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Saturday, September 4, 2010

जलेबी और चाकू

किसी गर्म, कुरमुरी, जायकेदार जलेबी को मुंह में रखने
और उसे गप कर जाने से पहले उसकी खुशबू और उसके रस का पूरा आनंद
लेने के बीच क्या आपने ध्यान दिया है कि
हमारी भाषा कैसे-कैसे बेख़बर अत्याचार करती है?
अगर किसी को आप जलेबी जैसा सीधा कहते हैं
तो ये उसके टेढ़ेपन पर व्यंग्य भरी टिप्पणी होती है
जबकि सच्चाई यह है कि अपने रूपाकार को छोड़कर- जिसमें उसका
अपना कोई हाथ नहीं है- वह वाकई सीधी होती है।
पहले रस को अपने भीतर घुलने देती है
और फिर बड़ी आसानी से मुंह के भीतर घुल जाती है
जो थोड़ा बहुत कुरमुरापन रहता है, वह उसका जायका ही बढ़ाता है।
कभी चाव से जलेबी खाते हुए और कभी दिल्लगी में दूसरों से अपने जलेबी जैसा
सीधा होने की तोहमत सुनते हुए अक्सर मुझे लगता है
कि वह भाषा भी कितनी सतही होती है जो बाहरी रूप देखकर
किसी से सीधे या टेढे होने का ऐसा नतीजा तय कर देती है जो घिस-घिस कर मुहावरे में बदल जाता है।
लेकिन यह नादानी है या सयानापन है?
कि लोग जलेबी को टेढा बताते हैं?
यह जानते हुए कि वह कुछ बिगाड़ नहीं सकती
आम तौर पर बाकी पकवानों की तरह हाजमा भी ख़राब नहीं कर सकती।
अगर सिर्फ आकार-प्रकार से तय होना हो
कौन सीधा है, कौन टेढ़ा
तो सीधा-सपाट चाकू कहीं ज्यादा मासूम लगेगा जो
सीधे बदन में धंस सकता है
और जलेबी बेचारी टेढ़ी लगेगी जो टूट-टूट कर
हमारे मुंह में घुलती रहती है।
लेकिन जलेबी और चाकू का यह संयोग सिर्फ सीधे-टेढ़े के फर्क को बताने के लिए नहीं चुना है
यह याद दिलाने के लिए भी रखा है कि
जलेबी मुंह में ही घुलेगी, चाकू से नहीं कटेगी
और चाकू से जलेबी काटना चाहें
तो फिर किसी और को काटने के पहले चाकू को चाटने की इच्छा पैदा होगी।
यानी चाकू जलेबी को नहीं बदल सकता
जलेबी चाकू को बदल सकती है
हालांकि यह बेतरतीब लगने वाला तर्क इस तथ्य की उपेक्षा के लिए नहीं बना है
कि जलेबी हो या चाकू- दोनों का अपना एक चरित्र है
जिसे हमें पहचानना चाहिए
और कोशिश करनी चाहिए कि हमारा रिश्ता चाकू से कम, जलेबी से ज्यादा बने।
लेकिन कमबख्त यह जो भाषा है
और यह जो दुनिया है
वह जलेबी को टेढ़ेपन के साथ देखती है, उसका मजाक बनाती है
और
सीधे सपाट चाकू के आगे कुछ सहम जाती है।

Monday, July 13, 2009

सोया हुआ वह परिवार

सड़क के बिल्कुल किनारे
गुडी-मुडी सोया दिखा वह परिवार
नीचे की रेत पर बिछी तुड़ी-मुड़ी चादर के मुचड़े हुए सिरे
और उसके भीतर सिकुड़े बदन बता रहे थे
कि चादर के हिसाब से पांव समेटने का अभ्यास
पुराना है
बगल के प़ेड़ के पास तने से बंधी संदूक दिखी
और सिहरा हुआ मैं बस इतना सोच पाया
कि पूरा घर साथ चला है।
यह रात दस बजे के आसपास का समय होगा
जो दिल्ली या गाज़ियाबाद की भीड़ भरी सड़कों पर
सोने के लिहाज से काफी असुविधाजनक होता है
फिर भी सोया हुआ था पूरा परिवार
बेख़बर गहरी नींद में,
इस बात से बेपरवाह कि कहीं कोई उसका संदूक
तो नहीं चुरा ले जाएगा।
शायद इसलिए नहीं कि संदूक में चुराने लायक
कुछ नहीं रहा होगा,
यह असंवेदनशील ख़याल हमारी तरह के
लोगों को ही आ सकता है जो
पुराने पड़ गए कपड़ों और संदूकों को बेकार समझ कर
अपनी आत्मतुष्ट दया पर इतराते हुए
महरी या मजदूर या कबाड़ीवाले या चौकीदार
किसी को भी पकड़ा देते हैं।

हो सकता है, इस सोए हुए परिवार को
भी कहीं से मिला ही हो वह संदूक
और उसमें भी किसी के दिए हुए बेडौल कपड़े ही ठुंसे पड़े
हों कुछ पुराने बर्तनों और बहुत सहेजकर रखी गई कुछ चूड़ियों
और कुछ टूटे खिलौनों के बीच,
लेकिन इस विस्थापित समय में
यह उसकी सबसे मूल्यवान थाती है
उसका छूटा हुआ घर है
उसकी छूटी हुई याद है
बच्चों की अधनींदी आंखों की आखिरी चमकती उम्मीद है
घरवाली का ठहरा हुआ अपार धीरज है
और किसी मेहनतकश के न ख़त्म होने वाले सफ़र का इकलौता असबाब है
फिर भी यह परिवार इस संदूक को भूलकर
चादर के नीचे से सड़क किनारे की चुभती हुई रेत
पर ही नींद की गहरी सांसें ले आ रहा है
तो समझना चाहिए, वह बहुत दूर से पैदल चलकर आया है
इतना थका हुआ है कि उसकी थकान उसके पूरे वजूद पर,
उसकी सारी चिंताओं पर हावी है,
इस डर पर भी कि कोई अचानक आकर उसे उठा नहीं देगा।
यह सोचकर कलेजा मुंह को आता है
कि छोटे-छोटे बच्चों ने भी सूखी जीभ, डरी हुई आंखों
और जलते हुए पांवों के बीच यह सफर तय किया होगा।

लेकिन इतना क्यों सोच रहा हूं मैं इस परिवार के बारे में?
जिस राजधानी से मैं रोज़ गुज़रता हूं
उसकी कई सड़कों पर ऐसे सैकड़ों परिवार सोए होते हैं
उनके पास भी ऐसे ही संदूक होते होंगे, ऐसी ही चादरें
उनके नीचे रेत की यही चुभन होती होगी
और इतनी ही गहरी थकान
कि आती-जाती गाड़ियों के शोर
में भी वे सो लेते होंगे।
फिर क्यों अपनी सोसाइटी के बाहर अचानक
दिख गया यह परिवार मेरे भीतर इतनी करुणा जगा रहा है
कि पूरे परिवार को उठाकर कायदे का खाना खिलाकर कहीं ठीक से सुला
देने की बड़ी गहरी इच्छा जागती है
और जिसे दबाने की कोशिश में मैं
खुद को दबा हुआ और कातर महसूस करता हूं।
क्या इसलिए कि इस वक्त मैं पैदल चल रहा हूं
और मेरी आंखें आसपास देख पा रही हैं?
या इसलिए कि ठीक अपने पड़ोस में ऐसा पड़ोस
मुझे विचलित कर रहा है।

समझने की बात सिर्फ इतनी है कि
इस महानगर में रहते हुए
हम आंख मूंद कर ही जी पाते हैं।
तेज-तेज चलाते हैं गाड़ी, तेज-तेज़ करते हैं बहस,
घर या दफ़्तर या म़ॉल से निकल कर
तेज-तेज कदमों से पहुंचते हैं पार्किंग तक
और फिर चढ़ा लेते हैं शीशे
चला लेते हैं एसी और स्टीरियो
कि बाहर की धूल और ध्वनियां
शीशे पर सिर पटक कर लौट जाएं।
तेजी से चलाते हुए गाड़ी
इस तरह निकलते हैं, जैसे दुनिया के सबसे ज़रूरी काम
हमारे लिए ही छूटे पड़े हैं।
इन सबके बावजूद
ठीक अपनी सोसाइटी के बाहर
इत्मिनान से शुरू हो रही एक
रात की बेखबर चहलकदमी में
जब पेड़ के नीचे दिख जाता है कोई परिवार
गुडीमुडी सोया हुआ
कोई संदूक पेड़ से लगा हुआ,
कुछ मुड़े हुए पांवों को ढंकने में नाकाम चादर मुचड़ी हुई
तो लगता है, उस परिवार की गरीबी
हमारे मुंह पर थप्पड़ मार रही है।

कहां से आया है यह परिवार?
कितनी दूर चलकर?
क्या छोड़कर?
क्या सोचकर?
क्य़ा कुछ करने के इरादे से?
क्यों अपने घर और गांव छोड़कर चले आ रहे हैं
इतने सारे परिवार?
कौन है इनके विस्थापन का ज़िम्मेदार?

जानता हूं, जब नींद आने लगेगी,
ये सारे सवाल खत्म हो जाएंगे
नहीं सोचूंगा
कि महानगर की एक अनजानी सडक के किनारे
कैसे कटी होगी इस परिवार की रेतीली-चुभती हुई, पहली फटेहाल रात?
सुबह मर्द कहीं मजदूरी खोजेगा
औरत कहीं करेगी बर्तन-बासन
और बच्चे शुरू में शहर की नई गाड़ियों को
हैरानी और कौतूहल से देखेंगे
और फिर उन्हें पोछते-पोछते बडे हो जाएंगे।

Saturday, December 6, 2008

मुंबई के बाद

मुंबई पर हुए हमले के बाद क्या है मेरी प्रतिक्रिया?
किसी और ने नहीं, ये सवाल ख़ुद अपने-आप से मैंने किया।
और अपने को टटोलने की कोशिश की,
वहां कुछ हमदर्दी थी, कुछ अफसोस, कुछ डर और कुछ गुस्सा
इन सबसे ज़्यादा थी लेकिन हैरानी
कि आखिर किस पेशेवर ठंडेपन से मार डाले गए इतने सारे लोग।
चाहता तो आत्मदया में डूब सकता था,
कल्पना करते हुए कि मेरे शहर, मेरी सड़क, मेरी दुकान, मेरे घर तक
पहुंच आया ये आतंकवाद
किसी दिन मुझे ही रक्तरंजित न कर डाले।
उससे भी आसानी से ईमानदार होने का ढोंग करते हुए
बता सकता था, मेरे भीतर कुछ नहीं टूटा
मेरा जीवन पहले की तरह चलता रहा है।
वैसे कुछ सच इन दोनों बातों में भी है
अपने बचे होने की तसल्ली और एक दिन अपने मारे जाने की दहशत
शायद कहीं मेरे भीतर भी हो
और उससे भी ज़्यादा राहत
कि अभी मैं बचा हुआ हूं
हंसता-खिलखिलाता,
आतंकवाद पर अफसोस करता
अपनी व्यवस्था की नाकामी पर झुंझलाता
अपने नेताओं को गाली देता
अपने सुरक्षा बलों पर नाज़ करता।

लेकिन क्या करूं मुंबई का,
जो मेरे भीतर ग़म और गुस्सा तो जगाती है
वह छलछलाती हुई रुलाई पैदा नहीं करती
जिसमें सब कुछ बह जाए।
कभी कोई चोट खाई, सिहराती हुई कहानी आ जाती है
तो कुछ पल के लिए रोंगटे ज़रूर खड़े हो जाते हैं
लेकिन वह स्थायी दुख नहीं जागता जो मेरा सोना-जीना खाना-पीना हराम कर दे।

तो क्या मेरी मनुष्यता में है कुछ खोट?
कि सुनाई नहीं देती या फिर देर तक नहीं टिकती कोई चोट?
या मैं खुद घायल हूं
अपने अनजाने ज़ख़्मों को सहलाता, उनके साथ जीने की आदत डालता
अपने-आप में बंद
दूसरों की चोट से निस्पंद?

या फिर इस लहूलुहान दुनिया में हर तरफ इतनी हिंसा है,
इतनी दहशत है, तार-तार होती मनुष्यता के इतने सारे प्रमाण हैं
कि मुंबई की दहशत अपनी विराटता में तो डराती है
अपना दारुणता में झकझोरती नहीं?

या फिर जाने-अनजाने एक हिंसा का मैं भी शिकार हूं
वह हिंसा जो बड़ी सूक्ष्म होती है
जिसमें न हथगोले दिखते हैं न धमाके होते हैं,
बस कुछ कुतरता चलता है हमारी आत्माओं को, हमारे विश्वासों को
हमें सिर्फ देह में और संदेह में बदलता
जिसका मुझे पता नहीं चलता।
और फिर शिकार ही नहीं, हो सकता है, इस हिंसा का साझेदार होऊं
इसीलिए मुंबई मुझे डराती भी है तो दूसरी तरह से
वह मेरे भीतर नई हिंसा भरती है, प्रतिशोध की कामना भरती है,
फिर मैं भी खोजने लगता हूं निशाने
उसी खेल में शामिल हो जाता हूं जाने-अनजाने
हो सकता है
आप सबको यह एक कवि का बेमानी विलाप लगे
लेकिन मैं चाहता हूं, मुंबई से मेरे भीतर गुस्सा नहीं करुणा जगे।
क्योंकि जैसे हर ओर आतंक है, वैसे ही हर ओर मुंबई है
और यह एक ज्यादा बड़ी लड़ाई है जिसका वास्ता सिर्फ सीमा पार के प्रायोजित आतंकवाद से नहीं है
बल्कि सत्ताओं के दुष्चक्र और सरहदों के झूठ और समुदायों के पार जाकर
यह समझने की जरूरत से है कि क्या गलत है क्या सही है।

Monday, August 18, 2008

नष्ट कुछ भी नहीं होता

नष्ट कुछ भी नहीं होता,
धूल का एक कण भी नहीं,
जल की एक बूंद भी नहीं
बस सब बदल लेते हैं रूप

उम्र की भारी चट्टान के नीचे
प्रेम बचा रहता है थोड़ा सा पानी बनकर
और अनुभव के खारे समंदर में
घृणा बची रहती है राख की तरह

गुस्सा तरह-तरह के चेहरे ओढ़ता है,
बात-बात पर चला आता है,
दुख अतल में छुपा रहता है,
बहुत छेड़ने से नहीं,
हल्के से छू लेने से बाहर आता है,

याद बादल बनकर आती है
जिसमें तैरता है बीते हुए समय का इंद्रधनुष
डर अंधेरा बनकर आता है
जिसमें टहलती हैं हमारी गोपन इच्छाओं की छायाएं

कभी-कभी सुख भी चला आता है
अचरज के कपड़े पहन कर
कि सबकुछ के बावजूद अजब-अनूठी है ज़िंदगी
क्योंकि नष्ट कुछ भी नहीं होता
धूल भी नहीं, जल भी नहीं,
जीवन भी नहीं
मृत्यु के बावजूद








Monday, July 7, 2008

इतिहास में पन्ना धाय

मैं शायद तब सोया हुआ था
जब तुम मुझे अपनी बांहों में उठा कर
राजकुमार की शय्या तक ले गई मां,
हो सकता है, नींद के बीच यह विचलन
इस आश्वस्ति में फिर से नींद का हिस्सा हो गया हो
कि मैं अपनी मां की गोद में हूं
लेकिन क्या उस क्षणांश से भी छोटी, लेकिन बेहद गहरी यातना में
जिसमें हैरत और तकलीफ दोनों शामिल रही होगी,
क्या मेरा बदन छटपटाया होगा,
क्या मेरी खुली आंखों ने हमेशा के लिए बंद होने के पहले
तब तुम्हें खोजा होगा मां
जब बनवीर ने मुझे उदय सिंह समझ कर अपनी तलवार का शिकार बना डाला?

पन्ना धाय,
ठीक है कि तब तुम एक साम्राज्य की रक्षा में जुटी थी,
अपने नमक का फर्ज और कर्ज अदा कर रही थी
तुमने ठीक ही समझा कि एक राजकुमार के आगे
तुम्हारे साधारण से बेटे की जान की कोई कीमत नहीं है
मुझे तुमसे कोई शिकायत भी नहीं है मां
लेकिन पांच सौ साल की दूरी से भी यह सवाल मुझे मथता है
कि आखिर फैसले की उस घड़ी में तुमने
क्या सोच कर अपने बेटे की जगह राजकुमार को बचाने का फैसला किया?
यह तय है कि तुम्हारे भीतर इतिहास बनने या बनाने की महत्त्वाकांक्षा नहीं रही होगी
यह भी स्पष्ट है कि तुम्हें राजनीति के दांव पेचों का पहले से पता होता
तो शायद तुम कुछ पहले राजकुमार को बचाने का कुछ इंतज़ाम कर पाती
और शायद मुझे शहीद होना नहीं पड़ता।

लेकिन क्या यह संशय बिल्कुल निरर्थक है मां
कि उदय सिंह तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यारे रहे होंगे?
वरना जिस चित्तौ़ड़गढ़ का अतीत, वर्तमान और भविष्य तय करते
तलवारों की गूंज के बीच तुम्हारी भूमिका सिर्फ इतनी थी
कि एक राजकुमार की ज़रूरतें तुम समय पर पूरी कर दो,
वहां तुमने अपने बेटे को दांव पर क्यों लगाया?

या यह पहले भी होता रहा होगा मां,
जब तुमने मेरा समय, मेरा दूध, मेरा अधिकार छीन कर
बार-बार उदय सिंह को दिया होगा
और धीरे-धीरे तुम उदय सिंह की मां हो गई होगी?
कहीं न कहीं इस उम्मीद और आश्वस्ति से लैस
कि राजवंश तुम्हें इसके लिए पुरस्कृत करेगा?

और पन्ना धाय, वाकई इतिहास ने तुम्हें पुरस्कृत किया,
तुम्हारे कीर्तिलेख तुम्हारे त्याग का उल्लेख करते अघाते नहीं
जबकि उस मासूम बच्चे का ज़िक्र
कहीं नहीं मिलता
जिसे उससे पूछा बिना राजकुमार की वेदी पर सुला दिया गया।

हो सकता है, मेरी शिकायत से ओछेपन की बू आती हो मां
आखिर अपनी ममता को मार कर एक साम्राज्य की रक्षा के तुम्हारे फैसले पर
इतिहास अब भी ताली बजाता है
और तुम्हें देश और साम्राज्य के प्रति वफा़दारी की मिसाल की तरह पेश किया जाता है
अगर उस एक लम्हे में तुम कमज़ोर पड़ गई होती
तो क्या उदय सिंह बचते, क्या राणा प्रताप होते
और
क्या चित्तौड़ का वह गौरवशाली इतिहास होता जिसका एक हिस्सा तुम भी हो?

लेकिन यह सब नहीं होता तो क्या होता मां?
हो सकता है चित्तौड़ के इतिहास ने कोई और दिशा ली होती?
हो सकता है, वर्षों बाद कोई और बनवीर को मारता
और
इतिहास को अपने ढंग से आकार देता?
हो सकता है, तब जो होता, वह ज्यादा गौरवपूर्ण होता
और नया भी,
इस लिहाज से कहीं ज्यादा मानवीय
कि उसमें एक मासूम बेख़बर बच्चे का खून शामिल नहीं होता?

इतिहास का चक्का बहुत बड़ा होता है मां
हम सब इस भ्रम में जीते हैं
कि उसे अपने ढंग से मोड़ रहे हैं
लेकिन असल में वह हमें अपने ढंग से मोड़ रहा होता है
वरना पांच सौ साल पुराना सामंती वफ़ादारी का चलन
पांच हजार साल पुरानी उस मनुष्यता पर भारी नहीं पड़ता
जिसमें एक बच्चा अपनी मां की गोद को दुनिया की सबसे सुरक्षित
जगह समझता है
और बिस्तर बदले जाने पर भी सोया रहता है।

दरअसल इतिहास ने मुझे मारने से पहले तुम्हें मार डाला मां
मैं जानता हूं जो तलवार मेरे कोमल शरीर में बेरोकटोक धंसती चली गई,
उसने पहले तुम्हारा सीना चीर दिया होगा
और मेरी तरह तुम्हारी भी चीख हलक में अटक कर रह गई होगी
यानी हम दोनों मारे गए,
बच गया बस उदय सिंह, नए नगर बसाने के लिए, नया इतिहास बनाने के लिए
बच गई बस पन्ना धाय इतिहास की मूर्ति बनने के लिए।

Monday, April 21, 2008

कविता लिखते हुए

कविता लिखना आसान नहीं होता
लिखने से पहले अपने सोचने-देखने का ढंग बदलना पड़ता है
जैसे दुनिया पर पड़ी धूल गर्द झाड़कर उसे चमका रहे हों
ताकि उसको उसके महीन रंगों, उसकी असली चमक के साथ पहचान सकें।
कविता लिखने से पहले खुद को भी बदलना पड़ता है थोड़ा सा
तुम्हें कुछ देर की चुप्पी चाहिए
और वे सारी सुनी-अनसुनी आवाज़ें जो
आसपास बेआवाज़ सुनाई पड़ती रहती हैं
कहीं दूर बोलती चिड़िया
कहीं और दूर गु़ज़रती कोई गाड़ी
कहीं पास सब्ज़ी की पुकार लगाता कोई एक आदमी
कहीं और पास किसी खेलते हुए बच्चे की हंसी
कविता लिखते हुए अचानक तुम अपने आसपास की दुनिया के प्रति
सतर्क हो जाते हो, कुछ मुलायम और संवेदनशील
घास हो या आकाश, पेड़ हो या पत्थर
सबका छुपा स्पंदन, सबमें निहित चुप्पी
एकाएक जैसे तुम्हारे सामने खुलने लगते हैं
दुनिया जैसे एक नई आवाज़ में तुम्हें पुकारती लगती है
यह कोई जादू नहीं है,
बस अपने स्नायु तंत्र को कुछ जगा लेने का उद्यम है
अपनी आंख, अपने कान कुछ खोल लेने की कोशिश
ताकि तुम समेट, सुन देख सको अपने आसपास की सारी गंध, सारे स्वर, सारे दृश्य
ख़ासकर वे बेहद महीन, मद्धिम कण और फुसफुसाहटें
जो रोजमर्रा के शोर में गुम हो जाते हैं

कविता लिखना दुनिया को नए सिरे से देखना है
अपनी मनुष्यता को नए सिरे से पहचानना
इस पहचान में यह सवाल भी शामिल है
कि जब तुम कविता नहीं लिख रहे होते
तब भी दुनिया को इतनी मुलायम निगाहों से क्यों नहीं देख रहे होते?

कविता लिखना खुद को याद दिलाना है
कि सबसे पहले और आखिर में तुम मनुष्य हो
कि रोज़मर्रा का जो चाकू इस मनुष्यता को बार-बार छीलता और तार-तार करता है.
जो रोज़ तुम्हें कुछ कम मनुष्य रहने देता है
उसके विरुद्ध एक कवच का काम कर सकती है कविता।
इसकी इकलौती शर्त है कि इसे हमेशा सीने से लगाए रखो

लेकिन क्या यह आसान है
कविता को लगातार सीने से लगाए रखना
अपनी धुकधुकी के साथ महसूस करना?
इसकी भी चुकानी पड़ती है क़ीमत
इसकी भी डालनी पड़ती है आदत।

दरअसल कविता लिखते हुए ही समझ में आता है
कविता सिर्फ तब ही नहीं लिखी जा रही होती
जब तुम उसे कागज पर उतारते हो,
वह तब भी तुम्हारे भीतर बन रही होती है
जब तुम उससे पूरी तरह बेखबर होते हो।

Monday, March 17, 2008

40 का होने पर

कहने को यह बहुत ज़्यादा उम्र नहीं होती
और साहित्य या राजनीति की दुनिया में तुम युवा ही कहलाते हो
लेकिन फिर भी चालीस साल का हो जाने के बाद
बहुत सारी चीजें ये बताने वाली निकल आती हैं
कि अब तुम युवा नहीं रहे।
उदाहरण के लिए तुम्हारे सफेद होते बाल
जो तुम्हारी कनपटियों से सरकते हुए दाढ़ी का भी हिस्सा हो जाते हैं
उदाहरण के लिए वे रिश्तेदार, जिन्होंने तुम्हें कभी बचपन या जवानी में देखा है
और तुम्हारी उम्र का यह पड़ाव देखकर
कुछ भावुक या अभिभूत हैं
कि अरे, तुम्हारे इतने सारे बाल सफ़ेद हो गए!
उदाहरण के लिए बरसों बाद मिली साथ पढ़ने वाली लड़की
जिसकी ढली हुई उम्र में तुम वह नौजवान और बेसुध करने वाली खिलखिलाहट
ढूढ़ने की कोशिश करते हो
जो पूरे दिन को खुशनुमा बना दिया करती थी
और अब जिसकी हांफती हुई दिनचर्या के बीच बची हुई सुंदरता के खंडहर में
तुम अपनी युवावस्था का खंडहर देखते हो
उदाहरण के लिए दफ़्तर के वे साथी
जिनकी चुहल तुम्हें बार-बार बताती है
अब तुम युवा नहीं रहे
धीरे-धीरे तुम याद करते हो
तुममें वह अतिरेकी भावुकता नहीं बची है
जिसने तुम्हारी जिंदगी के कई बरस तुमसे लिए
हालांकि तुम्हें याद रखने लायक कई लम्हे भी दिए
न ही वह स्वप्नशीलता बची हुई है
जिसके साथ कई नामुमकिन ख़्वाब नामुमकिन भरोसों के साथ तुम्हारे भीतर पलते रहे
अब तुम सयाने हो गए हो
ज़िंदगी की सपाट सड़क पर चलने के आदी,
भटकावों का बेमानीपन ख़ूब समझने लगे हो
और
किसी के काम आने की अपनी सीमाएं भी।
अब पहले की तरह हर काम के लिए निकल नहीं पड़ते
रंगमंच से राजनीति तक
और साहित्य से सिनेमा तक
अपनी यायावर दिनचर्या के बीच तुकतान बिठाने की बेलौस कोशिश करते हुए
हालांकि ध्यान से देखने पर तुम पाते हो
कि इस बदले हुए सरोकार की वजह तुम्हारे सयानेपन से कहीं ज़्यादा
तुम्हारे नए अभ्यास में है
वरना अक्सर पुरानी प्यास तुम्हें
अपने आगोश में लेना चाहती है
अक्सर पुराने ख्वाब तुम्हारी नींद में चले आते हैं
अक्सर तुम वह सब करना, नए सिरे से पाना और खोना
चाहते हो
जो तुम उम्र की किसी पुरानी सड़क पर छोड़ आए हो
जहां तुम्हारी छोटी-छोटी इच्छाओं के ढूह अब तक बाकी हैं
तुम हल्के से मुस्कुराते हो
पहचानते हो कि इस मुस्कुराहट में एक उदासी भी शामिल है
वह सब न कर पाने की कचोट भी
जिसके लिए तुमने अपनी ज़िंदगी के कई साल कभी होम किए
तुम अपनी आसपास की अस्त-व्यस्त दिनचर्या पर नज़र डालते हो
महसूस करते हुए कि कितना मज़बूत जाल तुमने अपने ही चारों तरफ
बुन लिया है
तुम आईना देखते हो
फिर से अपना चेहरा पहचानने की कोशिश में
और उसमें वह पुरानापन खोजने की चाहत में
जो तुम कभी थे
और हार कर अपने लिखने की मेज पर चले आते हो

Wednesday, December 12, 2007

जीने के साधन

बढ़ते जा रहे हैं जीने के साधऩ
सिकुड़ती जा रही है जीने की जगह
सांस भी लो तो हवा का वजन महसूस होता है
पानी गले से नीचे उतरता है जेब पर भारी पड़ता है

अनगिनत आवाज़ें हैं
लेकिन सुनाई बहुत कम पड़ता है
और उससे भी कम समझ में आता है
रोशनी बहुत है लेकिन दूर तक देखना मुश्किल

बिल्कुल अंधेरा समय इस धरती से जैसे उठता जा रहा है
और इसी के साथ गुम हुई जा रही है
काले आसमान में बिछी सितारों की झिलमिल चादर
हालांकि रोज़ खोजे जा रहे हैं नए ग्रह-उपग्रह, चांद और नक्षत्र
आकाश के किसी अदृश्य अछोर में
दो विराट आकाशगंगाओं का नृत्य इंसान की सबसे बडी दूरबीन
का सबसे दिलकश नजारा है
जिसमें झरते हैं लाखों सितारों के चूरे

लेकिन इनका एक भी कण धरती के करीब नहीं फटकता
वह इंसान और सामान से भरी एक ऐसी उदास जगह
में बदलती जा रही है
जहां बेआवाज टहलती हैं अकेली इच्छाएं
जो बहुत सारी खरीददारी के बीच, बहुत सारे रुपए खर्च कर देने के बावजूद
और बहुत सारे साधन जुटा लेने की कामयाबी पर भी
अधूरी रह जाती हैं

दिन कामनाओं और कामयाबी की एक न खत्म होने वाली सड़क पर भागते गुजरता है
शामें इस रफ़्तार में कब कुचल दी जाती हैं, पता भी नहीं चलता
और
रात को उनींदी थकी आंखें
सपनों के धूसर बिंबों के बीच आने वाले दिनों के डरों का सामना करती हैं
और घबरा कर जाग जाती हैं
कि एक और सुबह उनके सामने सवाल की तरह खड़ी है।

Sunday, December 9, 2007

तोड़ना और बनाना

बनाने में कुछ जाता है
नष्ट करने में नहीं
बनाने में मेहनत लगती है. बुद्धि लगती है, वक्त लगता है
तो़ड़ने में बस थोड़ी सी ताकत
और थोड़े से मंसूबे लगते हैं।
इसके बावजूद बनाने वाले तोड़ने वालों पर भारी पड़ते हैं
वे बनाते हुए जितना हांफते नहीं,
उससे कहीं ज्यादा तोड़ने वाले हांफते हैं।
कभी किसी बनाने वाले के चेहरे पर थकान नहीं दिखती
पसीना दिखता है, लेकिन मुस्कुराता हुआ,
खरोंच दिखती है, लेकिन बदन को सुंदर बनाती है।

लेकिन कभी किसी तोड़ने वाले का चेहरा
आपने ध्यान से देखा है?
वह एक हांफता, पसीने से तर-बतर बदहवास चेहरा होता है
जिसमें सारी दुनिया से जितनी नफरत भरी होती है,
उससे कहीं ज्यादा अपने आप से।

असल में तोड़ने वालों को पता नहीं चलता
कि वे सबसे पहले अपने-आप को तोड़ते हैं
जबकि बनाने वाले कुछ बनाने से पहले अपने-आप को बनाते हैं।
दरअसल यही वजह है कि बनाने का मुश्किल काम चलता रहता है
तोड़ने का आसान काम दम तोड़ देता है।

तोड़ने वालों ने बहुत सारी मूर्तियां तोड़ीं, जलाने वालों ने बहुत सारी किताबें जलाईं
लेकिन बुद्ध फिर भी बचे रहे, ईसा का सलीब बचा रहा, कालिदार और होमर बचे रहे।
अगर तोड़ दी गई चीजों की सूची बनाएं तो बहुत लंबी निकलती है
दिल से आह निकलती है कि कितनी सारी चीजें खत्म होती चली गईं-
कितने सारे पुस्तकालय जल गए, कितनी सारी इमारतें ध्वस्त हो गईं,
कितनी सारी सभ्यताएं नष्ट कर दी गईं, कितने सारे मूल्य विस्मृत हो गए

लेकिन इस हताशा से बड़ी है यह सच्चाई
कि फिर भी चीजें बची रहीं
बनाने वालों के हाथ लगातार रचते रहे कुछ न कुछ
नई इमारतें, नई सभ्यताएं, नए बुत, नए सलीब, नई कविताएं
और दुनिया में टूटी हुई चीजों को फिर से बनाने का सिलसिला।

ये दुनिया जैसी भी हो, इसमें जितने भी तोड़ने वाले हों,
इसे बनाने वाले बार-बार बनाते रहेंगे
और बार-बार बताते रहेंगे
कि तोड़ना चाहे जितना भी आसान हो, फिर भी बनाने की कोशिश के आगे हार जाता है।

Thursday, November 29, 2007

कविता की जगह

सच है कि अकेली कविता बहुत कुछ नहीं कर सकती
हमारे समय में लड़ाइयों के जितने मोर्चे खुले हुए हैं
और वार करने की जितनी नई तरकीबें लोगो के पास हैं
खुद को बचाने के जितने सारे कवच-
उन सबको देखते हुए कविता एक निरीह सी कोशिश जान पड़ती है
एक ऐसी कोशिश जिस पर बहुत सारे हंसते हैं
और जिसका बहुत सारे अपने पक्ष में इस्तेमाल करते हैं।
कविता अब न किसी को डराती है
न किसी को जगाती है
वह न मिसाल बन सकती है न मशाल
ज्यादा से ज्यादा वह है एक ऐसा खयाल
जो आपको खुश करे तसल्ली दे
जिसे आप अपने बचे रहने की
तार-तार हो चुके सबूत की तरह देखें

यह भी सच है कि हमारा ज्यादातर समय कविता के बिना बीतता है
हमारी ज्यादातर लड़ाइयों में कविता काम नहीं आती
कई बार वह एक अनुपयोगी अनुषंग की तरह बची लगती है
जो डार्विन के विकासवाद के मुताबिक
सिकुड़ती-छीजती जा रही है
यह कह देना अहसास से कहीं ज्यादा चलन का मामला है
कि इसके बावजूद वह बची रहेगी
देती रहेगी दस्तक हमारी अंतरात्मा के बंद दरवाज़ों पर
कि किसी फुसफुसाहट की तरह नई हवाओ में भी हमें पुराने दिनों की याद दिलाती रहेगी
हमें हमसे मिलाती रहेगी
लेकिन सच्चाई यह है कि धीरे-धीरे जैसे ईश्वर की, वैसे ही कविता की भी
जगह घटती ही जा रही है जीवन में
ईश्वर से पैदा हुआ शून्य कविता भरती है
कविता से पैदा हुआ शून्य कौन भरेगा?
क्या कविता नहीं रहेगी तो
हमारा होना एक ब्लैकहोल में, किसी बुझे हुए सितारे की राख की तरह बचा रहेगा?
इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं, आपके पास हो तो हो
फिलहाल तो मैं बस इतना चाहता हूं कि मैं बना रहूं
और मुझमें मेरी कविताएं बनी रहें।

Wednesday, November 28, 2007

आग

अपने लिखने पर बहुत भरोसा रहा हमें
एक भोला भरोसा
जो एक कमजोर सी कलम के बूते देखता रहा दुनिया बदलने का सपना
जबकि दुनिया हमें बदलती रही
उसने हमारे लिए कलमें बनाईं
उनका मोल लगाया
उसने हमारी आग को अपनी धमन भट्ठियों के लिए इस्तेमाल किया
उसने हमारे हुनर से अपने घर सजाए
उसने हमारे ऊपर सुविधाओं का पानी डाला
हम पहले धुआं हुए, कुछ की आंखों में गड़े
फिर राख हुए
समाधिलेख की सामग्री बने
वैसे हमें बुझाने के और भी आसान तरीके सामने आ गए
लोगों ने पहले हमारा जादू देखा
फिर इस जादू का बिखरना देखा
हम बंद हो गए एक माचिस की डिबिया में
हम छोटी-छोटी तीलियों में बदल गए
बस इतने से आश्वस्त और खुश
कि हमारे भीतर बची हुई है आग
कि थोड़ी सी रगड़ से वह दिखा सकती है अपना कमाल
कि अब भी उसमें कहीं भी जल उठने, कुछ भी जला देने की क्षमता है
लेकिन माचिस की डिब्बी में बंद ये तीलियां
यह तक नहीं देख पाईं
कि वे किन पाकशालाओं, किन जेबों के हवाले हैं
और
किनका चूल्हा चलाने, किनकी सिगरेट जलाने में
उनका इस्तेमाल हो रहा है।
हम आग थे, हममें जलने की संभावनाएं थीं
हममें बदलने की संभावनाएं थीं
लेकिन हमने हवाओं से मुंह छुपाया
दिशाओं से पाला बदला
कुछ भी देखने से इनकार किया
ये भी नहीं देखा
जिसे हमें मशाल समझते रहे
वह तीली-तीली सिमटती गई
बडी उपमाओं के नीचे बनते रहे छोटे-छोटे यथार्थ
ध्यान से देखें तो जिनमें दिखेगी एक अट्टाहासी कामयाबी
आग को जीतकर ही इंसान ने सभ्यता बनाई
आग को गुलाम रखकर ही वह अपनी इस सभ्यता को बचा रहा है।