दुख
एक
कुछ दुख बेहद बोलते हुए
होते हैं
कुछ छूट जाने का दुख
कुछ प्राप्त न कर पाने का
दुख
कभी-कभी अपमान सहने का दुख
और इस पर भी चुप रहने का
दुख
कभी-कभी दूसरों के उपहास का
दुख
ख़ुद को सही न समझे जाने का
दुख
किसी मोड़ पर अकेले प़ड
जाने का दुख
किसी मोड़ पर किसी से छले जाने
का,
किसी के छोड़ दिए जाने का
दुख
और सबसे बड़ा ज़िंदगी को
व्यर्थ जिए जाने का दुख।
दो
कुछ दुख बेहद चुपचाप होते
हैं
वे कभी-कभी हलक में अटक
जाते हैं,
अनमनेपन में उलझ जाते हैं
कभी-कभी तो मुस्कान में भी
छुप जाते हैं
वे नींद में आते हैं दबे
पांव
किन्हीं पुराने दिनों की
यादों के साथ
जो किन्हीं नए दिनों के
अंदेशों से बंधी होती हैं
ये दुख अपना पता नहीं बताते
वे लंबे समय की टीस से बने
थके हुए दुख होते हैं
वे हड्डियों की पोरों में
बसे दुख होते हैं
वे आंखों की कालिमा में
धंसे दुख होते हैं
कोई पूछता भी है तो आप नहीं
कह सकते
कि आपको कोई दुख है
और है तो किस बात का है
कई बार आप ख़ुद से भी पूछ
बैठते हैं
इतना दुख किस बात का है
और उदासी-उलझन-अनमनेपन के
बीच खोजते रहते हैं अपने दुख का धागा।
तीन
कुछ दुख अनायास चले आते हैं
जैसे वे घात में बैठे हों
और जब खुशियां आपका माथा
सहला रही हों
आपके छाला लगे पांवों पर
मलहम लगा रही हों
यह तसल्ली दे रही हों कि
सबकुछ ठीक है सुंदर है
किसी कांटे की तरह पांवों
में चुभ जाते हैं
गजब ये है कि तकलीफ का बहता
हुआ रक्त
तब आप किसी को दिखा भी नहीं
सकते
आप जानना चाहते हैं, कब से
छुपा बैठा था ये दुख
आप जानना चाहते हैं, क्यों
अचानक याद आया आपके सुख का हत्यारा यह दुख
कि आप अपने पीछे-पीछे और
पीछे जाते हैं
कि कोई छूटी हुई पीड़ा सिर
उठाती है
याद दिलाती है कि उस दुख को
छोड़कर जो भी सुख होगा नकली होगा
उस दुख को पहचानोगे, तभी यह
सुख भी आत्मा का विहंसता हुआ हिस्सा होगा.
न जाने कितने छुपे हुए
दुखों की पोटली लेकर चलते हैं हम
और ज़िंदगी की किसी शाम को
कैसे उस पोटली से निकल कर
गिर पड़ता है कोई दुख
उसे उठाने के लिए, गले से
लगाने के लिए, फिर से पोटली में बांधने के लिए
कभी-कभी झुकना पड़ता है,
रुकना पड़ता है और अपने को फिर से देखना पड़ता है।
चार
कुछ दुख हमसे बात भी करते
हैं
उनकी पनीली आंखें
हमारे कातर चेहरों पर टिकी
होती हैं
उनके भुरभुरे हाथ हमारे
अनमने कंधों पर पड़े होते हैं।
वे बंधाते हैं धीरज,
भरोसा दिलाते हुए कि वे देर
तक नहीं रहेंगे
चले जाएंगे जल्दी।
कुछ दुख हो जाते हैं इतने
आत्मीय
कि उनके बिना अपना भी वजूद
लगता है आधा-अधूरा।
पांच
कुछ दुख लौट-लौट कर आते हैं
हमेशा दुख की तरह नहीं, दुख
की याद की तरह
जिसमें दरअसल एक तरह का सुख
छुपा होता है
इस तसल्ली के जुड़ा कि
बेवफ़ा नहीं निकले दुख,
वादा निभाया और छोड़कर चले
गए।
इन छूटे हुए दुखों से हम
हंस कर मिलते हैं।
अचरज करते हुए कि हमने ही
झेले थे ये दुख
उनके प्रति कृतज्ञ होते हुए
कि ये दुख न होते
तो न सुख आता, न सुख का मोल
ही समझ में आता,
उन्हें धन्यवाद देते हुए कि
दुखों ने जितना तोड़ा, उतना जोड़ा भी
वरना सुख का यह अकेलापन तो
काटने दौड़ता है।