Saturday, September 4, 2010

जलेबी और चाकू

किसी गर्म, कुरमुरी, जायकेदार जलेबी को मुंह में रखने
और उसे गप कर जाने से पहले उसकी खुशबू और उसके रस का पूरा आनंद
लेने के बीच क्या आपने ध्यान दिया है कि
हमारी भाषा कैसे-कैसे बेख़बर अत्याचार करती है?
अगर किसी को आप जलेबी जैसा सीधा कहते हैं
तो ये उसके टेढ़ेपन पर व्यंग्य भरी टिप्पणी होती है
जबकि सच्चाई यह है कि अपने रूपाकार को छोड़कर- जिसमें उसका
अपना कोई हाथ नहीं है- वह वाकई सीधी होती है।
पहले रस को अपने भीतर घुलने देती है
और फिर बड़ी आसानी से मुंह के भीतर घुल जाती है
जो थोड़ा बहुत कुरमुरापन रहता है, वह उसका जायका ही बढ़ाता है।
कभी चाव से जलेबी खाते हुए और कभी दिल्लगी में दूसरों से अपने जलेबी जैसा
सीधा होने की तोहमत सुनते हुए अक्सर मुझे लगता है
कि वह भाषा भी कितनी सतही होती है जो बाहरी रूप देखकर
किसी से सीधे या टेढे होने का ऐसा नतीजा तय कर देती है जो घिस-घिस कर मुहावरे में बदल जाता है।
लेकिन यह नादानी है या सयानापन है?
कि लोग जलेबी को टेढा बताते हैं?
यह जानते हुए कि वह कुछ बिगाड़ नहीं सकती
आम तौर पर बाकी पकवानों की तरह हाजमा भी ख़राब नहीं कर सकती।
अगर सिर्फ आकार-प्रकार से तय होना हो
कौन सीधा है, कौन टेढ़ा
तो सीधा-सपाट चाकू कहीं ज्यादा मासूम लगेगा जो
सीधे बदन में धंस सकता है
और जलेबी बेचारी टेढ़ी लगेगी जो टूट-टूट कर
हमारे मुंह में घुलती रहती है।
लेकिन जलेबी और चाकू का यह संयोग सिर्फ सीधे-टेढ़े के फर्क को बताने के लिए नहीं चुना है
यह याद दिलाने के लिए भी रखा है कि
जलेबी मुंह में ही घुलेगी, चाकू से नहीं कटेगी
और चाकू से जलेबी काटना चाहें
तो फिर किसी और को काटने के पहले चाकू को चाटने की इच्छा पैदा होगी।
यानी चाकू जलेबी को नहीं बदल सकता
जलेबी चाकू को बदल सकती है
हालांकि यह बेतरतीब लगने वाला तर्क इस तथ्य की उपेक्षा के लिए नहीं बना है
कि जलेबी हो या चाकू- दोनों का अपना एक चरित्र है
जिसे हमें पहचानना चाहिए
और कोशिश करनी चाहिए कि हमारा रिश्ता चाकू से कम, जलेबी से ज्यादा बने।
लेकिन कमबख्त यह जो भाषा है
और यह जो दुनिया है
वह जलेबी को टेढ़ेपन के साथ देखती है, उसका मजाक बनाती है
और
सीधे सपाट चाकू के आगे कुछ सहम जाती है।