Sunday, September 30, 2007

रंगमंचः दो संदर्भ

पूर्वरंग

कुर्सियां लग चुकी हैं
प्रकाश व्यवस्था संपूर्ण है
माइक हो चुके हैं टेस्ट
अब एक-एक फुसफुसाहट पहुंचती है प्रेक्षागृह के कोने-कोने में

तैयार है कालिदास
बस वस्त्र बदलने बाकी हैं
मल्लिका निहारती है अपने बादल केश
तनिक अंधेरे ग्रीन रूम के मैले दर्पण में
बेचैन है विलोम
अपने हिस्से के संवाद मन ही मन
दुहराता हुआ
और सिहरता हुआ अपने ही प्रभाव से
खाली प्रेक्षागृह को आकर देख जाती है अंबिका
अभी अंधेरा है मंच
कुछ देर बाद वह यहीं सूप फटकारेगी
और आएगी भीगी हुई मल्लिका
लेकिन थोड़ी देर बाद

अभी तो मंच पर अंधेरा है
और सुनसान है प्रेक्षागृह
धीरे-धीरे आएंगे दर्शक
कुर्सियां खड़खड़ाती हुई भरेंगी
बातचीत के कुछ टुकड़े उभरेंगे
और सहसा मंद पड़ जाएंगे
कोई पुरुष किसी का हाल पूछेगा
कोई स्त्री खिलखिलाएगी
और सहसा चुप हो जाएगी
अपनी ही प्रगल्भता पर खुद झेंपकर

नाटक से पहले भी होते हैं नाटक
जैसे कालिदास बार-बार लौट कर जाता है
मंच पर घूमता है ऑथेलो
पुट आउट द लाइट
पुट आउट द लाइट
मैकबेथ अपनी हताशा में चीखता है
बुझ जाओ नश्वर मोमबत्तियों

प्रेक्षागृह की तनी हुई दुनिया में
सदियां आती-जाती हैं
दीर्घा की चौथी कतार की पांचवीं कुर्सी पर
बैठी स्त्री छींकती है
और सहसा एक कड़ी टूट जाती है

सबके ऊपर से बह रहा है समय
सब पर छाया है संवादों का उजास
सबके हाथ सबके हाथों को छूते हैं
नमी है और कंपकंपाहट है
मंच पर ऑथेलो है
मगर ऑथेलो के भीतर कौन है?
कौन है जो उसे देख रहा है दर्शक दीर्घा से
और अपने मन की परिक्रमा कर रहा है
क्या वह पहचान रहा है
अपने भीतर उग रहे ईर्ष्यांकुर को?

सबका अपना एकांत है
सबके भीतर बन गए हैं प्रेक्षागृह
सबके भीतर है एक नेपथ्य
एक ग्रीन रूम, जिसमें मद्धिम सा बल्ब जल रहा है
और आईने पर थोड़ी धूल जमी है
सब तैयार हैं
अपने हिस्से के अभिनय के लिए
सबके भीतर है ऑथेलो
अपनी डेसडिमोना के क़त्ल पर विलाप करता हुआ
विलोम से बचता हुआ कालिदास

जो कर रहे हैं नाटक
उन्हें भी नहीं है मालूम
कितनी सदियों से चल रहा है यह शो
तीन घंटों में कितने सारे वर्ष चले आते हैं
जब परदा खिंचता है और बत्तियां जलती हैं
तो एक साथ
कई दुनियाएं झन्न से बुझ जाती हैं


नाटक के बाद
कुर्सियां खाली हैं
छितराई हुई सी
मंच पर अंधेरा है
हेमलेट के एकालाप अब अकेले हैं
उन्हें कोई नहीं कह रहा कोई नहीं सुन रहा
बेआवाज़ वे घूमते हैं ठंडे प्रेक्षागृह में
पहली बार महसूस हो रहा है रात है
और बाहर अंघेरा है
और कोई नहीं चीख रहा है मंच पर
कि मृत्यु की तरह भयंकर होती है कभी-कभी चुप्पी
ढेर सारे शोर-शराबे के बाद
ऐंठती-इठलाती छायाओं और मृदु मग्न तालियों के बाद
नीली स्पॉटलाइट की स्निग्धता बुहार नहीं सकी है जिस दुःख को
उसके बीत जाने के बाद
अंधेरा है
मृत्यु की तरह काला
चुप्पी है
मृत्यु की तरह भारी
न कोई दर्शक
न अभिनेता
न साज़िंदे न वाद्य वृंद
न कोई समय, न कोई दुःख
सिर्फ़ एक निर्वेद में
सांस रोके लेटा है प्रेक्षागृह
एक शव की तरह
क्या पुनर्जन्म की प्रतीक्षा में?

समय

समय बहुत दूर चला जाता है
इतनी दूर कि बस एक छाया की तरह नज़र आता है
हवाएं ख़ामोश निकल जाती हैं
दिशाएं चुपचाप बदल लेती हैं पाला
उम्र नाम का एक अदृश्य प्रेत
हमारे जिस्म में बैठा
कहीं बदलता रहता है पुर्ज़े
उसे ठीक-ठीक पता होता है
जोड़ों में कब से शुरू होता है दर्द
हड्डियां कब चटखने लगती हैं
कब शरीर देने लगता है जवाब-

यह शुरुआत है
जो सिर्फ़ याद दिलाती है
वसंत बीत गया अब मौसमों के साथ ज़्यादा एहतियात से पेश आने की ज़रूरत है
कि बेक़ाबू हौसलों के पंख लगाकर उड़ने की जगह
सयाने फ़ैसलों की सड़क पर चलने का वक़्त है
शायद यही बालिग़ होना है
इसमें कुछ थकान होती है, कुछ एकरसता की ऊब
कि बनी-बनाई पटरियों पर ठिठक कर रह गई है ज़िंदगी
थोड़ी सी उदासी भी
कि कितना कुछ किए जाने को था, जो अनकिया रह गया

लेकिन इन सबके बावजूद
न भरोसा ख़त्म होता है न ख़्वाब
न ये इरादा कि अभी बहुत कुछ करने लायक बाक़ी है

यह छलना हो, जलना हो या चलना हो
ज़िंदगी लेकिन इसी से बनती है।

Thursday, September 27, 2007

मुर्ग़े

मुर्ग़े पक्षियों की तरह नहीं लगते
न ठीक से उड़ सकते हैं न गा सकते हैं
और तो और चिड़ियों में दिखने वाला सौंदर्य बोध भी उनमें नज़र नहीं आता
फूलों और बागीचों में सैर करने की जगह
घूरे में भटकते, चोंच मारते मिलते हैं
और लड़ते हुए इंसानों की तरह।

क्या है वह जो उन्हें हमारी निगाह में चिड़िया नहीं होने देता?
क्या इसलिए कि वे असुंदर हैं?
क्या इसलिए कि उनकी आवाज़ कर्कश है
भले ही वे सभ्यता के सूर्योदय के पहले से ही
हमारी सुबहों को पुकारने का काम करते रहे हैं?

देखें तो वे बेहद उपयोगी हैं- सदियों से हमारे उपभोग की सबसे लज़ीज़ वस्तुओं में एक
आज भी मुर्ग़े के ज़िक्र से किसी चिडिया का खयाल नहीं आता
प्लेट पर परोसे एक खुशबू भरे व्यंजन की महक फैलती है

जबकि यह सब बडी आसान क्रूरता से होता है
बड़ी सहजता से हम उन्हें हलाल होता देखते हैं
पहले उनकी जान ली जाती है, फिर उनके पंख नोचे जाते हैं
फिर उनकी खाल उतारी जाती है
और फिर उन्हें तौला और तराशा जाता है
और यह सब देखते हुए हमारी पलक नहीं झपकती
बाद में खाते हुए भी एक पल को याद नहीं आती
वह तड़फती हुई आख़िरी कोशिश
जो कोई मुर्ग़ा किसी कसाई के हाथ से छूटने के लिए कर रहा होता है।

हालांकि चाहे तो तर्क दे सकते हैं
कि मुर्गे उन ढेर सारे पंछियों से कहीं ज़्यादा ख़ुशक़िस्मत हैं
जिनकी प्रजातियां या तो मिट गईं या मिटने के कगार पर हैं
भले ही वे रोज़ करोडों की तादाद में हलाल किए जाते हों
और बीच-बीच में किसी बीमारी के डर से ज़िंदा जला दिए जाते हों
आख़िर इंसान ही उन्हें पालता है
न उनकी तादाद में कमी है न उनके कारोबार में
वे बचे हुए तो इसलिए कि हम उन्हें खाते हैं

यहां ये मरते या बचते हुए मुर्गे फिर एक दिलचस्प सवाल उठाते हैं,
क्या सिर्फ वही बचे रहेंगे जिन्हें इंसान खाता है या खा सकता है
क्या ये पूरी धरती सिर्फ इंसान के भोग का भूगोल है?
बाक़ी जो हैं बेकार हैं, मार दिए जाने योग्य हैं, या भुला दिए जाने लायक?
आखिरी सच यह है कि एक मरते हुए मुर्ग़े के लिए इन सवालों का कोई मतलब नहीं
हम एक प्रतीक की तरह उसमें चाहे गू़ढ़ार्थ ढूढ़ लें
यह हकीक़त बदलती नहीं
कि मुर्ग़ा बस मुर्ग़ा है, और इंसान को उसके उपयोग की अनंत विधियां मालूम हैं
दरअसल यह भी एक विडंबना है कि एक मुर्ग़े को लेकर अनायास पैदा हुई यह करुणा
एक कविता की अपनी मांग भर है
जो बस लहर की तरह आई है और गुज़र जाएगी
और कवि जब लिखने की मेज़ छोड़ खाने की मेज़ पर जाएगा
तो अपने लिए एक लज़ीज़ मुर्गा ही मंगाएगा
और
एक अच्छी कविता लिखने की खुशी के साथ मिला कर खाएगा।

Tuesday, September 25, 2007

अहंकारी धनुर्धर

सिर्फ़ चिड़िया की आंख देखते हैं अहंकारी धनुर्धर
आंख के भीतर बसी हुई दुनिया नहीं देखते
नहीं देखते विशाल भरा-पूरा पेड़
नहीं देखते अपने ही वजन से झुकी हुई डाली
नहीं देखते पत्ते जिनके बीच छुपा होता है चिड़िया का घोंसला
नहीं देखते कि वह कितनी मेहनत से बीन-चुन कर लाए गए तिनकों से बना है
नहीं देखते उसके छोटे-छोटे अंडे
जिनके भीतर चहचहाहटों की कई स्निग्ध मासूम संभावनाएं
मातृत्व के ऊष्ण परों के नीचे
सिंक रही होती हैं
वे देखते हैं सिर्फ़ चिड़िया
जो उनकी निगाह में महज एक निशाना होती है
अपनी खिंची हुई प्रत्यंचा और अपने तने हुए तीर
और चिड़िया के बीच
महज उनकी अंधी महत्त्वाकांक्षा होती है
जो नहीं देखती पेड़, डाली, घोंसला, अंडे
जो नहीं देखती चिड़िया की सिहरती हुई देह
जो नहीं देखती उसकी आंख के भीतर नई उड़ानों की अंकुरित होती संभावनाएं
वह नहीं देखती यह सब
क्योंकि उसे पता है कि देखेगी
तो चूक जाएगा वह निशाना
जो उनके वर्षों से अर्जित अभ्यास और कौशल के चरम की तरह आएगा
जो उन्हें इस लायक बनाएगा
कि जीत सकें जीवन का महाभारत
दरअसल यह देखने की योग्यता नहीं है
न देखने का कौशल है
जिसकी शिक्षा देते हैं
अंधे धृतराष्ट्रों की नौकरी बजा रहे बूढ़े द्रोण
ताकि अठारह अक्षौहिणी सेनाएं अठारह दिनों तक
लड़ सकें कुरुक्षेत्र में
और एक महाकाव्य रचा जा सके
जिसमें भले कोई न जीत सके
लेकिन चिड़िया को मरना हो

Saturday, September 22, 2007

स्टिंग का दंश और कानून का डंडा

टीवी चैनलों में सामग्री को नियंत्रित करने के पुराने सरकारी मंसूबे को बीते दिनों एक टीवी चैनल द्वारा किए गए फर्ज़ी स्टिंग ऑपरेशन ने जैसे नया तर्क दे डाला है। इसे चैनलों की गैरज़िम्मेदारी के एक बड़े सबूत की तरह पेश करती हुई केंद्र सरकार अब फिर से चैनलों को रास्ते पर लाने के लिए किसी कानून की जरूरत पर जोर दे रही है। सरकार का मूल तर्क यही है कि चैनलों को अभिव्यक्ति के अबाध अघिकार हासिल हैं और इसका वे दुरुपयोग कर रहे हैं। पहले इस दुरुपयोग की मिसाल के तौर पर उनके पास टीवी चैनलों द्वारा परोसे जा रहे भूत-प्रेत से लेकर रहस्य रोमांच के वे किस्से थे जो संजीदा खबरों के लिए जगह नहीं छोड़ते और अब बाकायदा एक ऐसी नकली स्टिंग है जो साबित करती है कि टीवी चैनल दर्शकों को लुभाने के लिए आपराधिक हदों तक जा सकते हैं। सरकार का दूसरा तर्क यह है कि टीवी चैनल अपना कारोबार तो बढ़ा रहे हैं, लेकिन अपनी विषयवस्तु को लेकर कोई मानदंड तय नहीं कर रहे। किसी भी चैनल के पास ऐसी आचार संहिता या सामग्री संहिता नहीं है जो बताए कि चैनल अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभाने को लेकर गंभीर हैं। इसलिए अब यह सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह इन चैनलों के एक आचार संहिता तय करे जो कानूनी तौर पर बाध्यकारी हो।
जो लोग टीवी चैनलों पर रोज चलने वाला तमाशा देखते हैं, शायद उन्हें ये तर्क ठीक भी लगे। सरकार की इस शिकायत में दम है कि टीवी चैनलों ने व्यावसायिक सफलता के लिए बौद्धिक सजगता को दांव पर लगा दिया है। टीआरपी की दौड़ में बेतुके उपक्रमों में लीन कई चैनल अगंभीर ही नहीं, बचकाने और हास्यास्पद तक जान पड़ते हैं।
लेकिन क्या इसके बावजूद सरकार द्वारा प्रस्तावित किसी कानून की ज़रूरत है? और क्या वाकई टीवी चैनल टीआरपी की दौड़ में इस कदर खो गए हैं कि उन्हें सही और गलत का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं है? इस सवाल की पड़ताल के लिए पहले उस मुद्दे पर ध्यान दें जहां से ये बहस नए सिरे से खडी होती दिख रही है- यानी एक चैनल का झूठा स्टिंग ऑपरेशन। इस ऑपरेशन के बाद पुलिस ने उन दो पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया है जो इनमें लिप्त रहे। ऑपरेशन की शिकार शिक्षिका को ज़मानत मिल गई है। इस बीच लगभग सारे टीवी चैनलों ने इस ऑपरेशन को गलत बताया है। सब मान रहे हैं कि इस घटना के बाद टीवी चैनलों का माथा शर्म से झुक गया है। अपवाद के लिए भी किसी ने स्टिंग करने वाले पत्रकार को किसी तरह की रियायत देने की वकालत नहीं की है। इस पूरी घटना से दो चीजें सामने आती हैं। एक तो यह कि टीवी चैनलों में अब भी अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास बाकी है। उनके पास कोई लिखित सामग्री संहिता हो या न हो, लेकिन .यह समझ और संवेदना है कि ख़बर बेचने के नाम पर किसी पत्रकार को दूसरों की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ करने या झूठे किस्से गढ़ने का हक नहीं है। दूसरी बात यह कि अगर कोई चैनल या पत्रकार इसके बावजूद इस लक्ष्मण रेखा को फलांगने की कोशिश करे तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई का रास्ता खुला हुआ है। पुलिस उसे गिरफ़्तार कर सकती है और अदालत में पेश कर सकती है। यानी कम से कम इस नकली स्टिंग ऑपरेशन से सरकार द्वारा प्रस्तावित किसी कानून का कोई तार्किक आधार नहीं बनता। उल्टे यह पता चलता है कि ऐसे गलत कदम पर मी़डिया का रुख बिल्कुल साफ है और कानून का रास्ता भी।
इसमें संदेह नहीं कि समाचार चैनलों के मौजूदा रवैये को लेकर कानून बनाने की जरूरत पर चल रही बहस इतने भर तर्क से ख़त्म नहीं हो जाती। सूचना और प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी की साफ राय है कि जिन चैनलों को खबर दिखाने का लाइसेंस मिला हुआ है, वे कुछ और दिखा रहे हैं। वे जरूरी और गंभीर ख़बरों की जगह जुर्म, सनसनी, हंसी और अपराध बेच रहे हैं। लेकिन क्या इस बात से भी सरकार को कानून बनाने का तर्क मिल जाता है? सीधी बात यह है कि अगर सरकार को लगता है कि जिस चैनल को उसने खबर दिखाने का लाइसेंस दिया है, वह कुछ और दिखा रहा है तो सरकार यह लाइसेंस रद्द भी कर सकती है। किसी चैनल के लिए इससे सख्त कदम कुछ और नहीं हो सकता कि उसे प्रसारण की इजाज़त ही न मिले। यानी बिना कोई कानून बनाए भी सरकार के पास यह कानूनी विकल्प है जिसके सहारे वह चैनलों पर मनचाहा लगाम लगा सकती है।
पूछा जा सकता है कि अगर समाचार चैनलों में अपनी जिम्मेदारी का भाव इतना गहरा है तो वे किसी कानून से डर क्यों रहे हैं? आखिर कानून तभी काम करेगा जब वे कुछ गलत करेंगे। लेकिन यह भोला तथ्य हाल के कई उदाहरणों की उपेक्षा कर देता है। यह साफ दिखाई पड़ता है कि सरकारें अपने लोगों को बचाने के लिए मीडिया को निशाना बना सकती हैं। मिसाल के लिए वह पहला और ऐतिहासिक स्टिंग ऑपरेशन लें, जिसने भारतीय पत्रकारिता को एक बिल्कुल नए हथियार से परिचित कराया। जब तहलका डॉट कॉम के दो पत्रकारों ने एक नकली हथियार कंपनी बनाकर भारतीय रक्षा प्रतिष्ठान में होने वाले सौदों की कलई खोली और भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को एक लाख रुपए लेते और डॉलर मांगते दिखाया तो सरकार ने पहले इस खुलासे के नतीजों पर जांच बिठाने की जगह पत्रकारों की नीयत जांचनी शुरू कर दी। आने वाले दौर में तहलका को अपने साहस की कितनी सज़ा भुगतनी पडी, यह किसी से छुपा नहीं है। दासमुंशी कह सकते हैं कि यह उनकी सरकार का मामला नहीं था, उन दिनों केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी। लेकिन कोई चैनल यह तर्क नहीं रख सकता कि एक नकली स्टिंग ऑपरेशन बस एक चैनल के एक पत्रकार का काम है, उससे बाकी चैनलों का सरोकार नहीं है। जाहिर है, मीडिया में अपनी सामूहिक ज़िम्मेदारी का अहसास कम से कम राजनीति से कहीं ज्यादा है। वैसे बाद के दौर में हुए कई और स्टिंग ऑपरेशनों का नतीजा भी कुछ ऐसा ही है- जिनके खिलाफ पत्रकारों ने बेईमानी के सबूत दिए, वे आज़ाद घूम रहे हैं और पत्रकारों को अपने लिए जमानत से लेकर माफी तक के इंतज़ाम करने पड़ रहे हैं।
दरअसल इस सिलसिले में केंद्र सरकार और उसके नुमाइंदे लगातार यह भ्रम पैदा करने की कोशिश में हैं कि भारत में पत्रकार ढेर सारे विशेषाधिकारों का लाभ ले रहे हैं। हाल ही में एक टीवी चैनल पर कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनुसिंघवी ने सरकार द्वारा प्रस्तावित विधेयक पर बहस के दौरान कहा कि पत्रकारों को संविधान के अनुच्छेद १९ के तहत ढेर सारे अधिकार हासिल हैं। दरअसल अनुच्छेद १९ मौलिक अघिकारों का हिस्सा है जिसमें उल्लिखित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ इस देश के पत्रकारों का ही नहीं, तमाम नागरिकों का अघिकार है। इस मौलिक अधिकार को कांग्रेस प्रवक्ता ने पत्रकारों के विशेषाधिकार की तरह प्रस्तुत किया और यह बात छुपा ली कि दरअसल इस देश का कानून पत्रकारों को अलग से कोई अधिकार या रियायत नहीं देता। उल्टे केंद्र और राज्य सरकारें गाहे-बगाहे ढेर सारे ऐसे कानून बनाती हैं जो पत्रकारों के अधिकार सीमित करते हैं। कुछ दिन पहले तक लागू टाडा और पोटा के तहत ऐसे प्रावधान थे जिनमें किसी आतंकवादी के संपर्क में आने तक के लिए किसी पत्रकार को गिरफ़्तार किया जा सकता था। अब भी छत्तीसगढ़ और दूसरे राज्यों में नक्सलवाद से लड़ने के नाम पर ऐसे कानून बने हुए हैं जो पत्रकारों के खिलाफ इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इन सबसे अलग वह सरकारी गोपनीयता कानून अब तक कायम है जिसे न जाने कब खत्म हो जाना चाहिए था।
जाहिर है, पत्रकारिता को भारतीय कानून न अलग से कोई संरक्षण देते हैं न सुविधा। अगर कुछ पत्रकारों को ऐसी सुविधा मिलती या संरक्षण हासिल होता दिखाई पड़ता है तो इसका वास्ता कानून की कमी से नहीं, बडे और ताकतवर लोगों के उस गठजोड़ से है जिसमें गाहे-बगाहे पत्रकार भी शामिल हो जाते हैं। इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए कानून की नहीं, मानसिकता की जरूरत है। वैसे यहां यह उल्लेख आवश्यक है कि अब भी तमाम प्रलोभनों के बीच पत्रकारिता की बड़ी बिरादरी खुद को ऐसे गठजोड़ों से दूर रखती है।
बहरहाल, जहां तक स्टिंग ऑपरेशनों का सवाल है, उन पर पूरी तरह रोक का कोई कानून न जरूरी है न उचित। झूठी स्टिंग के खिलाफ सरकार के पास कानून हैं और अगर वाकई किसी बड़े घोटाले को उजागर करने के लिए कोई पत्रकार स्टिंग ऑपरेशन करता है तो अपनी शर्तों पर करता है और
उसके जोखिम भी उठाता है। अगर इस स्टिंग ऑपरेशन के दौरान वह किसी कानून का उल्लंघन करता है तो उस पर कार्रवाई होनी चाहिए। जब तहलका वालों ने स्टिंग ऑपरेशन किया तो उसकी जितनी भी तारीफ हुई हो, लेकिन इस बात पर सबने एतराज़ किया कि तहलका ने अफसरों की पोल खोलने के लिए कॉलगर्ल तक की पेशकश की। जाहिर है, यहां भी एक `सेल्फ रेगुलेशन’ की भावना काम करती दिखाई पड़ती है। स्टिंग ऑपरेशन अगर कानून के दायरे में रहकर हो तो इस पर एतराज नहीं किया जा सकता। आखिर स्टिंग ऑपरेशन खबरें सामने लाने का एक औजार भी है और यह औजार हाल के तकनीकसमृद्ध दिनों में कितना असरदार रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है।
जहां तक आचार संहिता या सामग्री संहिता का सवाल है, इसमें दो राय नहीं कि चैनलों को तत्काल यह काम करना चाहिए। यह उनके पेशागत ही नहीं, व्यावसायिक सरोकारों के लिए भी ज़रूरी है। क्योंकि अगर वे खबर की जगह तमाशा देते रहेंगे तो उनके चुकने में वक्त नहीं लगेगा। पिछले कुछ सालों में हम कई फार्मूलों को पिटता देख चुके हैं। एक समय अपराध कथाओं को जितने दर्शक मिलते थे, अब नहीं मिल रहे। इसी तरह अंधविश्वासों का खेल ज्यादा नहीं टिक सकता। हंसी के कलाकारों का स्टॉक भी खत्म होता नजर आ रहा है। अब बेतुके और अजीबोगरीब कारनामों का दौर है, जो भरोसा करना चाहिए, ज्यादा नहीं चलेगा। जहां तक सेक्स का सवाल है, वह समाचार चैनलों से कहीं ज्यादा बहुतायत में दूसरे चैनलों और बड़ी आसानी से सुलभ हिंदी फिल्मों में मिल सकता है। यानी खबरों के चैनल बचेंगे तो खबर बेच कर ही। यह बात उन्हें समझनी चाहिए और अपनी खबरें तय करने का एक मानदंड बनाना चाहिए। कुछ चैनलों ने इस दिशा में पहल भी कर दी है।
इस समूची बहस में अब भी सबसे एतराज लायक मुद्दा सरकार द्वारा प्रस्तावित कानून है। क्योंकि अभी जितने कानून हैं उन पर ठीक से अमल हो तो सरकार अश्लीलता भी रोक सकती है, मनगढ़ंत आरोप भी और दूसरे गैरकानूनी खेल भी। लेकिन लगता नहीं कि सरकार की इसमें दिलचस्पी है। उसे डंडा इसलिए चाहिए कि वह अपनी जरूरत के हिसाब से किसी की पीठ सेंक सके, अपने खिलाफ खड़े हो रहे किसी चैनल की खबर ले सके। कम से कम पुराने अनुभव इसी की तस्दीक करते हैं।