, जिसके पैकेटों में बंधी
मां की दी हुई रोटियां बासी होने से पहले ख़त्म हो चुकी थीं
मैं बढ़ता गया आगे, बढ़ता गया आगे।
कई बार लगा खो गया हूं, हर बार भरोसा दिलाया खोज लूंगा ख़ुद को
कई बार लगा लोग छूटते जा रहे हैं, हर बार माना कि एक दिन चला जाऊंगा सब तक।
उसके बाद कई सफ़र किये
लेकिन वह सफ़र आखिरी बना रहा जो ऐसी जगह पहुंचा गया था जहां से लौटना नहीं ही हो पाया।
तो सब छूटते रहे, सब चलते रहे
दूर-दूर, अनजाने
जिसने उस आख़िरी सफ़र की रोटियां दी थीं
वह मां दुनिया छोड़कर किसी और सफ़र के लिए चल दी
जो बचे हुए हैं, वे भी इतनी दूर हैं कि धुंधले से दिखते हैं
और उनकी आवाज़ें पहुंचती भी हैं तो पहचान में नहीं आतीं।
मैं ही कहां किसी से पहचाना जाऊंगा।
वह संशय से भरा नौजवान इन 19 वर्षों में
धूसर दाढ़ी वाला अधेड़ है जो फुरसत मिलने पर स्मृतियों की जुगाली करता रहता है
और किसी पश्चाताप की तरह कविता लिखता रहता है चुपचाप।


Saturday, June 30, 2012


दिल्ली में शोकसभा

(अरुण प्रकाश को श्रद्धांजलि सहित)

यह जो अपने आसपास हैं इतने सारे लोग बैठे
यह जो मैं हूं इतने सारे लोगों के बीच बैठा
यह जो सभा है लगभग भरी हुई सी
यह जो इतने सारे वक़्ता
धीरे-धीरे मंच पर जाकर याद कर रहे हैं उस शख्स को
जो धीरे-धीरे मंच से बाहर चला गया
बहुत सारे लोगों ने उसे आख़िरी बरसों में नहीं देखा था
वे उसकी बीमारी और आख़िरी दिनों के उसके जीवट की चर्चा करते रहे
बहुत सारे लोगों ने उसे बहुत पहले देखा था
जब वह युवा था और उम्मीदों और कहानियों ही नहीं, कविताओं से भी भरा हुआ था
वह दूसरों के काम आता था अपनी बीमारियां छुपाता था
वह दोस्त बनाता था दुश्मन बनाता था दोस्ती याद रखता था दुश्मनी भी याद रखता था
जो याद करने आए वे सब उसके दोस्त नहीं थे
कुछ दोस्त से कुछ ज़्यादा रहे होंगे और कुछ दुश्मन से कुछ कम
लेकिन दोस्ती-दुश्मनी छूट गई थी-
इसलिए नहीं कि मौत ने उस शख़्स को दूर कर दिया था,
बल्कि इसलिए कि मौत शायद उसे कुछ ज़्यादा क़रीब ले आई
वरना इस शहर में इतने सारे लोग बिना किसी न्योते के, उसके लिए क्यों जुट आए?
वरना इस शहर में मैं जो बरसों से उससे नहीं मिला, उसकी अनुपस्थिति से मिलने क्यों चला आया?
सभा में कुछ ऊब भी थी कुछ अनमनापन भी था
सभा के ख़त्म हो जाने का इंतज़ार भी था कि सब मिलें एक-दूसरे से, कुछ अलग-अलग टोलियों में चाय पिएं और कुछ अपनी-अपनी सुनते-सुनाते अपने घर चले जाएं
लेकिन इतने भर के लिए आए दिखते लोग इतने भर के लिए नहीं आए थे।
उनके भीतर एक शोक भी था- बहुत सारी चीज़ों से दबा हुआ, दिखाई न पड़ता हुआ,
किसी अतल में छुपा बैठा।
वह कभी-कभी सिहर कर बाहर भी आ जाता था।
कभी-कभी किसी रुंधे हुए गले की प्रतिक्रिया में भिंचा हुआ आंसू बनकर आंख पर अटक जाता था
जिसे रुमालों से लोग चुपचाप पोछ लेते थे
दूसरों से छुपाते हुए।
यह सिर्फ एक शख्स के जाने का शोक नहीं था
यह बहुत कुछ के बीत जाने का वह साक्षात्कार था
जिससे अमूमन हम आंख नहीं मिलाते।
ऐसी ही किसी शोकसभा में याद आता है
जो चला गया कभी वह बेहद युवा था
उसके साथ बहुत सारे युवा दिन चले गए
कि समय नाम की अदृश्य शिला
चुपचाप खिसकती-खिसकती न जाने कहां पहुंच गई है
कब वह हमारे सीनों पर भी रख दी जाएगी
कि जो गया उसके साथ हमारा भी काफी कुछ गया है
कि उसके साथ हम भी कुछ चले गए हैं
कि एक शोक सभा हम सबके लिए नियत है।

Monday, February 20, 2012

सफल लोगों के बारे में एक असफल आदमी की कविता

मेरे आसपास कई सफल लोग हैं

अपनी शोहरत के गुमान में डूबे हुए।
जब भी उन्हें कोई पहचान लेता है
वे खुश हो जाते हैं
और अक्सर ऐसे मौकों पर अतिरिक्त विनयशील भी
जैसे जताते हुए कि उन्हें तो मालूम भी नहीं था कि वे इतने सफल और प्रसिद्ध हैं
और बताते हुए कि उन्हें तो मालूम भी नहीं है कैसे आती है सफलता और कैसे मिलती है प्रसिद्धि।
उनके चेहरों पर होती है थोड़ी सी तृप्त और मासूम मुस्कुराहट
और साथ में हाथ झटकते हुए वे कभी-कभी मान भी बैठते हैं
कि जो भी मिला संयोग से मिला, वरना उन जैसे काबिल लोग और भी हैं
कुछ तो उनसे भी काबिल, जो उनके साथ बैठकर कभी अपनी कलम और कभी अपनी कुंठा घिसते हैं।
इस अर्द्धसत्य में झूठ की मिलावट बस इतनी होती है
कि जिसे वे संयोग बताते हैं, उसे संभव करने के लिए उन्होंने जो कुछ किया
उसे वे छुपा ले जाते हैं।

सच है कि उनको देखकर थोड़ी सी हैरानी होती है,
थोड़ा सा अफ़सोस भी और थोड़ी सी कुंठा भी।
कभी-कभी लगता है, किस्मत उन पर ज़्यादा मेहरबान रही
कि उन्हें वह सब मिलता गया, जिसकी कामना दूसरे करते हैं।
कभी-कभी लगता है, जब मांगने, हासिल करने या छीनने का वक्त आया
तो ज़ुबान तालू से चिपक गई, आंख नीची हो गई, हाथों ने हिलने से इऩकार कर दिया।

हकीकत जो भी हो, एक बात समझ में आई
कि सफलता ऐसे ही नहीं मिलती है,
उसके कुछ छोड़ना भी पड़ता है, कुछ छीनना भी।
पहले अपने-आप को सफलता के लिए सुपात्र बनाना पड़ता है
जिसमें उचित जगह पर रिरियाने की, उचित जगह पर हंसने की, उचित जगह पर तारीफ़ करने की, उचित जगह पर निंदा करने की, उचित जगह पर चीखने की भी समझ और आदत विकसित करनी पड़ती है
जिसमें शुरू में तकलीफ होती है, लेकिन बाद में सब ठीक हो जाता है।
सफलता की गर्द धीरे-धीरे दिल के बोझ से ज़्यादा वज़नदार हो जाती है
और आदमी को हलका-हलका लगने लगता है।
फिर एक बार आप सफल हो गए तो आगे सफलता आपको बनाती है
कुंठित लोग पीछे छूट जाते हैं
अपनी असफलताओं के लिए दूसरों को जिम्मेदार ठहराते
ख़ुद के न बदलने की मायूसी के मारे
और ऐसी कविताएं लिखते हुए, जिनमें नाकामी के लिए तर्क तलाशे जाते हैं।

लेकिन मेरे पास कोई तर्क नहीं है
इस फर्क के सिवा कि लिखने और बोलने से पहले आसपास देखने और तोलने का अभ्यास कभी बन नहीं पाया।