Tuesday, April 29, 2008

टैगोर हिल

एक खड़खड़ाती साइकिल याद आती है
एक सूना मैदान
दो पांव पैडल मारते हुए
कैरियर में दबी दो किताबें
और किसी रंगीन चादर की तरह बिछा हुआ एक पूरा शहर
जिस पर किसी शरारती बच्चे की तरह धमा चौकड़ी मचाते
घूमा करते थे हम
ठीक है कि यह नॉस्टैल्जिया है
ठीक है कि अपने पुराने शहर, पुराने घर और पुराने प्रेम पर
सैकड़ों-हजारों नहीं, लाखों कविताएं लिख और छोड़ गए हैं कवि
यानी मैं ऐसा कुछ नया नहीं कर रहा
जिस पर गुमान करूं, जिसे अनूठा बताऊं
लेकिन कोई तो बात है
कि जब भी कुछ लिखने बैठता हूं
वे पुराने दिन आकर जैसे कलम छीन लेना चाहते हैं
उन संवलाए पठारों के कालातीत पत्थर
कुछ इस तरह पुकारते हैं
जैसे उनकी हजारों या लाखों बरस की
उम्र का एक-एक लम्हा उनकी छाती में दर्ज हो
एक-एक कदम के निशान, एक-एक आहट की आवाज़
और उनकी तहों में दबा कोई कागज फड़फड़ाता हुआ बताता हो
कि उनके पास मेरे भी कुछ लम्हे बकाया हैं
कुछ सांसें, कुछ स्पंदन,
और अब वे यह सारा कर्ज सूद समेत वापस लेना चाहते हों
जबकि मैं बेखबर,
मुझे ठीक से पता भी न था
कि इन बेजान लगते पहाड़ों की इतनी गाढ़ी स्मृति होती है
कि इन पत्थरों के भीतर भी होता है याद का वह हिलता हुआ जल
जो कभी मुझे याद दिला जाएगा मेरा बीता हुआ कल
मैं तो बस रामकृष्ण मिशन की लाइब्रेरी से निकलता
और अनजाने चला जाता
टैगोर हिल के ऊपर बनी उस छतरीनुमा संरचना के नीचे
जहां से सूरज का डूबना जितना सुंदर लगता था
उतना ही बादलों का बिखरना भी।
तब मुझे क्या पता था कि
बीता हुआ बीतता नहीं लौट कर आता है
कि पुराने पत्थरों की बेआवाज़ दुनिया
सारी आवाजों, सारी निशानियों को बचाए रखती है
और ठीक उसी वक़्त सामने आकर खड़ी हो जाती है
जब आप भविष्य के आईने में अपनी शक्ल खोजना चाहते हैं
और पाते हैं कि यह शीशा तो अतीत के फ्रेम में कसा हुआ है।

Monday, April 21, 2008

कविता लिखते हुए

कविता लिखना आसान नहीं होता
लिखने से पहले अपने सोचने-देखने का ढंग बदलना पड़ता है
जैसे दुनिया पर पड़ी धूल गर्द झाड़कर उसे चमका रहे हों
ताकि उसको उसके महीन रंगों, उसकी असली चमक के साथ पहचान सकें।
कविता लिखने से पहले खुद को भी बदलना पड़ता है थोड़ा सा
तुम्हें कुछ देर की चुप्पी चाहिए
और वे सारी सुनी-अनसुनी आवाज़ें जो
आसपास बेआवाज़ सुनाई पड़ती रहती हैं
कहीं दूर बोलती चिड़िया
कहीं और दूर गु़ज़रती कोई गाड़ी
कहीं पास सब्ज़ी की पुकार लगाता कोई एक आदमी
कहीं और पास किसी खेलते हुए बच्चे की हंसी
कविता लिखते हुए अचानक तुम अपने आसपास की दुनिया के प्रति
सतर्क हो जाते हो, कुछ मुलायम और संवेदनशील
घास हो या आकाश, पेड़ हो या पत्थर
सबका छुपा स्पंदन, सबमें निहित चुप्पी
एकाएक जैसे तुम्हारे सामने खुलने लगते हैं
दुनिया जैसे एक नई आवाज़ में तुम्हें पुकारती लगती है
यह कोई जादू नहीं है,
बस अपने स्नायु तंत्र को कुछ जगा लेने का उद्यम है
अपनी आंख, अपने कान कुछ खोल लेने की कोशिश
ताकि तुम समेट, सुन देख सको अपने आसपास की सारी गंध, सारे स्वर, सारे दृश्य
ख़ासकर वे बेहद महीन, मद्धिम कण और फुसफुसाहटें
जो रोजमर्रा के शोर में गुम हो जाते हैं

कविता लिखना दुनिया को नए सिरे से देखना है
अपनी मनुष्यता को नए सिरे से पहचानना
इस पहचान में यह सवाल भी शामिल है
कि जब तुम कविता नहीं लिख रहे होते
तब भी दुनिया को इतनी मुलायम निगाहों से क्यों नहीं देख रहे होते?

कविता लिखना खुद को याद दिलाना है
कि सबसे पहले और आखिर में तुम मनुष्य हो
कि रोज़मर्रा का जो चाकू इस मनुष्यता को बार-बार छीलता और तार-तार करता है.
जो रोज़ तुम्हें कुछ कम मनुष्य रहने देता है
उसके विरुद्ध एक कवच का काम कर सकती है कविता।
इसकी इकलौती शर्त है कि इसे हमेशा सीने से लगाए रखो

लेकिन क्या यह आसान है
कविता को लगातार सीने से लगाए रखना
अपनी धुकधुकी के साथ महसूस करना?
इसकी भी चुकानी पड़ती है क़ीमत
इसकी भी डालनी पड़ती है आदत।

दरअसल कविता लिखते हुए ही समझ में आता है
कविता सिर्फ तब ही नहीं लिखी जा रही होती
जब तुम उसे कागज पर उतारते हो,
वह तब भी तुम्हारे भीतर बन रही होती है
जब तुम उससे पूरी तरह बेखबर होते हो।