Sunday, December 14, 2008

जब मां आई

जाने के १४ साल बाद मां आई
मैंने पूछा, अब तबीयत तो ठीक रहती है
वह मेरे साथ रसोई में काम करती रही
शाम को टहलने भी निकली

मैं छुपा रहा था वे रचनाएं वे लेख
जिनमें उसकी बीमारी और मौत का ज़िक्र था
मैंने पूछा, तुम्हें पता है, मेरी किताब छपी. मेरा एक बेटा है
उसे पता था
हम बहुत देर तक साथ रहे,
उसने बताया, उसे रात साढे नौ उसे नींद आने लगती है
न जाने किस शहर का जिक्र वह करती रही
मुझे लगता रहा वह सिर्फ मेरे बारे में सोच रही है
अपनी परेशानी, अपनी बीमारी और अपनी मौत से

यह आठ दिसंबर की सुबह का सपना था
जब आंख खुली
तो लगा, ऐसी उजली, ऐसी मुलायम ऐसी शांत सुबह
तो जीवन में कभी आई ही नहीं।

Saturday, December 6, 2008

मुंबई के बाद

मुंबई पर हुए हमले के बाद क्या है मेरी प्रतिक्रिया?
किसी और ने नहीं, ये सवाल ख़ुद अपने-आप से मैंने किया।
और अपने को टटोलने की कोशिश की,
वहां कुछ हमदर्दी थी, कुछ अफसोस, कुछ डर और कुछ गुस्सा
इन सबसे ज़्यादा थी लेकिन हैरानी
कि आखिर किस पेशेवर ठंडेपन से मार डाले गए इतने सारे लोग।
चाहता तो आत्मदया में डूब सकता था,
कल्पना करते हुए कि मेरे शहर, मेरी सड़क, मेरी दुकान, मेरे घर तक
पहुंच आया ये आतंकवाद
किसी दिन मुझे ही रक्तरंजित न कर डाले।
उससे भी आसानी से ईमानदार होने का ढोंग करते हुए
बता सकता था, मेरे भीतर कुछ नहीं टूटा
मेरा जीवन पहले की तरह चलता रहा है।
वैसे कुछ सच इन दोनों बातों में भी है
अपने बचे होने की तसल्ली और एक दिन अपने मारे जाने की दहशत
शायद कहीं मेरे भीतर भी हो
और उससे भी ज़्यादा राहत
कि अभी मैं बचा हुआ हूं
हंसता-खिलखिलाता,
आतंकवाद पर अफसोस करता
अपनी व्यवस्था की नाकामी पर झुंझलाता
अपने नेताओं को गाली देता
अपने सुरक्षा बलों पर नाज़ करता।

लेकिन क्या करूं मुंबई का,
जो मेरे भीतर ग़म और गुस्सा तो जगाती है
वह छलछलाती हुई रुलाई पैदा नहीं करती
जिसमें सब कुछ बह जाए।
कभी कोई चोट खाई, सिहराती हुई कहानी आ जाती है
तो कुछ पल के लिए रोंगटे ज़रूर खड़े हो जाते हैं
लेकिन वह स्थायी दुख नहीं जागता जो मेरा सोना-जीना खाना-पीना हराम कर दे।

तो क्या मेरी मनुष्यता में है कुछ खोट?
कि सुनाई नहीं देती या फिर देर तक नहीं टिकती कोई चोट?
या मैं खुद घायल हूं
अपने अनजाने ज़ख़्मों को सहलाता, उनके साथ जीने की आदत डालता
अपने-आप में बंद
दूसरों की चोट से निस्पंद?

या फिर इस लहूलुहान दुनिया में हर तरफ इतनी हिंसा है,
इतनी दहशत है, तार-तार होती मनुष्यता के इतने सारे प्रमाण हैं
कि मुंबई की दहशत अपनी विराटता में तो डराती है
अपना दारुणता में झकझोरती नहीं?

या फिर जाने-अनजाने एक हिंसा का मैं भी शिकार हूं
वह हिंसा जो बड़ी सूक्ष्म होती है
जिसमें न हथगोले दिखते हैं न धमाके होते हैं,
बस कुछ कुतरता चलता है हमारी आत्माओं को, हमारे विश्वासों को
हमें सिर्फ देह में और संदेह में बदलता
जिसका मुझे पता नहीं चलता।
और फिर शिकार ही नहीं, हो सकता है, इस हिंसा का साझेदार होऊं
इसीलिए मुंबई मुझे डराती भी है तो दूसरी तरह से
वह मेरे भीतर नई हिंसा भरती है, प्रतिशोध की कामना भरती है,
फिर मैं भी खोजने लगता हूं निशाने
उसी खेल में शामिल हो जाता हूं जाने-अनजाने
हो सकता है
आप सबको यह एक कवि का बेमानी विलाप लगे
लेकिन मैं चाहता हूं, मुंबई से मेरे भीतर गुस्सा नहीं करुणा जगे।
क्योंकि जैसे हर ओर आतंक है, वैसे ही हर ओर मुंबई है
और यह एक ज्यादा बड़ी लड़ाई है जिसका वास्ता सिर्फ सीमा पार के प्रायोजित आतंकवाद से नहीं है
बल्कि सत्ताओं के दुष्चक्र और सरहदों के झूठ और समुदायों के पार जाकर
यह समझने की जरूरत से है कि क्या गलत है क्या सही है।

Monday, August 18, 2008

नष्ट कुछ भी नहीं होता

नष्ट कुछ भी नहीं होता,
धूल का एक कण भी नहीं,
जल की एक बूंद भी नहीं
बस सब बदल लेते हैं रूप

उम्र की भारी चट्टान के नीचे
प्रेम बचा रहता है थोड़ा सा पानी बनकर
और अनुभव के खारे समंदर में
घृणा बची रहती है राख की तरह

गुस्सा तरह-तरह के चेहरे ओढ़ता है,
बात-बात पर चला आता है,
दुख अतल में छुपा रहता है,
बहुत छेड़ने से नहीं,
हल्के से छू लेने से बाहर आता है,

याद बादल बनकर आती है
जिसमें तैरता है बीते हुए समय का इंद्रधनुष
डर अंधेरा बनकर आता है
जिसमें टहलती हैं हमारी गोपन इच्छाओं की छायाएं

कभी-कभी सुख भी चला आता है
अचरज के कपड़े पहन कर
कि सबकुछ के बावजूद अजब-अनूठी है ज़िंदगी
क्योंकि नष्ट कुछ भी नहीं होता
धूल भी नहीं, जल भी नहीं,
जीवन भी नहीं
मृत्यु के बावजूद








Monday, July 7, 2008

इतिहास में पन्ना धाय

मैं शायद तब सोया हुआ था
जब तुम मुझे अपनी बांहों में उठा कर
राजकुमार की शय्या तक ले गई मां,
हो सकता है, नींद के बीच यह विचलन
इस आश्वस्ति में फिर से नींद का हिस्सा हो गया हो
कि मैं अपनी मां की गोद में हूं
लेकिन क्या उस क्षणांश से भी छोटी, लेकिन बेहद गहरी यातना में
जिसमें हैरत और तकलीफ दोनों शामिल रही होगी,
क्या मेरा बदन छटपटाया होगा,
क्या मेरी खुली आंखों ने हमेशा के लिए बंद होने के पहले
तब तुम्हें खोजा होगा मां
जब बनवीर ने मुझे उदय सिंह समझ कर अपनी तलवार का शिकार बना डाला?

पन्ना धाय,
ठीक है कि तब तुम एक साम्राज्य की रक्षा में जुटी थी,
अपने नमक का फर्ज और कर्ज अदा कर रही थी
तुमने ठीक ही समझा कि एक राजकुमार के आगे
तुम्हारे साधारण से बेटे की जान की कोई कीमत नहीं है
मुझे तुमसे कोई शिकायत भी नहीं है मां
लेकिन पांच सौ साल की दूरी से भी यह सवाल मुझे मथता है
कि आखिर फैसले की उस घड़ी में तुमने
क्या सोच कर अपने बेटे की जगह राजकुमार को बचाने का फैसला किया?
यह तय है कि तुम्हारे भीतर इतिहास बनने या बनाने की महत्त्वाकांक्षा नहीं रही होगी
यह भी स्पष्ट है कि तुम्हें राजनीति के दांव पेचों का पहले से पता होता
तो शायद तुम कुछ पहले राजकुमार को बचाने का कुछ इंतज़ाम कर पाती
और शायद मुझे शहीद होना नहीं पड़ता।

लेकिन क्या यह संशय बिल्कुल निरर्थक है मां
कि उदय सिंह तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यारे रहे होंगे?
वरना जिस चित्तौ़ड़गढ़ का अतीत, वर्तमान और भविष्य तय करते
तलवारों की गूंज के बीच तुम्हारी भूमिका सिर्फ इतनी थी
कि एक राजकुमार की ज़रूरतें तुम समय पर पूरी कर दो,
वहां तुमने अपने बेटे को दांव पर क्यों लगाया?

या यह पहले भी होता रहा होगा मां,
जब तुमने मेरा समय, मेरा दूध, मेरा अधिकार छीन कर
बार-बार उदय सिंह को दिया होगा
और धीरे-धीरे तुम उदय सिंह की मां हो गई होगी?
कहीं न कहीं इस उम्मीद और आश्वस्ति से लैस
कि राजवंश तुम्हें इसके लिए पुरस्कृत करेगा?

और पन्ना धाय, वाकई इतिहास ने तुम्हें पुरस्कृत किया,
तुम्हारे कीर्तिलेख तुम्हारे त्याग का उल्लेख करते अघाते नहीं
जबकि उस मासूम बच्चे का ज़िक्र
कहीं नहीं मिलता
जिसे उससे पूछा बिना राजकुमार की वेदी पर सुला दिया गया।

हो सकता है, मेरी शिकायत से ओछेपन की बू आती हो मां
आखिर अपनी ममता को मार कर एक साम्राज्य की रक्षा के तुम्हारे फैसले पर
इतिहास अब भी ताली बजाता है
और तुम्हें देश और साम्राज्य के प्रति वफा़दारी की मिसाल की तरह पेश किया जाता है
अगर उस एक लम्हे में तुम कमज़ोर पड़ गई होती
तो क्या उदय सिंह बचते, क्या राणा प्रताप होते
और
क्या चित्तौड़ का वह गौरवशाली इतिहास होता जिसका एक हिस्सा तुम भी हो?

लेकिन यह सब नहीं होता तो क्या होता मां?
हो सकता है चित्तौड़ के इतिहास ने कोई और दिशा ली होती?
हो सकता है, वर्षों बाद कोई और बनवीर को मारता
और
इतिहास को अपने ढंग से आकार देता?
हो सकता है, तब जो होता, वह ज्यादा गौरवपूर्ण होता
और नया भी,
इस लिहाज से कहीं ज्यादा मानवीय
कि उसमें एक मासूम बेख़बर बच्चे का खून शामिल नहीं होता?

इतिहास का चक्का बहुत बड़ा होता है मां
हम सब इस भ्रम में जीते हैं
कि उसे अपने ढंग से मोड़ रहे हैं
लेकिन असल में वह हमें अपने ढंग से मोड़ रहा होता है
वरना पांच सौ साल पुराना सामंती वफ़ादारी का चलन
पांच हजार साल पुरानी उस मनुष्यता पर भारी नहीं पड़ता
जिसमें एक बच्चा अपनी मां की गोद को दुनिया की सबसे सुरक्षित
जगह समझता है
और बिस्तर बदले जाने पर भी सोया रहता है।

दरअसल इतिहास ने मुझे मारने से पहले तुम्हें मार डाला मां
मैं जानता हूं जो तलवार मेरे कोमल शरीर में बेरोकटोक धंसती चली गई,
उसने पहले तुम्हारा सीना चीर दिया होगा
और मेरी तरह तुम्हारी भी चीख हलक में अटक कर रह गई होगी
यानी हम दोनों मारे गए,
बच गया बस उदय सिंह, नए नगर बसाने के लिए, नया इतिहास बनाने के लिए
बच गई बस पन्ना धाय इतिहास की मूर्ति बनने के लिए।

Sunday, June 1, 2008

गुस्सा और चुप्पी


बहुत सारी चीज़ों पर आता है गुस्सा
सबकुछ तोड़फोड़ देने, तहस-नहस कर देने की एक आदिम इच्छा उबलती है
जिस पर विवेक धीरे-धीरे डालता है ठंडा पानी
कुछ देर बचा रहता है धुआं इस गुस्से का
तुम बेचैन से भटकते हो,
देखते हुए कि दुनिया कितनी ग़लत है, ज़िंदगी कितनी बेमानी,


एक तरह से देखो तो अच्छा ही करते हो
क्योंकि तुम्हारे गुस्से का कोई फ़ायदा नहीं
जो तुम तोड़ना चाहते हो वह नहीं टूटेगा
और बहुत सारी दूसरी चीजें दरक जाएंगी
हमेशा-हमेशा के लिए

लेकिन गुस्सा ख़त्म हो जाने से
क्या गुस्से की वजह भी ख़त्म हो जाती है?
क्या है सही- नासमझ गुस्सा या समझदारी भरी चुप्पी?
क्या कोई समझदारी भरा गुस्सा हो सकता है?
ऐसा गुस्सा जिसमें तुम्हारे मुंह से बिल्कुल सही शब्द निकलें
तुम्हारे हाथ से फेंकी गई कोई चीज बिल्कुल सही निशाने पर लगे
और सिर्फ वही टूटे जो तुम तोड़ना चाहते हो?

लेकिन तब वह गुस्सा कहां रहेगा?
उसमें योजना शामिल होगी, सतर्कता शामिल होगी
सही निशाने पर चोट करने का संतुलन शामिल होगा
कई लोगों को आता भी है ऐसा शातिर गुस्सा
उनके चेहरे पर देखो तो कहीं से गुस्सा नहीं दिखेगा
हो सकता है, उनके शब्दों में तब भी बरस रहा हो मधु
जब उनके दिल में सुलग रही हो आग।

तुम्हें पता भी नहीं चलेगा
और तुम उनके गुस्से के शिकार हो जाओगे
उसके बाद कोसते रहने के लिए अपनी क़िस्मत या दूसरों की फितरत
लेकिन कई लोगों के गुस्से की तरह
कई लोगों की चुप्पी भी होती है ख़तरनाक
तब भी तुम्हें पता नहीं चलता
कि मौन के इस सागर के नीचे धधक रही है कैसी बड़वाग्नि
उन लोगों को अपनी सीमा का अहसास रहता है
और शायद अपने समय का इंतज़ार भी।
कायदे से देखो
तो एक हद के बाद गुस्से और चुप्पी में ज़्यादा फर्क नहीं रह जाता
कई बार गुस्से से भी पैदा होती है चुप्पी
और चुप्पी से भी पैदा होता है गुस्सा

कुल मिलाकर समझ में यही आता है
कुछ लोग गुस्से का भी इस्तेमाल करना जानते हैं और चुप्पी का भी
उनके लिए गुस्सा भी मुद्रा है, चुप्पी भी
वे बहुत तेजी से चीखते हैं और उससे भी तेजी से ख़ामोश हो जाते हैं
उन्हें अपने हथियारों की तराश और उनके निशाने तुमसे ज्यादा बेहतर मालूम हैं

तुमसे न गुस्सा सधता है न चुप्पी
लेकिन इससे न तुम्हारा गुस्सा बांझ हो जाता है न तुम्हारी चुप्पी नाजायज़
बस थोड़ा सा गुस्सा अपने भीतर बचाए रखो और थोड़ी सी चुप्पी भी
मुद्रा की तरह नहीं, प्रकृति की तरह
क्योंकि गुस्सा भी कुछ रचता है और चुप्पी भी
हो सकता है, दोनों तुम्हारे काम न आते हों,
लेकिन दूसरों को उससे बल मिलता है
जैसे तुम्हें उन दूसरों से,
कभी जिनका गुस्सा तुम्हें लुभाता है, कभी जिनकी चुप्पी तुम्हें डराती है।

Monday, May 19, 2008

रात

हालांकि अंधेरी होती है,
लेकिन रात फिर भी बहुत कुछ बताती है
रात न होती तो हमें मालूम न होता
कि आसमान कितनी दूरस्थ संभावनाओं से लैस
एक जगमग उपस्थिति है
हम सिर्फ सूरज की चुंधियाती रोशनी में
आते-जाते और छाते बादलों के रंग देखते
और फिर किसी सुबह या शाम
नाखून जैसे चांद को देखकर चिहुंक पड़ते
सितारों और आकाशगंगाओं से हमारा परिचय रात ने कराया है
हमारी बहुत सारी कल्पनाएं रात की काली चादर में चांद-सितारों
की तरह टंकी पड़ी हैं
हमारी बहुत सारी कहानियों की ओट में है रात
जो हमारी नींद पर अंधेरे की चादर डाल देती है
जो हमारे सपनों की रखवाली करती है
जो हमें अगली सुबह के लिए तैयार करती है
उसमें दिन वाला ताप और उसकी चमक-दमक भले न हो
एक छुपी हुई शीतल मनुष्यता है जो अंधेरे में भी महसूस की जा सकती है

ध्यान से देखो
तो रात हमारे जीवन की सबसे पुरानी बुढ़िया की तरह नज़र आती है
क्षितिज के एक छोर से दूसरे छोर तक अपने काले बाल पसारे
सुनाती हुई हमें एक कहानी
जो सभ्यता की पहली रात से जारी है
सोए-सोए हम कहानी में दाखिल हो जाते हैं
हम जिन्हें सपने कहते हैं
वे रात की सुनाई हुई कहानियां ही तो हैं
जो हर सुबह थम जाती हैं
और रात को नए सिरे से शुरू हो जाती हैं
सारे देवता, सारे राक्षस, सारे सिकंदर, सारे शहजादे सारी परियां
तरह-तरह के रूप धर इन कहानियों में चले आते हैं

दरअसल यह रात का जादू है
जो सबसे ज्यादा प्रकाश की साज़िश से परिचय कराता है
रात को देखकर ही समझ में आता है
हमेशा अंधेरा प्रकाश का शत्रु नहीं होता
प्रकाश भी प्रकाश का शत्रु होता है
बड़ा प्रकाश छोटे-छोटे प्रकाशों को छुपा लेता है
या करीब के प्रकाश में दूर के प्रकाश नहीं दीखते
सूरज की रोशनी मे जो सितारे खो जाते हैं
रात उन्हें जगाती है, हम तक ले आती है
रात को ठीक से समझो
तो हमेशा अंधेरे से डर नहीं लगेगा,
बल्कि समझ में आएगा
अंधेरे में भी छुपी रहती हैं प्रकाश की गलियां
और जिसे हम प्रकाश समझते हैं
उसमें भी बहुत अंधेरा होता है।

यही वजह है कि हमारी रातों मे जितनी रोशनी बढ़ती जा रही है
हमारे दिनों में उतना ही अंधेरा भी बढ़ता जा रहा है

Tuesday, April 29, 2008

टैगोर हिल

एक खड़खड़ाती साइकिल याद आती है
एक सूना मैदान
दो पांव पैडल मारते हुए
कैरियर में दबी दो किताबें
और किसी रंगीन चादर की तरह बिछा हुआ एक पूरा शहर
जिस पर किसी शरारती बच्चे की तरह धमा चौकड़ी मचाते
घूमा करते थे हम
ठीक है कि यह नॉस्टैल्जिया है
ठीक है कि अपने पुराने शहर, पुराने घर और पुराने प्रेम पर
सैकड़ों-हजारों नहीं, लाखों कविताएं लिख और छोड़ गए हैं कवि
यानी मैं ऐसा कुछ नया नहीं कर रहा
जिस पर गुमान करूं, जिसे अनूठा बताऊं
लेकिन कोई तो बात है
कि जब भी कुछ लिखने बैठता हूं
वे पुराने दिन आकर जैसे कलम छीन लेना चाहते हैं
उन संवलाए पठारों के कालातीत पत्थर
कुछ इस तरह पुकारते हैं
जैसे उनकी हजारों या लाखों बरस की
उम्र का एक-एक लम्हा उनकी छाती में दर्ज हो
एक-एक कदम के निशान, एक-एक आहट की आवाज़
और उनकी तहों में दबा कोई कागज फड़फड़ाता हुआ बताता हो
कि उनके पास मेरे भी कुछ लम्हे बकाया हैं
कुछ सांसें, कुछ स्पंदन,
और अब वे यह सारा कर्ज सूद समेत वापस लेना चाहते हों
जबकि मैं बेखबर,
मुझे ठीक से पता भी न था
कि इन बेजान लगते पहाड़ों की इतनी गाढ़ी स्मृति होती है
कि इन पत्थरों के भीतर भी होता है याद का वह हिलता हुआ जल
जो कभी मुझे याद दिला जाएगा मेरा बीता हुआ कल
मैं तो बस रामकृष्ण मिशन की लाइब्रेरी से निकलता
और अनजाने चला जाता
टैगोर हिल के ऊपर बनी उस छतरीनुमा संरचना के नीचे
जहां से सूरज का डूबना जितना सुंदर लगता था
उतना ही बादलों का बिखरना भी।
तब मुझे क्या पता था कि
बीता हुआ बीतता नहीं लौट कर आता है
कि पुराने पत्थरों की बेआवाज़ दुनिया
सारी आवाजों, सारी निशानियों को बचाए रखती है
और ठीक उसी वक़्त सामने आकर खड़ी हो जाती है
जब आप भविष्य के आईने में अपनी शक्ल खोजना चाहते हैं
और पाते हैं कि यह शीशा तो अतीत के फ्रेम में कसा हुआ है।

Monday, April 21, 2008

कविता लिखते हुए

कविता लिखना आसान नहीं होता
लिखने से पहले अपने सोचने-देखने का ढंग बदलना पड़ता है
जैसे दुनिया पर पड़ी धूल गर्द झाड़कर उसे चमका रहे हों
ताकि उसको उसके महीन रंगों, उसकी असली चमक के साथ पहचान सकें।
कविता लिखने से पहले खुद को भी बदलना पड़ता है थोड़ा सा
तुम्हें कुछ देर की चुप्पी चाहिए
और वे सारी सुनी-अनसुनी आवाज़ें जो
आसपास बेआवाज़ सुनाई पड़ती रहती हैं
कहीं दूर बोलती चिड़िया
कहीं और दूर गु़ज़रती कोई गाड़ी
कहीं पास सब्ज़ी की पुकार लगाता कोई एक आदमी
कहीं और पास किसी खेलते हुए बच्चे की हंसी
कविता लिखते हुए अचानक तुम अपने आसपास की दुनिया के प्रति
सतर्क हो जाते हो, कुछ मुलायम और संवेदनशील
घास हो या आकाश, पेड़ हो या पत्थर
सबका छुपा स्पंदन, सबमें निहित चुप्पी
एकाएक जैसे तुम्हारे सामने खुलने लगते हैं
दुनिया जैसे एक नई आवाज़ में तुम्हें पुकारती लगती है
यह कोई जादू नहीं है,
बस अपने स्नायु तंत्र को कुछ जगा लेने का उद्यम है
अपनी आंख, अपने कान कुछ खोल लेने की कोशिश
ताकि तुम समेट, सुन देख सको अपने आसपास की सारी गंध, सारे स्वर, सारे दृश्य
ख़ासकर वे बेहद महीन, मद्धिम कण और फुसफुसाहटें
जो रोजमर्रा के शोर में गुम हो जाते हैं

कविता लिखना दुनिया को नए सिरे से देखना है
अपनी मनुष्यता को नए सिरे से पहचानना
इस पहचान में यह सवाल भी शामिल है
कि जब तुम कविता नहीं लिख रहे होते
तब भी दुनिया को इतनी मुलायम निगाहों से क्यों नहीं देख रहे होते?

कविता लिखना खुद को याद दिलाना है
कि सबसे पहले और आखिर में तुम मनुष्य हो
कि रोज़मर्रा का जो चाकू इस मनुष्यता को बार-बार छीलता और तार-तार करता है.
जो रोज़ तुम्हें कुछ कम मनुष्य रहने देता है
उसके विरुद्ध एक कवच का काम कर सकती है कविता।
इसकी इकलौती शर्त है कि इसे हमेशा सीने से लगाए रखो

लेकिन क्या यह आसान है
कविता को लगातार सीने से लगाए रखना
अपनी धुकधुकी के साथ महसूस करना?
इसकी भी चुकानी पड़ती है क़ीमत
इसकी भी डालनी पड़ती है आदत।

दरअसल कविता लिखते हुए ही समझ में आता है
कविता सिर्फ तब ही नहीं लिखी जा रही होती
जब तुम उसे कागज पर उतारते हो,
वह तब भी तुम्हारे भीतर बन रही होती है
जब तुम उससे पूरी तरह बेखबर होते हो।

Friday, March 28, 2008

वह आख़िरी ख़त

अखबारों में लगभग रोज़ पढ़ता हूं
और फिल्मों में भी अक्सर देखता हूं
एक ‘स्युसाइड नोट’, जो कोई मरने वाला अपने पीछे छोड़ जाता है
कभी उनसे हमदर्दी पैदा होती है
कभी ऊब
और कभी कोफ्त भी।
विदर्भ से आने वाली किसानों की ख़ुदकुशी की ख़बरें
परेशान करती हैं
लेकिन निजी त्रासदी से ज्यादा सामाजिक विडंबना की तरह
जिसके पीछे छुपे चेहरे आम तौर पर दिखते नहीं,
उन मौकों को छोड़कर
जब किसी किसान का परिवार टीवी पर बिलखता दिखाई पड़ता है
लेकिन यह रोज का किस्सा है
जिससे दो-चार होने की आदत सी पड़ गई है
यानी कुल मिलाकर खुदकुशी मेरे लिए ऐसी दास्तान नहीं
जो अनजानी या दिल तोड़ने वाली हो।
लेकिन इन सबके बावजूद,
उस असली ‘स्युसाइड नोट’ को छूते समय जिस तरह कांपे मेरे हाथ
जिस तरह सिहरा मेरा दिल
जिस तरह फट पड़ने को आया मेरा कलेजा
उन सबकी थरथराहट मेरे भीतर से जाने का नाम नहीं ले रही।

ऐसा कुछ नहीं है, उस पत्र में जिसका पहले से मुझे अनुमान न हो।
मृत्यु के ऐन पहले अपने क्षोभ, अपनी हताशा, जीवन से हार कर
मौत को चुनने के अपने तर्क
और
अपने बचे-खुचे सामान की सूची के साथ
अपने मां-पिता से जानी-पहचानी क्षमायाचना
अपने छोटे भाई-बहन को सलीके से रहने की
और
इन सबसे बढ़कर उसकी मौत पर दुखी न होने की हिदायत-
लेकिन यह अहसास कि यह पत्र वाकई मरने से पहले किसी लड़की ने लिखा है,.
कि एक हाथ ने आखिरी बार छुआ होगा यह कागज़
दो उंगलियों ने आख़िरी बार पकड़ी होगी कलम
कि उसका एक-एक शब्द बिल्कुल आखिरी बार लिखा जा रहा होगा
कि आख़िरी बार लगाया जा रहा होगा हिसाब
कि ज़िंदगी ने क्या-क्या दिया, क्या-क्या लिया,
कि आखिरी बार होगी अपने पिता से उम्मीद
कि वे महानगर में उसके अकेले और भुतहा लगते से कमरे से
उसका एक-एक सामान करीने से चुनकर निकालेंगे
और ले जाएंगे मां के पास
जो देखेगी, बेटी ने मौत का यह सफ़र चुनने से पहले
कहां-कहां से जुटाया ज़िंदगी का असबाब
जो रोएगी और उस घड़ी को कोसेगी
जब उसने बेटी को शहर में नौकरी खोजने और करने की इजाज़त दी

मृत्यु से ठीक पहले क्या सोचता है आदमी?
क्या सोच रही होगी वह लड़की मरने से पहले?
यह पत्र काफी कुछ उसके बारे में बताता है
लेकिन इस आखिरी पत्र के बाद भी
आई होंगी आखिरी घड़ियां
तब क्या उसे एक-एक लम्हा एक सदी जैसा नहीं लगा होगा?
जब उसने छत की किसी कुंडी से एक रस्सी लटकाई होगी
जब उसने दुपट्टे को अपनी गर्दन पर लपेटा होगा
और जब वह अपनी बची-खुची हिम्मत जुटा कर, अपनी सारी यादों को
पीछे धकेलकर
जिए जाने को कलपती ज़िंदगी की पुकार को अनसुना कर
एक ऐंठी हुई आखिरी तकलीफ के इंतज़ार में झूल गई होगी
जिसके बाद सबकुच ख़त्म हो जाएगा

न जाने कितनी बार देखा और सोचा हुआ है यह दृश्य
लेकिन मेरे हाथ में फिलहाल है अपनी मौत के प्रति
आगाह करती एक असली चिट्ठी
जिसे एक रस्सी थामने से पहले एक लड़की ने जतन से सिरहाने पर रखा था
जिसे मैं बार-बार देखता हूं
और शब्दों के बीच वह कंपन पहचानने की कोशिश करता हूं
जो उस लड़की के दिल में रहा होगा
वह आखिरी रुलाई पढ़ने की,
जो उसके भीतर अपने भाई, पिता, मां और प्रेमी की याद को लेकर उठी होगी।

मैं जानता हूं, मैं भावुक हो रहा हूं
जिस देश में बीते बीस साल में २२००० किसानों ने ख़ुदकुशी की हो
और जिनकी खबर से अखबारों के पन्ने रंगे हुए हों,
वहां एक मायूस लड़की की खुदकुशी के पहले का आखिरी ख़त
मेरे हाथ में पड़कर मेरे भीतर गड़ जाए
और मैं इसे छुपाने की कोशिश भी न करूं
तो इसमें आपको एक भावुकता दिख सकती है
लेकिन क्या करूं उस खलिश का, जो सारे तर्कों के बावजूद
मेरे भीतर बची हुई है,
बस याद दिलाती हुई
दूर से त्रासदियां बहुत छोटी, बहुत मामूली जान पड़ती हैं
उनके करीब जाओ तो समझ में आता है
ज़िंदगी कहां-कहां कितना-कितना जोड़ती है
मौत कैसे-कैसे कितना-कितना तो़ड़ती है

Monday, March 17, 2008

40 का होने पर

कहने को यह बहुत ज़्यादा उम्र नहीं होती
और साहित्य या राजनीति की दुनिया में तुम युवा ही कहलाते हो
लेकिन फिर भी चालीस साल का हो जाने के बाद
बहुत सारी चीजें ये बताने वाली निकल आती हैं
कि अब तुम युवा नहीं रहे।
उदाहरण के लिए तुम्हारे सफेद होते बाल
जो तुम्हारी कनपटियों से सरकते हुए दाढ़ी का भी हिस्सा हो जाते हैं
उदाहरण के लिए वे रिश्तेदार, जिन्होंने तुम्हें कभी बचपन या जवानी में देखा है
और तुम्हारी उम्र का यह पड़ाव देखकर
कुछ भावुक या अभिभूत हैं
कि अरे, तुम्हारे इतने सारे बाल सफ़ेद हो गए!
उदाहरण के लिए बरसों बाद मिली साथ पढ़ने वाली लड़की
जिसकी ढली हुई उम्र में तुम वह नौजवान और बेसुध करने वाली खिलखिलाहट
ढूढ़ने की कोशिश करते हो
जो पूरे दिन को खुशनुमा बना दिया करती थी
और अब जिसकी हांफती हुई दिनचर्या के बीच बची हुई सुंदरता के खंडहर में
तुम अपनी युवावस्था का खंडहर देखते हो
उदाहरण के लिए दफ़्तर के वे साथी
जिनकी चुहल तुम्हें बार-बार बताती है
अब तुम युवा नहीं रहे
धीरे-धीरे तुम याद करते हो
तुममें वह अतिरेकी भावुकता नहीं बची है
जिसने तुम्हारी जिंदगी के कई बरस तुमसे लिए
हालांकि तुम्हें याद रखने लायक कई लम्हे भी दिए
न ही वह स्वप्नशीलता बची हुई है
जिसके साथ कई नामुमकिन ख़्वाब नामुमकिन भरोसों के साथ तुम्हारे भीतर पलते रहे
अब तुम सयाने हो गए हो
ज़िंदगी की सपाट सड़क पर चलने के आदी,
भटकावों का बेमानीपन ख़ूब समझने लगे हो
और
किसी के काम आने की अपनी सीमाएं भी।
अब पहले की तरह हर काम के लिए निकल नहीं पड़ते
रंगमंच से राजनीति तक
और साहित्य से सिनेमा तक
अपनी यायावर दिनचर्या के बीच तुकतान बिठाने की बेलौस कोशिश करते हुए
हालांकि ध्यान से देखने पर तुम पाते हो
कि इस बदले हुए सरोकार की वजह तुम्हारे सयानेपन से कहीं ज़्यादा
तुम्हारे नए अभ्यास में है
वरना अक्सर पुरानी प्यास तुम्हें
अपने आगोश में लेना चाहती है
अक्सर पुराने ख्वाब तुम्हारी नींद में चले आते हैं
अक्सर तुम वह सब करना, नए सिरे से पाना और खोना
चाहते हो
जो तुम उम्र की किसी पुरानी सड़क पर छोड़ आए हो
जहां तुम्हारी छोटी-छोटी इच्छाओं के ढूह अब तक बाकी हैं
तुम हल्के से मुस्कुराते हो
पहचानते हो कि इस मुस्कुराहट में एक उदासी भी शामिल है
वह सब न कर पाने की कचोट भी
जिसके लिए तुमने अपनी ज़िंदगी के कई साल कभी होम किए
तुम अपनी आसपास की अस्त-व्यस्त दिनचर्या पर नज़र डालते हो
महसूस करते हुए कि कितना मज़बूत जाल तुमने अपने ही चारों तरफ
बुन लिया है
तुम आईना देखते हो
फिर से अपना चेहरा पहचानने की कोशिश में
और उसमें वह पुरानापन खोजने की चाहत में
जो तुम कभी थे
और हार कर अपने लिखने की मेज पर चले आते हो

Thursday, March 13, 2008

सोसाइटी में चोरी

कुछ दिन पहले हमारी सोसाइटी में चोरी हुई। एक आवासीय परिसर में २४ घंटे की चौकीदारी के बावजूद चोरी हो जाए, ये एक बड़ी बात है- इससे भी बड़ी बात यह कि चोरी पत्रकारों की सोसाइटी में हुई। उन लोगों के यहां, जो मानते हैं कि उनका चोर तो क्या पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती। बहरहाल, इसके बाद चोर पकड़ने की कवायद शुरू हुई। पुलिस वालों ने आकर पहले चौकीदारों को थप्पड़ लगाए। उसके बाद बताया कि ऐसी चोरी किसी भीतरी आदमी की मदद के बिना नहीं हो सकती।
इस तर्क से बहुत सारे लोग सहमत थे- खुद मैं भी। सवाल यह उठा कि यह भीतरी आदमी कौन हो सकता है? सबसे पहले नज़र गई उन चौकीदारों पर, जिन्हें पता था कि किन-किन फ्लैट्स में लोग बाहर गए हैं। इसके बाद उन बाहरी लोगों पर, जो सोसाइटी में काम करने आते हैं- यानी कामवालियां, धोबी, बढ़ई और वे मजदूर जो अलग-अलग फ्लैट्स में मरम्मत या बचे-खुचे काम के लिए आते जाते हैं या कुछ दिन से रह रहे हैं।
इस संभावना पर किसी ने विचार नहीं किया कि क्या सोसाइटी में रहने वाला कोई शख्स भी इस चोरी के पीछे हो सकता है। इसकी वजहें भी साफ थीं। खुद मेरा भी मानना है कि सोसाइटी में रहने वाला कोई आदमी ऐसी चोरी में शरीक नहीं हो सकता। जो रहते हैं, वे पढ़े-लिखे लोग हैं, ज़्यादातर पत्रकार हैं। उनके पास इतने साधन हैं कि वे चोरी न करें। वैसे उन पर शक न करने की वजहें और भी रही होंगी। जैसे अपने साथ रहने वालों पर शक किया जाए तो इसमें कुछ अपनी संकीर्णता भी झांकती है। दूसरी बात यह कि जो रह रहे हैं, वे अपनी तरह से ताकतवर भी हैं। यानी पुलिस उन्हें उस तरह थप्पड़ या डंडे नहीं मार सकती, जिस तरह किसी बढ़ई, मजदूर या धोबी को मार सकती है।
बहरहाल, पुलिस सोसाइटी के दो चौकीदारों और चार मजदूरों को पकड़ कर ले गई। सोसाइटी वाले आश्वस्त और संतुष्ट हुए कि चोरी तो पकडी जाएगी। जिन सज्जन के यहां चोरी हुई, वे भी सक्रिय थे। उन्होंने चौकीदारों का इतिहास निकाल लिया जो अपने-आप में काफी संदिग्ध था। मसलन, उनमें से एक को पहले भी एक सोसाइटी से निकाला जा चुका था। यही नहीं, वह रात में कहीं और भी काम करता था। सबसे बड़ी बात यह कि उस चौकीदार के परिवार वालों के बयान कई मामलों में गलत साबित हुए।
शक की यह सूई चोर पकड़ने और उसे साबित करने के लिए पर्याप्त थी। इसके बाद पुलिस को बस चोर की धुनाई करनी थी कि वह बता दे कि माल उसने कहां छुपा रखा है। लेकिन यहीं कुछ मुश्किल आ गई। सोसाइटी के कुछ पुराने लोगों और जागरूक पत्रकारों को यह लग रहा था कि चोर तो पकड़ा जाए, लेकिन इस कवायद में बेगुनाह लोगों के साथ बदसलूकी न हो। इसके अलावा यह सवाल भी कहीं टीस रहा था कि दिन-रात मानवाधिकारों का सवाल उठाते हम लोग सिर्फ शक की बिना पर कुछ लोगों को कितने दिनों तक पुलिस के हवाले छोड़ सकते हैं। कानून बताता है कि अदालत में पेश किए बिना पुलिस किसी को चौबीस घंटे से ज्यादा नहीं रख सकती। जबकि चोरी के संदेह में गिरफ्तार ये छह लोग तीन दिन पुलिस हिरासत में रहे। पता चला, पूछताछ करने वाले इंस्पेक्टर को बाहर जाना पड़ा। अपने एक-एक घंटे का हिसाब रखने वाले पत्रकारों ने लेकिन पुलिसवालों से नहीं पूछा कि छह गरीब लोगों के तीन दिन उन्होंने हवालात में क्यों कटने दिए। इन तीन दिनों में इनके घरों में क्या हुआ होगा, इसका हमें पता नहीं। हम बस मोटा अंदाजा लगा सकते हैं कि हो सकता है, इनमें से कुछ के घर चूल्हा भी न जला हो। किसी दूर-दराज के इलाके से आए और दिहाड़ी कमाकर गुजारा करने वाले इन बेघरबार लोगों को पता चले कि उनका कमाऊ सदस्य चोरी के आरोप में जेल में है तो वह किस डर या अंदेशे से घिरा होगा- इसका बस अंदाजा लगाया जा सकता है। या हो सकता है, यह मेरी मध्यवर्गीय भावुक सोच हो जिसका पाला पहले ऐसे संकटों से नहीं पड़ा है। जबकि इन गरीबों को अक्सर अपनी बेगुनाही को लेकर ऐसे इम्तिहानों से गुजरना पड़ता हो, कुछ दिनों की जेल या फाकाकशी झेलनी होती हो। कहा जा सकता है कि पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार नहीं किया था, बस पूछताछ के लिए ले गई थी। लेकिन लोगों के लिए बस इतना तथ्य काफी है कि चोरी के मामले में पुलिस इन्हें पकड़ कर ले गई। अब ये दाग आने वाले सालों में इनका पीछा करता रहेगा और फिर किसी सोसाइटी में चोरी होगी तो याद दिलाया जाएगा कि इन लोगों को पहले भी पुलिस पकड़ कर ले जा चुकी है।
मैं इस अनुमान से इनकार नहीं करता कि इनमें कोई चोर हो सकता है। आखिर चोरी हुई है और चौकीदारों की मिलीभगत नहीं तो लापरवाही साबित है। निश्चित तौर पर इस अंदेशे में भी साझेदार हूं कि अगर चोर न पकड़ा गया तो आने वाले दिनों में चोरी की कुछ और घटनाएं हो सकती हैं। इस बात का भी हामी हूं कि जिन चौकीदारों ने लापरवाही की, उन्हें बाहर होना चाहिए। लेकिन मेरी आपत्ति चोर पकड़ने और खोजने के तरीके को लेकर है। जिस दिन चोरी की बात खुली, उस दिन हर कमजोर या गरीब आदमी संदिग्ध हो उठा। बाहर से आकर काम करने वाले मजदूरों और मिस्त्रियों की शामत आ गई। उनके औजार चेक किए गए, उनसे सख्ती से पूछताछ की गई और अगर कोई हकलाता दिखा तो थप्पड़ भी लगाए गए। ये स्थिति बन ही नहीं पाई कि कोई मजदूर सीना तानकर बोल सके कि उसे इस तरह अपमानित करने का हक़ किसी को नहीं है। वरना यह अपमान पिटाई तक चला जाता।
चोर अब तक नहीं पकड़ा गया है। पुलिस चोर पकड़ने के जो तरीके जानती है, उनमें कई लोगों की पिटाई शामिल है जो कुछ लोगों की इच्छा के बावजूद मुमकिन नहीं हुई। जिनके घर चोरी हुई, उन्हें यह जायज मलाल है कि उनकी ताकत और कोशिश के बावजूद चोर अब तक फरार है, और यह शिकायत भी कि यह सोसाइटी के कुछ लोगों के दखल की वजह से हुआ है। दखल देने वालों में मैं नहीं हूं, लेकिन पकड़े गए लोगों के प्रति हमदर्दी जताने का गुनहगार मैं भी हूं, यह बोध मुझे कुछ कचोटता और डराता दोनों है। बहरहाल, इस अधूरे किस्से को लिखने का मतलब सिर्फ यह बताना है कि हम जब चोर पकड़ने निकलते हैं तो हमारे भीतर छुपे कई चोर दिखने लगते हैं। हम किसी को उसके गुनाह की नहीं, उसकी गरीबी और कमजोरी की सजा देने लगते हैं। हमारी सोसाइटी में दाखिल होने वाले चोर पकड़े जाएं, यह जरूरी है, लेकिन उतना ही यह जरूरी है कि हम अपने भीतर छुपे चोर की शिनाख्त कर सकें।

Tuesday, March 11, 2008

जश्ने आज़ादी ज़ख़्मे आज़ादी

दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय के एक छोटे से कमरे में उपस्थित युवा चेहरों को देखकर मुझे तसल्ली से ज़्यादा अंदेशा हुआ- क्या ‘चक दे इंडिया’ या ‘तारे ज़मीं पर’ जैसी चमकदार मुंबइया फिल्मों के आदी इन लड़कों को संजय काक की करीब सवा दो घंटे लंबी डॉक्युमेंटरी अपने साथ रख पाएगी? एक ऐसी डॉक्युमेंटरी, जिसमें अलग से कोई कहानी नहीं है, कोई नायक नहीं है और एक ऐसा पेचीदा यथार्थ है जिसका गड्डमड्ड इतिहास-भूगोल जैसे लगातार बदलता, और हाथ और दिमाग से फिसलता मालूम होता है?
लेकिन ‘जश्ने आज़ादी’ शुरू हुई तो सारे अंदेशे पीछे छूट गए। उस कमरे की रंगहीन सफेद दीवार पर उभरती तसवीरों और आवाज़ों के कोलाज में दीवार खो गई, कमरा खो गया और कमरे में पर्याप्त उजाले के बावजूद वे चेहरे खो गए जो फिल्म देखने इकट्ठा थे। धीरे-धीरे खुलता रहा कश्मीर नाम की उस वादी का सच, जिसमें आजादी एक छलने वाला शब्द है। यह एक नुचा-चिंथा कश्मीर है, जहां गिरती हुई बर्फ के फाहों के बीच एक पिता कब्रगाह में अपने बेटे की कब्र खोज रहा है- वह एचके, यानी हिज़्बुल मुजाहिद्दीन का कमांडर था, मारा गया। पिता ईद के दिन आया है, ताकि उसके नाम भी दुआ पढ़ सके। इस कश्मीर में लोग इस तरह मारे गए लोगों की गिनती कर रहे हैं जैसे वे कुछ खोए हुए सामान याद कर रहे हों। इस कश्मीर में एक छोटी सी लड़की अपने सामने हुई मुठभेड़ का हवाला देते-देते घबरा सी जा रही है। इस कश्मीर में अपने खोए हुए बच्चे की तस्वीर लेकर घूमते उसके घरवाले हैं। इस कश्मीर में अपने दिलों पर दहशत के निशान लिए जी रही बच्चियां ख्वाबों में अपने मर रहे पिता को देखती हैं। इन सबके बीच अमरनाथ यात्रा पर आया हुआ एक साधु कश्मीर की तरफ आंख उठाकर देखने वालों की आंख निकाल लेने की धमकी देता है।
नहीं, यह कोई भावनाओं को उभारने वाली फिल्म नहीं है। संजय काक ने शायद प्रयत्नपूर्वक खुद को इस आसान रास्ते से अलग रखा है। ये सारे दृश्य आपको खोजने पड़ते हैं- यह समझने के लिए कि वह कौन सी चीज़ है जो इस सपाट लगती फिल्म में आपको फिर भी बेचैन बनाए रखती है, जो आपको भावुक होकर कुछ देर बाद फिल्म को भूल जाने का मौका नहीं देती। इस तलाश में आप जब सूने लाल चौक पर तिरंगा फहराते और जन-गण-मन गाते भारतीय सैनिकों या फिर पूरे जोर-शोर से आजा़दी का नारा उछालते हुजूम के पीछे झांकते हैं तब इन चेहरों पर आपकी नज़र पड़ती है। तब आपको कश्मीर के सन्नाटे या शोर के पीछे की वह कारुणिकता, वह त्रासदी दिखाई पड़ती है जिसमें जले हुए घर हैं, सूखे हुए ख़ून सी सूख चुली रुलाइयां हैं और ताजा गिरे खून को साफ करने की नाकाम सी कोशिश है।
संजय काक न ज़्यादा दिखाते हैं न ज़्यादा बोलते हैं। वे स्थितियों और चरित्रों को बोलने देते हैं। कश्मीर की बेहद दिलकश झील के ऊपर तैरती है एक कवि की आवाज़- खोए हुए ज़मानों और ठिकानों को अपने सोज़, अपनी तकलीफ़ के साथ सहेजती आवाज़। इस तकलीफ के आसपास वे फूहड़ सैलानी निगाहें भी हैं जिनके लिए कश्मीर बस एक फिसलती हुई बर्फ या एक ख़ूबसूरत बाग़ है। इन सैलानियों की चीखती हुई आवाज़ें बताती हैं कि यह कश्मीर तो स्विट्जरलैंड से भी सुंदर है। सैलानियों के अलावा सैनिक हैं- कहीं अनाथ हुए बच्चों का स्कूल चलाते, कहीं ट्रांजिस्टर बांटते और ये वादा करते कि और भी अच्छी-अच्छी चीजें आएंगी और सबको मिलेंगी। पूरी फिल्म में कदम-कदम पर अंतर्विरोधों का यह जाल आपके पांव रोकता है, कई बार लगता है, अब ये फिल्म खत्म हो।
लेकिन फिल्म खत्म हो जाने के बाद भी ख़त्म नहीं होती। एक विशुद्ध राजनीतिक फिल्म होते हुए भी इसका राजनीतिक पाठ आसान नहीं है। सिर्फ इतना दिखाई पड़ता है कि सात लाख सैनिकों से भरे इस कश्मीर में अब भी गणतंत्र दिवस सन्नाटे के साथ मनाना पड़ता है और स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में भी सुरक्षा का अभेद्य घेरा खड़ा करना पड़ता है। दूसरी तरफ जब भी सेना द्वारा तथाकथित मुठभेड़ में मारे गए किसी लडके की मय्यत निकलती है तो जैसे वह कश्मीर की आजादी के लिए निकाले गए जुलूस में तबदील हो जाती है। जाहिर है, भारत की वर्चस्ववादी राजनीति और सैन्य नीति के खिलाफ कश्मीर का गुस्सा सारे दमन के बावजूद कायम है।
हालांकि फिल्म इतिहास और वर्तमान को लेकर कई सवाल खड़े करती है। संजय काक कश्मीरियों के संघर्ष को पांच सौ साल की गुलामी से जोड़कर देखते हैं। इसमें एक तरह का अवांछित सरलीकरण चला आता है जिसमें वह विडंबना आसानी से समझ में नहीं आती जो १९४७ के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच झूल रहे कश्मीर के समाज और राजनीति में पैदा हुई है। दूसरी बात यह कि जिस कश्मीरियत की बात बार-बार की जाती है, उसे यह फिल्म परिभाषित करने की कोशिश नहीं करती। अगर करती तो यह बात शायद ज़्यादा खुलकर आती कि पहचानों की कोई एक परिभाषा नहीं होती, उनकी कई परतें होती हैं और कश्मीरियत भी ऐसी कई परतों से मिलकर बनी चीज है।
बहरहाल, संजय को न सवाल खड़े करने की फ़िक्र है न जवाब खोजने की जल्दी। न ही कोई कहानी बुनने की कोशिश उनमें दिखती है। वे गड्डमड्ड तारीखों और जगहों के बीच हमें वह कश्मीर दिखाते हैं जहां बीस साल में १८,००० से ज्यादा लोगों ने जान गंवाई है, उन कब्रिस्तानों में ले चलते हैं जहां लोग नाम और चेहरों से नहीं, नंबरों से पहचाने जाते हैं। इस पूरी फिल्म में कोई कश्मीरी पंडित नहीं दिखता- और संजय इसे भी कश्मीर के उस खालीपन की तरह पेश करते हैं जिस पर लोगों का ध्यान जाना चाहिए- एक पेंटिंग में खाली छूटी उस जगह की तरह, जो पेंटिंग को फिर भी अर्थ देती है।
शायद इसी तटस्थता के कारण फिल्म न कहीं शुरू होती है, न कहीं खत्म होती है। वह जैसे चलती रहती है- ख़त्म हो जाने के बाद भी। दिल्ली विश्वविद्यालय के उस कमरे में फिल्म के खत्म होते-होते बैठे हुए लडकों की तादाद अचानक बढ चुकी थी और उनके पास ढेर सारे सवाल थे। कश्मीर का बेहद मुश्किल यथार्थ समझने की कोशिश में पूछे गए सवाल, फिल्म की राजनीति और तटस्थता से जुड़े सवाल। इन सवालों के बीच साफ था कि ‘जश्ने आज़ादी’ अपने मक़सद में कामयाब रही है- वह दूर से छूती है और बिना अहसास कराए बहुत भीतर तक उतर जाती है। ये एक बड़ी कामयाबी है।

Monday, March 10, 2008

लाल बत्ती

लाल बत्ती पर जैसे ही तुम मारते हो ब्रेक
और आगे-पीछे दाएं-बाएं लगी गाड़ियों का जायज़ा लेने की कोशिश करते हो
एक ठक-ठक सी सुनाई पड़ती है शीशे पर
और तुम चौंक कर देखते हो
एक चेहरा जिसे देखते हुए डर लगता है
कोई इशारा कर रहा है अपने रक्त सूखे दाग़दार मुंह की तरफ
या गोद में पड़े पट्टियों से बंधे हुए एक छोटे से बच्चे की तरफ
बस पीछा छुड़ाने की ही गरज से
तुम जेब या कार में बनी दराज़ देखते हो
और अगर कोई छोटा सा सिक्का मिल जाए तो शीशा नीचे कर
उसकी तरफ़ बढ़ा देते हो
बत्ती हरी हो जाती है,
कारें निकल जाती हैं
तुम भी लाल बत्ती से निकल आने की राहत या रफ़्तार का मज़ा लेने लगते हो
यह रोज़ का क़िस्सा है
जो तुम्हें अक्सर संशय में डाल देता है
कि ऐसे भिखमंगों के साथ क्या किया जाए
आख़िर रोज़-रोज़ जाने-पहचाने रास्तों पर दिखने लगें
वही जाने-पहचाने चेहरे
जो चमकती, बंद, आरामदेह गाड़ी में चल रहे तुम्हारे सफ़र को कुछ बेरौनक, कुछ किरकिरा कर दें
जो तुम्हें याद दिलाएं कि तुम्हारी बढ़ रही संपन्नता
सड़क पर दिखने वाली ग़रीबी के मुकाबले लगभग अश्लील है और
सबसे ज्यादा तुम्हें ही चुभ रही है
तो तुम्हारे भीतर कुछ ऊब, कुछ खीज और कुछ आत्मग्लानि से मिली-जुली
एक ऐसी वितृष्णा पैदा होती है
जिसमें तुम उस ठक-ठक करते भिखमंगे की तरफ ही नहीं
अपनी तरफ़ भी देखना बंद कर देते हो
फिर तुम तलाशने लगते हो वे तर्क, जिनके सहारे ख़ुद को दे सको तसल्ली
कि इन भुक्खड़ों को भीख न देकर, उनकी आवाज़ न सुनकर, उनकी तरफ़ न देखकर
तुम बिल्कुल ठीक करते हो।

ऐसे मौकों पर कई तर्क तुम्हारी मदद में चले आते हैं
सबसे पहले तुम याद करते हो दिल्ली पुलिस का वह कानून
जो लाल बत्ती पर भिखमंगों को सिक्के देने से मना करता है
फिर तुम याद करते हो वे ख़बरें जो बताती हैं कि
भिखमंगों का ये पूरा गिरोह है
जो खाए-पिए अघाए और रेडलाइट पर रुके लोगों की आत्मदया
के सहारे चल रहा है
कि यहां भीख मांगने के लिए बड़े और बच्चों के बाकायदा हाथ-पांव तोड़े जाते हैं
और तुम सिहरते हुए सोचते हो
कि तुम्हारी दया न जाने कितने ऐसे मासूम बच्चों के लिए उम्र भर का अभिशाप
बन रही है
धीरे-धीरे तुम खुद को आश्वस्त करने की कोशिश करते हो
और उनकी तरफ देखना बंद कर देते हो
यह समझते हुए भी कि सारे तर्कों के बावजूद दिसंबर की सर्द रात में
यह जो ठिठुरती सी औरत अपने बच्चे को चिपकाए लाल बत्ती पर
तुम्हारी दया पर दस्तक दे रही है
उसे तर्क की नहीं, बस कुछ सिक्कों की ज़रूरत है-
उतने भर भी उसके लिए ज़्यादा हैं जो
तुम सिगरेट न पीने की वैधानिक चेतावनी को नजरअंदाज़ करते हुए
रोज़ सिगरेट में उडा देते हो
या फिर जिससे कई गुना ज्यादा पैसे तुम्हारे बच्चे के किसी पांच मिनट के
खेल में लग जाते हैं।
कई बार तो तुम बस इसलिए पैसे नहीं देते
कि गर्मियों में एसी कार के शीशे उतारने की जहमत कौन मोल ले
धीरे-धीरे तुम्हारी झुंझलाहट और हैरानी बढ़ती जाती है
आखिर सरकार या पुलिस कुछ करती क्यों नहीं
इन भिखारियों को रास्ते से हटाने के लिए?
कभी बत्ती के लाल से हरा होने के दौरान कोई कुचल कर मारा गया
तो तुम्हीं गुनहगार ठहरा दिए जाओगे
तुम अपने ईश्वर से- जिसे तुम बाकी मौकों पर याद नहीं करते- मनाते हो
कि कभी तुम्हें किसी ऐसे हादसे का हिस्सा न होना पड़े।

लेकिन ये रोज़ का किस्सा है जो अपने दुहराव के बावजूद, तुम्हारे सारे तर्कों के बावजूद
तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ता
लाल बत्ती के बाद भी वे चेहरे बने रहते हैं जो तुम्हारी रफ़्तार में कुछ खलल डालते हैं
इन्हें भुलाने की बहुत सारी कोशिशों के बावजूद तुम
खुद से पूछने से बच नहीं पाते
कि आखिर लाल बत्तियों पर तुम्हारी ओढ़ी हुई तटस्थता
तुम्हें चुभती क्यों है?

हैरान करने वाली बात है कि इन सबके बावजूद तुम कुछ करते नहीं
यह निश्चय भी नहीं कि अपनी दुविधा से उबरने के लिए तुम
लाल बत्ती पर दिखने वाले चेहरों को रोज कुछ सिक्के दे दिया करोगे
क्योंकि शायद यह अहसास तुम्हें है
कि इस दुनिया में कंगालों और भिखमंगों की तादाद इतनी ज्यादा है
कि तुम चाहकर भी सबकी मदद नहीं कर सकते, सबका पेट नहीं भर सकते
कभी इस अहसास को ठीक से टटोलो तो और भी नए और हैरान करने वाले नतीजों तक पहुंचोगे
तब लगेगा कि दूसरों के ज़ख़्म सने चेहरों जितना ही भयानक है तुम्हारा चेहरा भी
जिसे तुम खुद देख नहीं पा रहे हो
लेकिन यह असुविधाजनक सवालों से बच निकलने का कौशल ही है
जिसके सहारे तुमने तय किया है इतना लंबा सफ़र
एक छोटी सी रेडलाइट के उलझाने वाले साठ सेकेंड
तुम्हें या तुम्हारे सफ़र को कैसे रोक पाएंगे?

Wednesday, March 5, 2008

आमने-सामने कवि

(आदरणीय विष्णु खरे और विष्णु नागर से क्षमायाचना सहित)

बहुत मुमकिन हैं
आप एक की उम्मीद कर रहे हों
और दूसरा निकल आए
आखिर दोनों बिल्कुल आमने-सामने रहते हैं
और ऐसी चूक तो हो सकती है कि सोसाइटी के दरबान के समझाने के बावजूद
आप ठीक से समझ न पाएं कि बाएं वाला या दाएं वाला फ्लैट विष्णु नागर का है
और आप विष्णु खरे के घर की घंटी बजा दें।

यह जानकर कि नागर से मिलने की कोशिश में आप खरे के घर चले आए हैं,
विष्णु जी की प्रतिक्रिया क्या होगी, ये मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता
क्योंकि उनकी प्रतिभा, विदग्धता और उनके वाक चातुर्य का लोहा सब मानते हैं
और मैं भी कायल रहा हूं उनकी प्रखर टिप्पणियों, उनकी उनसे भी प्रखर कविताओं का-
आप ध्यान देंगे कि मैं इस कविता में भी उनकी शैली की नकल करने की कितनी नाकाम सी कोशिश कर रहा हूं।

बहरहाल, मैं आपकी जगह होऊं तो शायद विष्णु जी की डांट सुनकर भी पुलकित हो जाऊं कि देखो हिंदी के दो कवि बिल्कुल आमने सामने रहते हैं।
यह पुलक इस बात से कम नहीं होगी, शायद कुछ बढ ही जाए कि
विष्णु जी डांटें नहीं, सीधे बता दें कि सामने वाला घर नागर का है
या फिर हंसते हुए बोलें कि मैं तो कवि हूं, संपादक-कवि सामने रहते हैं।

वैसे, दो कवि आमने सामने रहते हैं,
इसमें कोई काव्यात्मक संभावना दिल्ली की बहुत सारी कालोनियों में एक साथ रहते बुद्धिजीवियों, कवियों और कथाकारों को एक बेतुकी सी चीज लग सकती है,
मेरी तरह के सामान्य पाठक को फिर भी यह तथ्य लुभाता है-
इस बात से बेखबर कि दोनों कवियों में कौन बड़ा या वरिष्ठ है,
इस बात से बेपरवाह कि कई आलोचक और पाठक- जिनमें शायद मैं भी शामिल हूं-
विष्णु नागर और विष्णु खरे में नाम और पड़ोस के साम्य के अलावा और कोई साम्य न देखते हों।

धीरे-धीरे मेरे भीतर यह सवाल भी उभरता है कि क्या यह कवि-पड़ोस आपस में बतियाता होगा, या अपनी पकाई सब्जियां एक-दूसरे तक पहुंचाता होगा या
चायपत्ती या चीनी घट जाने पर एक-दूसरे से मांगता होगा?
हालांकि अब के जमाने में यह रिवाज भी बीते जमाने की चीज हो चुका है
लेकिन संभावना की तरह तो यह अब भी शेष है
और मैं दोनों कवि पत्नियों से अपने नाकुछ परिचय से कहीं ज्यादा अपनी सहज बुद्धि से कल्पना या कामना करता हूं कि दोनों के बीच कवियों की तुलना में कहीं ज्यादा आत्मीयता होगी या साझा होगा।

मैं ये भी सोचता हूं कि जब यह सोसाइटी बन रही होगी तब आसपास रहने की संभावना क्या इन कवियों को करीब लाई होगी?

क्या तब अपना-अपना छिंदवाड़ा या शाजापुर पीछे छोड़ते हुए विस्थापन की कोई हल्की कचोट इनके भीतर रही होगी या ये इरादा कि एक दिन यमुना पार के इस मयूर विहार को छोड़कर वे अपने पुराने मुहल्लों और घरों में लौटेंगे?

या ये राहत कि दिल्ली में अब इनके सरों पर एक छत है जो ढलती हुई उम्र में इनका आसरा बनेगी?

या ये अफसोस कि अब उनके बच्चे इस बेगाने और बेवफा शहर को अपना घर मानेंगे, उन छूटे हुए शहरों के बदरंग होते घरों को नहीं, जिनमें उनका अपना बचपन कटा और जहां से वे इस लायक बने कि दिल्ली तक आ सके?

या ये कि ये दोनों विस्थापित कवि जब अपने घरों का बनना देख रहे होंगे तो ऐसे या इससे मिलते-जुलते कई अहसासों में आपस में साझा करते होंगे?

या फिर यह कि व्यक्तियों और पड़ोसियों के तौर पर कभी ये बेहद सहज और आत्मीय रहे लोग क्या कवि होने की महत्त्वाकांक्षा या एक ही संस्थान में नौकरी करने की मजबूरी में कभी एक-दूसरे से टकराए होंगे
और फिर धीरे-धीरे इतने दूर निकल आए होंगे कि आमने-सामने घर होने के बावजूद कभी साथ चाय न पीते हों?

या फिर यह कि आपसी समझ ने दोनों के बीच रिश्ता तो कायम रखा होगा जिसमें कभी कभार मिलने की औपचारिकता वे निबाह लेते होंगे
लेकिन पुरानी आत्मीयता शेष न हो?

बहरहाल, दो लोगों के बेहद निजी जीवन में घुसपैठ की यह कोशिश कई और सवालों को अलक्षित नहीं कर सकती।

मसलन, दिल्ली में किसी को क्या फर्क पड़ता है इस बात से कि कौन कहां रहता है.,
भले ही वह कविताएं लिखता हो और उसके संग्रह में कुछ ऐसी कविताएं हों जो अपनी मार्मिकता में जीवन को हमारे लिए कुछ ज्यादा सुंदर और संभावनापूर्ण बनाती हो

या फिर यह कि दो कवि सिर्फ दो कवि नहीं, व्यक्ति भी होते हैं और उनके जीवन में कविता के अलावा भी सरोकार होते हैं। और किसी बाहर वाले का इसके बारे में विचार करना जितना अशालीन है, लिखना उससे कहीं ज्यादा उद्धत प्रयत्न है।

या फिर यह कि समाज में कवि भले रहते हों, कविता की जगह कम हो गई है। शायरों की दिल्ली में टायर ज्यादा दिखने लगे हैं।
(हालांकि इस पंक्ति का वास्ता शरद जोशी के शायर-टायर वाले लेख से नहीं, जमाने की बदलती सच्चाई से है जिसमें कालोनियों में जितने लोग नहीं दिखते उससे ज्यादा गाड़ियां दिखती हैं।)
या फिर यह कि कवि पड़ोस में रहें या सैकड़ों मील दूर- वे एक-दूसरे के करीब होते हैं। तब भी जब एक दूसरे की प्रतिभा या प्रसिद्धि या रचना से जलते हैं। लेकिन यह जलना भी शायद कहीं बेहतर कविता लिखने की इच्छा का नतीजा होता है।

या फिर यह कि वक्त इतना बदल गया है कि बस्तियों में रह कर भी हम अपने-अपने उजाड़ों में रहने को अभिशप्त हैं। कालोनियों में हम चौकीदारों की ज्यादा परवाह करते हैं कवियों की नहीं।

वैसे उदास करने वाले खयाल और भी हैं, उदास करने वाली सच्चाइयां भी।
जैसे अब संवाद नहीं है, सब्र नहीं है
समय और भी नहीं है- अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के बीहड़ में लहूलुहान पांव और दिमाग़ों में धंसे कांटे निकालने के लिए भी नहीं।
पीछे मुड़कर देखने के लिए भी नहीं, किसी का हाथ थामने, किसी की बात सुनने के लिए भी नहीं।
ऐसे सुनसान में क्यों मैं पड़ोस में रह रहे दो कवियों के बहाने अपनी तरह की एक दुनिया की कल्पना करने में लीन हूं?
इस अरक्षित समय में जो जहां हो, अच्छे से रहे, हम बस इतनी ही कामना कर सकते हैं।
दो कवि अच्छी कविताएं लिखते रहें, अच्छे पड़ोसी बने रहें और कोई गलती से सामने वाले की घंटी बजा दें तो उससे बैठकर दो मिनट बात भी कर लें।