Sunday, October 21, 2007

इस तरह बनना

कुछ समय हमेशा पीछे छूट जाता है
सिर्फ़ तभी नहीं जब पत्ते झरते हैं
तब भी जब पत्ते बनते रहते हैं
एक छोटे से हरे विन्यास पर
उकेरी उनकी एक-एक महीन रेखा
न जाने कितने बिंदुओं को पीछे छोड़कर उभरती है
जब कभी किसी फुरसत में
या अनायास आए किसी अंतराल में
हम अपनी हथेलियों में थामते हैं
एक मुलायम मुस्कुराती पत्ती
जिसमें हमारे मासूम बचपन की
कोमलता और गंघ बसी होती है
तब हमें लगता है
कितना पीछे छूट गया है समय
लेकिन सच्चाई यही है कि
जब हम वह पत्ती थामते हैं
और पीछे की यात्रा नए सिरे से शुरू
करने के उल्लास से भर जाते हैं
तब भी कोई अनजान सी आरी
चुपचाप चलती रहती है हमारे वजूद पर
बहुत ध्यान से सुनने पर ही
समझ में आती है उसकी मद्धिम आवाज
जिसे हम कभी हवा की फुसफुसाहट, कभी पत्ती की सरसराहट और
कभी उड़ती-बैठती धूल का शोर समझ कर
नजरअंदाज करते हैं।
दरअसल कुछ न कुछ समय हमारे भीतर बनता भी जाता है छूटता भी जाता है
चाहें तो हम अपने-आप को बार-बार पहचान सकते हैं नए सिरे से
और समझ सकते हैं
यह समय नहीं है जो बनता और छूटता जा रहा है
यह हम हैं जो लगातार कुछ होने की प्रक्रिया में हैं-
कुछ जीता है हमारे भीतर कुछ मरता है
हमें हर पल कुछ नया करता है।

1 comment:

सुबोध said...

जिंदगी के आसपास.. उसके समय के इर्द गिर्द...छूकर गुजर जाने वाली सच्चाई