Sunday, October 21, 2007

इस तरह बनना

कुछ समय हमेशा पीछे छूट जाता है
सिर्फ़ तभी नहीं जब पत्ते झरते हैं
तब भी जब पत्ते बनते रहते हैं
एक छोटे से हरे विन्यास पर
उकेरी उनकी एक-एक महीन रेखा
न जाने कितने बिंदुओं को पीछे छोड़कर उभरती है
जब कभी किसी फुरसत में
या अनायास आए किसी अंतराल में
हम अपनी हथेलियों में थामते हैं
एक मुलायम मुस्कुराती पत्ती
जिसमें हमारे मासूम बचपन की
कोमलता और गंघ बसी होती है
तब हमें लगता है
कितना पीछे छूट गया है समय
लेकिन सच्चाई यही है कि
जब हम वह पत्ती थामते हैं
और पीछे की यात्रा नए सिरे से शुरू
करने के उल्लास से भर जाते हैं
तब भी कोई अनजान सी आरी
चुपचाप चलती रहती है हमारे वजूद पर
बहुत ध्यान से सुनने पर ही
समझ में आती है उसकी मद्धिम आवाज
जिसे हम कभी हवा की फुसफुसाहट, कभी पत्ती की सरसराहट और
कभी उड़ती-बैठती धूल का शोर समझ कर
नजरअंदाज करते हैं।
दरअसल कुछ न कुछ समय हमारे भीतर बनता भी जाता है छूटता भी जाता है
चाहें तो हम अपने-आप को बार-बार पहचान सकते हैं नए सिरे से
और समझ सकते हैं
यह समय नहीं है जो बनता और छूटता जा रहा है
यह हम हैं जो लगातार कुछ होने की प्रक्रिया में हैं-
कुछ जीता है हमारे भीतर कुछ मरता है
हमें हर पल कुछ नया करता है।

Wednesday, October 17, 2007

तरक्की

हममें से बहुत सारे हैं
जिनकी पीठ पर चाबुक की तरह पड़ता हैये वक्त
बहुत सारी हताशाएं हैं
बहुत सारे टूटे हुए अरमान
लेकिन टीस इतने भर की नहीं है
हमारा चेहरा उतार लिया है किसी ने
खींच ली है हमारी ज़ुबान
हमारे हंसने और रोने का वक़्त और इसकी वजह
तय करता है वही
हमें हंसना नहीं है
बस उसकी हंसी में मिलानी है अपनी हंसी
लेकिन ये याद रखते हुए कि उससे ज्यादा गूंज और खनक
पैदा न हो इस हंसी में
और रोना तो कतई नहीं है,
बेआवाज़ रोना भी नामंजूर
ख़बरदार जो हवा ने भी देख लिया
और किसी पोली दीवार ने सुन लिया
ये निजताएं गोपनीय हैं
इन्हें अपने वेतन की तरह छुपा और संभाल कर रखिए
आत्मविश्वास बस इतना हो
जिससे चल जाए उसका काम
इतना नहीं कि डोलने लगे
उसका भी अपने-ऊपर भरोसा।
आप एक सामाजिक प्राणी हैं और कुछ तौर-तरीके निर्धारित हैं आपके लिए
ज्यादा से ज्यादा आप कर सकते हैं
अपनी झुकी हुई रीढ़ के साथ
इंतज़ार उस दिन का
जब एक चाबुक आपके हाथ में भी होगा
और आप किसी की पीठ पर उसकी सटाक
सुन कर ख़ुद को तसल्ली देकर कह सकेंगे
कि नहीं गई बेकार इतने दिनों की मेहनत और ज़िल्लत
और फिर अपनी खोई हुई हंसी और खनक
और अपने आत्मविश्वास को अपने हिलते हुए चाबुक के साथ
रखकर तौलेंगे
और इतराते हुए सोचेंगे मन ही मन
कहां से कहां कारवां पहुंच गया ज़िंदगी का
सच है, रंग लाती है मेहनत
और सब पर मेहरबान होती है नियति कभी न कभी।

Thursday, October 11, 2007

नाचते गाते लोग

शादी-ब्याह के दिनों में समूचे उत्तर भारत की सड़कों पर एक दृश्य बेहद आम है। बैंड-बाजे के साथ कोई बारात धीरे-धीरे खिसक रही है और उसके आगे कुछ हिंदी फिल्मों की तेज़ धुनों पर बच्चे से बूढ़े तक- जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं- कूल्हे मटका कर, कमर हिलाकर, हाथ ऊपर-नीचे फेंक कर कुछ ऐसा कर रहे हैं जो उनके मुताबिक नाचना है। इस नाच में लड़के के मां-बाप, भाई-बहन, मित्र-परिजन- सभी शामिल होते हैं और जो शामिल नहीं होता, वह या तो अतिशय शर्मीला माना जाता है या फिर दूर का ऐसा रिश्तेदार, जिसके लिए यह शादी थिरकने का अवसर नहीं है। संभवतः महारानी विक्टोरिया के ज़माने की अजीबोगरीब अंग्रेज़ पोशाक पहन कर बैंड-पार्टी के ग़रीब शहनाई वाले 'बंबई से आया मेरा दोस्त' से लेकर 'ये देश है वीर जवानों का' तक की मोटी-कर्कश धुनें निकाला करते हैं और सिर पर ट्यूबलाइट ढो रही महिलाओं के बीच सूट-बूट पहने लोग नाच-नाच कर अपनी खुशी का इजहार करते रहते हैं।
सड़क का यातायात अस्त-व्यस्त कर देने वाले इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम को चिढ़ते और झुंझलाते हुए देखने का सौभाग्य हम सबको अक्सर मिलता रहता है। दरअसल यह सड़कनाच उत्तर भारत के मध्यवर्गीय समाजों में इन दिनों पसरी संस्कृतिविहीनता का सबसे नायाब नमूना है। यह वह समाज है, जिसमें बच्चों को संगीत और नृत्य की शिक्षा देने का आम तौर पर चलन नहीं है। गाने-बजाने का शौक अच्छी चीज नहीं समझा जाता है, नाचना तो ख़ैर बहुत दूर की चीज है। ऐसे में किसी को नाचना पड़ जाए तो वह हिंदी फिल्मों की नकल न करे तो क्या करे।
दरअसल मोटे तौर पर जो हिंदी भाषी समाज है, उसके लिए संस्कृति और मनोरंजन के मायने कभी सिनेमा हुआ करता था और अब इन दिनों उनमें टीवी आ जुड़ा है। संस्कृति की सारी सीख उसे यही दो माध्यम देते हैं। अचरज नहीं कि शास्त्रीय संगीत और नृत्य उसकी सांस्कृतिक परिभाषा में अजूबी चीज़ें हैं जिनकी ज्यादा से ज्यादा पैरोडी की जा सकती है। शब्दों की दुनिया में साहित्य उसे सुहाता नहीं, कविता उसे मोहती नहीं, आधुनिक चित्रकला तो खैर उसके लिए चुटकुला है। गीत-संगीत की उसकी सांस्कृतिक समझ उन फिल्मी गानों से बनती है जिनमें झोंपड़ी में चारपाई होती है और सोलह साल की लड़की सत्रह साल के लड़के को अपने दिल का हाल बताती है।
ऐसे में शादी-ब्याह के मौके पर उसे जब अपने उल्लास की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम चुनना होता है तो उसके पास उन फूहड़ नृत्यों की भौंडी नकल के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता जिनकी कुछ धुनें उसे याद रहती हैं। बल्कि यह अवसर उसके लिए वर्षों से संचित संकोच को तोड़ने का अवसर होता है। कई लोग जैसे शादी में शराब पीकर अपना अहं तुष्ट करते हैं, वैसे ही नाच कर भी खुद को तसल्ली दे देते हैं कि हां, उनमें अपनी खुशी जाहिर करने की कुव्वत बची हुई है। जो बहुत बूढी महिलाएं और जो वृद्ध पुरुष नाच नहीं पाते, वे किसी नाचने वाले के सिर पर कुछ रुपए घुमाते हुए बैंड वालों को थमाते हैं, जैसे वे भी अपने हिस्से का ज़रूरी सांस्कृतिक कर्त्तव्य पूरा कर रहे हों।
पहले ऐसे नृत्यों पर पुरुषों का एकाधिकार था। मगर इन वर्षों में महिलाओं ने इस एकाधिकार को तोड़ा है। वे भी साहस के साथ सड़क पर नाचती नज़र आती हैं। इनमें से कई ऐसी स्त्रियां होती होंगी जिन्होंने अपने बचपन और कैशोर्य में नृत्य या संगीत सीखने की इच्छा प्रगट की होगी और भाइयों और पिता से डांट सुनकर दिल को फिल्मी गीतों भर से बहला लिया होगा। ध्यान से देखिए तो ये सारे नाचते हुए स्त्री-पुरुष उल्लास मनाते नहीं दिखेंगे, बल्कि उनमें नाचने-गाने की जो इच्छा दबी रह गई उसे किसी तरह पूरा करने की हड़बड़ी दिखेगी।
मगर ध्यान से देखने लायक बात यहां दूसरी है। इस तरह नाचना क्या बताता है? यही कि समाजों के लिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति अपरिहार्य होती है। जो समाज अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां छोड़ देते हैं वे भी किसी शून्य में नहीं रह जाते। जीवन में उल्लास के और उदासी के भी ऐसे अवसर आते हैं जब मनुष्य और समाज उनको किसी माध्यम से व्यक्त करना चाहता है। जब संस्कृति बची नहीं रहती तो उसकी जगह अपसंस्कृति ले लेती है। यानी लोग नाचना-गाना तो चाहते हैं, मगर पाते हैं कि उन्हें यह आता नहीं या सिखाया नहीं गया। ऐसे में वे संस्कृति के नाम पर सिनेमा या टीवी द्वारा पेश किए जा रहे सतही और फूहड़ गीत-संगीत की उससे भी ज्यादा फूहड़ नकल कर सकते हैं और करते हैं।
अक्सर ऐसी बारातों में सड़कें एकाध घंटे जाम रह जाया करती हैं और उन पर न कोई झुंझलाता है और न नाराजगी व्यक्त करता है। भारतीय समाज के भीतर इस अनूठी सांस्कृतिकता ने जो अपनी सार्वभौमिक स्वीकृति बनाई है, यह उसी का प्रमाण है। हर किसी को मालूम है कि एक दिन वह भी किसी की बारात में शामिल होगा और सड़क पर नाचते हुए रास्ता जाम करेगा। आखिर हर किसी को अपने उल्लास को अभिव्यक्त करने का हक मिलना ही चाहिए। उत्तर भारतीय समाज ने इस अभिव्यक्ति के बाकी सारे माध्यम खो दिए हैं तो क्या हुआ। सड़कें बची हुई हैं और उन पर नाचने की छूट है।

Tuesday, October 9, 2007

युद्ध

युद्ध हम सबने देखा
हम सब हुए आहत
हम सबने की निंदा
ताकि ख़ुद को हो तसल्ली
कि अब भी हमारे भीतर
है थोड़ी सी आंच ज़िंदा
बहुत दूर था मेसोपोटामिया
वहां हम कैसे जाते
रक्त में नहाई दजला-फुरात की
रुलाई कैसे सुन पाते
यों भी था शोर बहुत
ढेर सारे संदेशवाहक
जो दिख रहा था
जो आ रहा था
उस पर संदेह करते नाहक
हमने विरोध किए
हमने धरने दिए
घायल बच्चों और रोती मांओं की
चीख सुन रोया किए
और क्या कर सकते थे
ताक़तवर के आगे
बस प्रार्थना की
कि उसकी अंतरात्मा जागे
अगर न जागे
तो भी बनी रहे उसकी दया़
हम हैं कायर ये मानने में
काहे का शर्म कैसी हया
हम पर न आए
जो दूसरों पर आई आफत
किसी तरह बची रहे
हमारे लिए ये तसल्ली ये राहत
किसी कमबख़्त ईश्वर से
की जाने वाली ये दुआ
कि शुक्र है हमारे साथ
ये सब न हुआ

Sunday, October 7, 2007

साल

जनवरी नए उगते फूलों की ख़ुशबू जैसी लगती है
जब हम पहली बार बाग में दाख़िल हो रहे हों
सोचते हुए, अभी तो शुरू हुआ है साल
और इस बार तो सहेज लेंगे वह सब जो इतने सालों से बिखरा पड़ा है

फिर फरवरी आकर कुछ फूल गिरा जाती है पांवों पर
और सरग़ोशियों में याद दिला जाती है
कि कुहरे-कुहरे में कुछ वक़्त फिसल गया है
फिर भी अफ़सोस नहीं है न ताज़गी में कमी है कोई
आख़िर कम नहीं होते ग्यारह महीने
और सहेजना शुरू करने में लगता तो है थोड़ा वक़्त

मार्च थोड़ी तपिश और थोड़ा पसीना छोड़ जाता है
कुछ फ़िक्र भी कि अब तक ज़िंदगी पटरी पर नहीं आई है
फिर भी एक तसल्ली है कि मौसम से ऊष्मा है
और थोड़े से धीरज, थोड़ी समझदारी से तानी जा सकती हैं
वक़्त की प्रत्यंचाएं अपने अनुकूल।

अप्रैल के साथ आता है शुष्क सा यथार्थ
कि फिर वही फिर वही मौसम जिसमें वक़्त की धूप
कोमल इरादों की पत्तियों को झुलसाना शुरू करती है
हम कमरे में हैं मेज़ पर और कलम खुली पड़ी है
काग़ज़ उड़ रहा है और शब्द पकड़ में नहीं आ रहे
थोड़ी सी बोरियत कुछ थकान और चाय पीने की इच्छा
जो हमें खींच लाती है कमरे से बाहर।


और अब हम मई के सामने हैं, बाहर धूल है भीतर क्लांति
बीच में सिर पर पड़ती हुई धूप
हम क्या करें कहां जाएं
ये वो मौसम है जो कमरे से बाहर जाने की इजाज़त नहीं देता
ये ख़ुद को याद दिलाने का वक़्त है
कि साल अपने आधे सफ़र के अंतिम पड़ाव पर है
और उम्मीदों और इरादों के इम्तिहान लगातार होते जाएंगे मुश्किल
लेकिन फिर वही सवाल कहां जाए, क्या करे कोई

जून थोड़ी सी उमस और चिपचिपाहट के साथ आता है
आधे के बचे होने का अहसास बांधे हुए है अब भी
और मेज़ से धूल साफ़ की जा रही है
उजले काग़ज़ रखे जा रहे हैं
किताबें क़रीने से सजाई जा रही हैं
और एक ख़ुशनुमा सा अहसास
देर से ही सही, शुरुआत तो हुई

कि सामने आ खड़ी होती है जुलाई
बारिश में भीगी अपनी गीली चोटी लटकाए
कमरे में बूंदें आ रही हैं और कागज़ कोरा का कोरा है
कलम पड़ी है एक किनारे और मन स्थिर नहीं है
कुछ दोस्तों की मीठी याद, कुछ दुश्मनों से तुर्श ईर्ष्या
जिन्हें मौसम का कोई दखल रोकता नहीं।

अगस्त से शुरू हो जाती है ढलान
और कुछ थकान भी
जिसमें पहली बार शामिल है यह उदास करने वाला खयाल
कि यह साल भी जेब और ज़िंदगी से यों ही न निकल जाए

सितंबर थोड़ा सहारा देता है तसल्ली भी
कि बाक़ी है लिखने की इच्छा
इसके बावजूद कि बहुत सारी अड़चनें हैं उलझनें भी
और उससे ज़्यादा अनमनापन कि कोई चीज़ इन दिनों छूती नहीं
छूती है तो टिकती नहीं

अक्तूबर तुरही बजाता हुआ आता है
याद दिलाता हुआ कि सारे उत्सव मना लो इन्हीं दिनों
यह अपने किए को सहेजने का वक़्त है
लेकिन अनकिए को कोई कैसे सहेजे, यह नहीं बताता।

नवंबर से शुरू हो जाता है विदागीत
हल्की-हल्की सर्दियां और पहाड़ों-आसमानों से उतरता
कोमल धूप में लिपटा चिड़ियों का संगीत
यह हिसाब-किताब करने का वक़्त है
खोया-पाया की बही खोलने का
और देखने का
कि इरादों की कोमल पत्तियां वक़्त की पुस्तक में दबे-दबे सूख गई हैं
हालांकि उनके निशानों में भी है रचना की गुंजाइश


और दिसंबर तो बस आता है नए साल का दरवाज़ा खोलने के लिए
बची-खुची छुट्टियां लेने का वक़्त और खुद से किए वायदों को भूल
नए वायदे करने का।
कि पहली बार महसूस होता है कि अरे, निकल गया यह साल तो
लेकिन साथ में उतरता है यह बोझ भी
कि चलो भले बीता कोरा का कोरा
लेकिन इसके बाद तो आ रहा है नया साल
जिसमें हम बांध सकेंगे नए सिरे से मुट्ठियां
और ख़ुद को दे सकेंगे तसल्ली
कि बाकी हैं अब भी कई बरस हमारे लिए

Friday, October 5, 2007

अच्छी कविता की गुंजाइश

कविगण,
सही है कि यह वक़्त आपका नहीं,
लेकिन इतना बुरा भी नहीं
जिसे आप इस क़दर संदेह और नफ़रत से देखें
इस वक़्त बहुत सारे नामालूम से प्रतिरोध गुत्थम-गुत्था हैं
सदियों से चले आ रहे जाने-पहचाने अन्यायों से
यह वक़्त हैवानियत को कहीं ज़्यादा साफ़ ढंग से पहचानता है
यह अलग बात है कि हाथ मिलाने को मजबूर है उससे
सही है कि देह अब भी सह रही है चाबुक का प्रहार
लेकिन पीठ पर नहीं. चेहरे पर
यह ज़्यादा क्रूर दृश्य है
लेकिन ये भी क्या कम है कि दोनों अब आमने-सामने हैं
एक-दूसरे से मिला रहे हैं आंख
सही है कि वक़्त ने निकाली हैं कई नई युक्तियां
और शासकों ने पहन ली हैं नई पोशाकें
जो बाज़ार सिल रहा है नई-नई
उन्हें लुभावने ढंग से पेश करने के लिए

फिर भी कई कोने हैं
कई सभाएं
कई थकी हुई आवाज़ें
कई थमे हुए भरोसे
कई न ख़त्म होने वाली लड़ाइयां
जिनमें बची हुई है एक अच्छी कविता की गुंजाइश

Wednesday, October 3, 2007

मौत ने दिलाई जिनकी याद

वे स्कूलों और शरारतों के दिन थे
जब कभी हम दोस्त हुए, आने वाले कई सालों तक सड़कों पर भटकने के लिए
और एक दिन
इस तरह जुदा होने के लिए
कि फिर सीधे मौत ने ही याद दिलाया कि हम कभी दोस्त थे
जोड़ने पर निकला, गप्पू बचपन से अब तक का चौथा दोस्त है
जिसे उम्र के इस मध्याह्न में खो चुका हूं
वह अचानक नहीं गया,
मौत उसे धीरे-धीरे अपने साथ ले गई
यह सबको पता था कि नशे में गर्क़ यह ज़िंदगी
बहुत दिन नहीं संभाल पाएगी अपने क़दम
लेकिन कम लोगों ने समझा
कि नशे से ज्यादा यह ज़िंदगी की मजबूरी थी जिसमें गप्पू मौत की तरफ बढ़ता चला गया
गप्पू के जाने से ही याद आई भुवनीश की
मुहल्ले के नुक्कड़ पर अपने बड़े भाई की पान दुकान पर
रोज़ कुछ घंटे बैठ अपनी कत्थई उंगलियां लिए जब वह बाहर आता
और उस ऊबड़-खाबड़ मैदान की तरफ चल पड़ता जहां हम क्रिकेट के विकेट लगाया करते
तब उसके चेहरे पर पान की दुकान की जगह एक आसमान चला आता
उसकी खुशी में एक खिलखिलाहट शामिल होती
वह हमारे बीच का सबसे चंचल और हौसले वाला दोस्त साबित होता
जो रास्ते में पड़ती एक नदी से मछलियां भी पकड़ा करता था
एक दिन पता चला, उसे कई बीमारियों ने घेर लिया है
और भाई के पास उसके इलाज के पैसे नहीं हैं
लेकिन वह बेफ़िक्र था या अनजान
फिर न पान की दुकान पर बैठा न खेल के मैदान में आया
आसमान के कोने में अब भी होगी उसकी एक जगह
जिसमें शायद स्मृति और विस्मृति के बीच धुंधलाते हमारे चेहरे होंगे
कौसीन दोस्त नहीं थी
दोस्त से कुछ कम थी, कुछ ज़्यादा भी
वह दूर भी थी पास भी- उसकी आंखों में अनिश्चय के घबराए बादल दिखा करते
और उन्हीं के बीच तिरती उम्मीदों की नाव
एक बेहद गहरा डर और उससे भी गहरी ज़िद जीने की
जिसे वह इस विकट दुनिया में अपने डरे हुए चौकन्नेपन के साथ बार-बार संभव बनाती रही
और फिर वे दिन भी आए जब वह अपनी मर्ज़ी से अपनी चुनी हुई सड़कों पर चल रही थी
अपने ज़मीन आसमान ओढ़-बिछा रही थी
हालांकि यह कविता में जितना रोमानी लगता है, जिंदगी में उतना ही कठोर था
लेकिन न उसे मालूम था न हमें
कि एक दिन मौत एक सड़क पर उसे घेर लेगी
अरसे बाद एक दोस्त से मिली जानकारी ने
मुझसे छीन लिए मेरी ज़िंदगी के वे लम्हे
जो एक मुश्किल घड़ी में अपनी एक मासूम सी दोस्त के काम आने के ग़रूर के साथ
मेरे भीतर बचे हुए थे।
कई और भी हैं जो ज़िंदगी में सितारों की तरह कौंधे और बुझ गए
सबा याद आती है, चमकती आंखों वाली वह लड़की जिसने
एक छोटे से काम के लिए एक बडा सा थैंक्यू लिखा
जो हर बार अघिकार के साथ दनदनाती चली आती
और मुस्कुराती लौट जाती
हालांकि कामकाज़ी रिश्ता उससे दफ्तर का रहा लेकिन जिस दिन मौत ने ये रिश्ता तोड़ दिया
उस दिन अपने भीतर भी कुछ टूटता मैंने महसूस किया।

याद करने को और भी चेहरे हैं रिश्ते हैं नाम हैं जो अब नहीं रहे
वे भी जो दोस्त से ज्यादा रहे और दिल और जीवन के इतने क़रीब
कि उनके बारे में लिखते हुए कलम बाद में कांपेगी,
सोचते हुए देह पहले सिहरती है, आंख पहले भर आती है।

वे कथाएं मैं लगातार स्थगित करता जाऊंगा इस उम्मीद में
कि एक दिन इतना समर्थ या निष्ठुर हो पाऊंगा कि लिख सकूंगा
अपने ही मिटने-कटने और तिल-तिल मरने, फिर भी बच निकलने की वे भावुक लगने वाली दास्तानें
जिनमें जितना अधूरापन होगा, उतना ही खालीपन भी जिसे ढंकने के लिए मैं अस्तित्व और जीवन से जुड़े
बड़े दार्शनिक और वैचारिक झूठों का सहारा लूंगा।

फिलहाल यह अधूरी कविता इतना भर जानती है
कि कभी भी हममें से कोई भी कहीं से भी जा सकता है
सरकारी अस्पताल में अपनी तकलीफ़ से लड़ते भुवनीश की तरह
घर में तिल-तिल घुलते गप्पू की तरह
एक सड़क हादसे में मारी गई कौसीन की तरह
या फिर समंदर में डूब गई सबा की तरह
कोई भी अपना या पराया
जिस पर बेमुरव्वत मौत डाल देगी एक दिन परदा।

चाहूं तो कह दूं कि फिर भी वह उन्हें ख़त्म नहीं कर पाएगी
आख़िर वे मेरे भीतर ज़िंदा हैं
लेकिन सच तो यह है
कि मेरे भीतर भी वे एक दिन धुंधलाते मरते चले जाएंगे
जैसे मैं एक दिन
बरसों बाद जिसकी धुंधलाती याद किसी को तब आएगी
जब अपने बीच का कोई और जा चुका होगा।

Tuesday, October 2, 2007

रांची से दिल्लीः १४ बरस बाद

८ जुलाई १९९३ को मैं रांची से दिल्ली के लिए चला
लगभग ये कसम खाकर कि ज्यादा नहीं ठहरूंगा
जल्दी ही लौट जाऊंगा अपने शहर
लेकिन तब नहीं मालूम था
बड़ी शिद्दत से खाई गई क़समें भी
पुरानी चिट्ठियों की तरह नए बने घर के किसी कोने में ठूंस दी जाती हैं
जहां न स्मृतियों की कोई हवा पहुंचती है न आत्मीयता की कोई रोशनी
अपने से किया घर लौटने का वादा भूलने में वक्त लगता है
लेकिन कभी वह दिन भी चला आता है,
जहां शहर लौटने का वादा ही नहीं, शहर भी बेमानी जान पड़ता है।

बहुत आसान है इस सबके लिए इस महानगर को ज़िम्मेदार ठहरा देना
कह देना कि उसके ऑक्टोपसी पंजों ने पीछे मु़ड़कर देखने की फुरसत नहीं दी
कि महानगर बडी से बडी कसमों को लील जाता है
लेकिन यह सच कम से कम अपने से नहीं छुपा पाऊंगा
कि इन सबके पीछे कुछ हिस्सा, कुछ हाथ मेरा भी रहा है
कि बेख़बरी में या जान बूझ कर
मोह में या मजबूरी
मैं छोड़ता गया या मुझसे छूटता गया
मेरा वह शहर जो कई साल तक
इस महानगर में बिल्कुल मेरे साथ-साथ चलता रहा
सड़कों पर घिसटता हुआ बसों के धक्के खाता हुआ
किसी तकलीफ़ में तसल्ली देता हुआ
किसी दुख में साझा करता हुआ।
हमेशा उम्मीद बंधाता हुआ
कि एक घर वहां हमेशा बना रहेगा
मेरे इंतज़ार में,
जो मेरी थकान में मेरी टूटन में, मेरी बेदखली में
मुझे आसरा देगा
एक क्यारी हमेशा खाली रहेगी जो मुझे किसी भी दिन नए सिरे से
रोपने को तैयार होगी।

लेकिन क्या इतने साल बाद भी वह आश्वस्ति मेरे साथ मेरे भीतर है?
बीच-बीच में जाता रहता हूं
अपने उस शहर को हर रोज़ कुछ टूटता कुछ बनता देखता रहता हूं
और कोशिश करता हूं इस नए बनते शहर से मेरी जान-पहचान मिटे नहीं।
लेकिन धीरे-धीरे अपने भीतर बनती उस खला को
नज़रअंदाज़ नहीं कर पाता
जो दरअसल मेरे शहर और मेरे बीच की है
और लगातार बड़ी होती जा रही है।
यह उदास करने वाला अहसास
अब पीछा नहीं छोड़ रहा
कि जिस शहर को मैं अपने हथेली के विस्तार की तरह देखता था
जिसकी सड़कें मेरे पांवों में लिपटी रहती थीं
वह धीरे-धीरे अजनबी होता जा रहा है
कि एक दिन मैंने शहर को छोडा था
अब उस शहर ने मुझे छोड़ दिया है।

लेकिन जब सब कुछ छूटता जा रहा है, टूटता जा रहा है
तब वह इतना बेसाख़्ता याद क्यों आ रहा है?
क्यों ऐसा अक्सर होता है
कि किसी उनींदी रात की सरहद पर जो सपना
नई दिल्ली के ग्रेटर कैलाश की किसी ऊंची इमारत से शुरू होता है
वह पलक झपकते रांची के किशोरगंज मुहल्ले की एक बेहद पुरानी गली में उतर जाता है
कि अंगूर की लतरों वाला एक पुराना आंगन अपने आम-अमरूद के पेडों के
साथ अब भी पुराने झूले, पुराने खेल, पुराने गाने और पुरानी गेंद
लेकर मेरे भीतर चला आता है
और मुझे याद दिलाने लगता है
कि कहीं तुम वही तो नहीं?

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए नहीं
बस यह बताने के लिए लिखी है यह कविता
कि जब हम बहुत दूर चले जाते हैं तब भी
एक आंगन हमारे भीतर बचा रहता है
कहीं ऐसा न हो कि एक दिन ऐसा भी आए
जब वह आंगन भी चला जाए
यह उस दिन होगा
जब हमारी नींद में हमारी आंखों में हमारी रातों में
कोई सपना नहीं बचा रहेगा।