Sunday, December 14, 2008

जब मां आई

जाने के १४ साल बाद मां आई
मैंने पूछा, अब तबीयत तो ठीक रहती है
वह मेरे साथ रसोई में काम करती रही
शाम को टहलने भी निकली

मैं छुपा रहा था वे रचनाएं वे लेख
जिनमें उसकी बीमारी और मौत का ज़िक्र था
मैंने पूछा, तुम्हें पता है, मेरी किताब छपी. मेरा एक बेटा है
उसे पता था
हम बहुत देर तक साथ रहे,
उसने बताया, उसे रात साढे नौ उसे नींद आने लगती है
न जाने किस शहर का जिक्र वह करती रही
मुझे लगता रहा वह सिर्फ मेरे बारे में सोच रही है
अपनी परेशानी, अपनी बीमारी और अपनी मौत से

यह आठ दिसंबर की सुबह का सपना था
जब आंख खुली
तो लगा, ऐसी उजली, ऐसी मुलायम ऐसी शांत सुबह
तो जीवन में कभी आई ही नहीं।

Saturday, December 6, 2008

मुंबई के बाद

मुंबई पर हुए हमले के बाद क्या है मेरी प्रतिक्रिया?
किसी और ने नहीं, ये सवाल ख़ुद अपने-आप से मैंने किया।
और अपने को टटोलने की कोशिश की,
वहां कुछ हमदर्दी थी, कुछ अफसोस, कुछ डर और कुछ गुस्सा
इन सबसे ज़्यादा थी लेकिन हैरानी
कि आखिर किस पेशेवर ठंडेपन से मार डाले गए इतने सारे लोग।
चाहता तो आत्मदया में डूब सकता था,
कल्पना करते हुए कि मेरे शहर, मेरी सड़क, मेरी दुकान, मेरे घर तक
पहुंच आया ये आतंकवाद
किसी दिन मुझे ही रक्तरंजित न कर डाले।
उससे भी आसानी से ईमानदार होने का ढोंग करते हुए
बता सकता था, मेरे भीतर कुछ नहीं टूटा
मेरा जीवन पहले की तरह चलता रहा है।
वैसे कुछ सच इन दोनों बातों में भी है
अपने बचे होने की तसल्ली और एक दिन अपने मारे जाने की दहशत
शायद कहीं मेरे भीतर भी हो
और उससे भी ज़्यादा राहत
कि अभी मैं बचा हुआ हूं
हंसता-खिलखिलाता,
आतंकवाद पर अफसोस करता
अपनी व्यवस्था की नाकामी पर झुंझलाता
अपने नेताओं को गाली देता
अपने सुरक्षा बलों पर नाज़ करता।

लेकिन क्या करूं मुंबई का,
जो मेरे भीतर ग़म और गुस्सा तो जगाती है
वह छलछलाती हुई रुलाई पैदा नहीं करती
जिसमें सब कुछ बह जाए।
कभी कोई चोट खाई, सिहराती हुई कहानी आ जाती है
तो कुछ पल के लिए रोंगटे ज़रूर खड़े हो जाते हैं
लेकिन वह स्थायी दुख नहीं जागता जो मेरा सोना-जीना खाना-पीना हराम कर दे।

तो क्या मेरी मनुष्यता में है कुछ खोट?
कि सुनाई नहीं देती या फिर देर तक नहीं टिकती कोई चोट?
या मैं खुद घायल हूं
अपने अनजाने ज़ख़्मों को सहलाता, उनके साथ जीने की आदत डालता
अपने-आप में बंद
दूसरों की चोट से निस्पंद?

या फिर इस लहूलुहान दुनिया में हर तरफ इतनी हिंसा है,
इतनी दहशत है, तार-तार होती मनुष्यता के इतने सारे प्रमाण हैं
कि मुंबई की दहशत अपनी विराटता में तो डराती है
अपना दारुणता में झकझोरती नहीं?

या फिर जाने-अनजाने एक हिंसा का मैं भी शिकार हूं
वह हिंसा जो बड़ी सूक्ष्म होती है
जिसमें न हथगोले दिखते हैं न धमाके होते हैं,
बस कुछ कुतरता चलता है हमारी आत्माओं को, हमारे विश्वासों को
हमें सिर्फ देह में और संदेह में बदलता
जिसका मुझे पता नहीं चलता।
और फिर शिकार ही नहीं, हो सकता है, इस हिंसा का साझेदार होऊं
इसीलिए मुंबई मुझे डराती भी है तो दूसरी तरह से
वह मेरे भीतर नई हिंसा भरती है, प्रतिशोध की कामना भरती है,
फिर मैं भी खोजने लगता हूं निशाने
उसी खेल में शामिल हो जाता हूं जाने-अनजाने
हो सकता है
आप सबको यह एक कवि का बेमानी विलाप लगे
लेकिन मैं चाहता हूं, मुंबई से मेरे भीतर गुस्सा नहीं करुणा जगे।
क्योंकि जैसे हर ओर आतंक है, वैसे ही हर ओर मुंबई है
और यह एक ज्यादा बड़ी लड़ाई है जिसका वास्ता सिर्फ सीमा पार के प्रायोजित आतंकवाद से नहीं है
बल्कि सत्ताओं के दुष्चक्र और सरहदों के झूठ और समुदायों के पार जाकर
यह समझने की जरूरत से है कि क्या गलत है क्या सही है।