कुछ दिन पहले हमारी सोसाइटी में चोरी हुई। एक आवासीय परिसर में २४ घंटे की चौकीदारी के बावजूद चोरी हो जाए, ये एक बड़ी बात है- इससे भी बड़ी बात यह कि चोरी पत्रकारों की सोसाइटी में हुई। उन लोगों के यहां, जो मानते हैं कि उनका चोर तो क्या पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती। बहरहाल, इसके बाद चोर पकड़ने की कवायद शुरू हुई। पुलिस वालों ने आकर पहले चौकीदारों को थप्पड़ लगाए। उसके बाद बताया कि ऐसी चोरी किसी भीतरी आदमी की मदद के बिना नहीं हो सकती।
इस तर्क से बहुत सारे लोग सहमत थे- खुद मैं भी। सवाल यह उठा कि यह भीतरी आदमी कौन हो सकता है? सबसे पहले नज़र गई उन चौकीदारों पर, जिन्हें पता था कि किन-किन फ्लैट्स में लोग बाहर गए हैं। इसके बाद उन बाहरी लोगों पर, जो सोसाइटी में काम करने आते हैं- यानी कामवालियां, धोबी, बढ़ई और वे मजदूर जो अलग-अलग फ्लैट्स में मरम्मत या बचे-खुचे काम के लिए आते जाते हैं या कुछ दिन से रह रहे हैं।
इस संभावना पर किसी ने विचार नहीं किया कि क्या सोसाइटी में रहने वाला कोई शख्स भी इस चोरी के पीछे हो सकता है। इसकी वजहें भी साफ थीं। खुद मेरा भी मानना है कि सोसाइटी में रहने वाला कोई आदमी ऐसी चोरी में शरीक नहीं हो सकता। जो रहते हैं, वे पढ़े-लिखे लोग हैं, ज़्यादातर पत्रकार हैं। उनके पास इतने साधन हैं कि वे चोरी न करें। वैसे उन पर शक न करने की वजहें और भी रही होंगी। जैसे अपने साथ रहने वालों पर शक किया जाए तो इसमें कुछ अपनी संकीर्णता भी झांकती है। दूसरी बात यह कि जो रह रहे हैं, वे अपनी तरह से ताकतवर भी हैं। यानी पुलिस उन्हें उस तरह थप्पड़ या डंडे नहीं मार सकती, जिस तरह किसी बढ़ई, मजदूर या धोबी को मार सकती है।
बहरहाल, पुलिस सोसाइटी के दो चौकीदारों और चार मजदूरों को पकड़ कर ले गई। सोसाइटी वाले आश्वस्त और संतुष्ट हुए कि चोरी तो पकडी जाएगी। जिन सज्जन के यहां चोरी हुई, वे भी सक्रिय थे। उन्होंने चौकीदारों का इतिहास निकाल लिया जो अपने-आप में काफी संदिग्ध था। मसलन, उनमें से एक को पहले भी एक सोसाइटी से निकाला जा चुका था। यही नहीं, वह रात में कहीं और भी काम करता था। सबसे बड़ी बात यह कि उस चौकीदार के परिवार वालों के बयान कई मामलों में गलत साबित हुए।
शक की यह सूई चोर पकड़ने और उसे साबित करने के लिए पर्याप्त थी। इसके बाद पुलिस को बस चोर की धुनाई करनी थी कि वह बता दे कि माल उसने कहां छुपा रखा है। लेकिन यहीं कुछ मुश्किल आ गई। सोसाइटी के कुछ पुराने लोगों और जागरूक पत्रकारों को यह लग रहा था कि चोर तो पकड़ा जाए, लेकिन इस कवायद में बेगुनाह लोगों के साथ बदसलूकी न हो। इसके अलावा यह सवाल भी कहीं टीस रहा था कि दिन-रात मानवाधिकारों का सवाल उठाते हम लोग सिर्फ शक की बिना पर कुछ लोगों को कितने दिनों तक पुलिस के हवाले छोड़ सकते हैं। कानून बताता है कि अदालत में पेश किए बिना पुलिस किसी को चौबीस घंटे से ज्यादा नहीं रख सकती। जबकि चोरी के संदेह में गिरफ्तार ये छह लोग तीन दिन पुलिस हिरासत में रहे। पता चला, पूछताछ करने वाले इंस्पेक्टर को बाहर जाना पड़ा। अपने एक-एक घंटे का हिसाब रखने वाले पत्रकारों ने लेकिन पुलिसवालों से नहीं पूछा कि छह गरीब लोगों के तीन दिन उन्होंने हवालात में क्यों कटने दिए। इन तीन दिनों में इनके घरों में क्या हुआ होगा, इसका हमें पता नहीं। हम बस मोटा अंदाजा लगा सकते हैं कि हो सकता है, इनमें से कुछ के घर चूल्हा भी न जला हो। किसी दूर-दराज के इलाके से आए और दिहाड़ी कमाकर गुजारा करने वाले इन बेघरबार लोगों को पता चले कि उनका कमाऊ सदस्य चोरी के आरोप में जेल में है तो वह किस डर या अंदेशे से घिरा होगा- इसका बस अंदाजा लगाया जा सकता है। या हो सकता है, यह मेरी मध्यवर्गीय भावुक सोच हो जिसका पाला पहले ऐसे संकटों से नहीं पड़ा है। जबकि इन गरीबों को अक्सर अपनी बेगुनाही को लेकर ऐसे इम्तिहानों से गुजरना पड़ता हो, कुछ दिनों की जेल या फाकाकशी झेलनी होती हो। कहा जा सकता है कि पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार नहीं किया था, बस पूछताछ के लिए ले गई थी। लेकिन लोगों के लिए बस इतना तथ्य काफी है कि चोरी के मामले में पुलिस इन्हें पकड़ कर ले गई। अब ये दाग आने वाले सालों में इनका पीछा करता रहेगा और फिर किसी सोसाइटी में चोरी होगी तो याद दिलाया जाएगा कि इन लोगों को पहले भी पुलिस पकड़ कर ले जा चुकी है।
मैं इस अनुमान से इनकार नहीं करता कि इनमें कोई चोर हो सकता है। आखिर चोरी हुई है और चौकीदारों की मिलीभगत नहीं तो लापरवाही साबित है। निश्चित तौर पर इस अंदेशे में भी साझेदार हूं कि अगर चोर न पकड़ा गया तो आने वाले दिनों में चोरी की कुछ और घटनाएं हो सकती हैं। इस बात का भी हामी हूं कि जिन चौकीदारों ने लापरवाही की, उन्हें बाहर होना चाहिए। लेकिन मेरी आपत्ति चोर पकड़ने और खोजने के तरीके को लेकर है। जिस दिन चोरी की बात खुली, उस दिन हर कमजोर या गरीब आदमी संदिग्ध हो उठा। बाहर से आकर काम करने वाले मजदूरों और मिस्त्रियों की शामत आ गई। उनके औजार चेक किए गए, उनसे सख्ती से पूछताछ की गई और अगर कोई हकलाता दिखा तो थप्पड़ भी लगाए गए। ये स्थिति बन ही नहीं पाई कि कोई मजदूर सीना तानकर बोल सके कि उसे इस तरह अपमानित करने का हक़ किसी को नहीं है। वरना यह अपमान पिटाई तक चला जाता।
चोर अब तक नहीं पकड़ा गया है। पुलिस चोर पकड़ने के जो तरीके जानती है, उनमें कई लोगों की पिटाई शामिल है जो कुछ लोगों की इच्छा के बावजूद मुमकिन नहीं हुई। जिनके घर चोरी हुई, उन्हें यह जायज मलाल है कि उनकी ताकत और कोशिश के बावजूद चोर अब तक फरार है, और यह शिकायत भी कि यह सोसाइटी के कुछ लोगों के दखल की वजह से हुआ है। दखल देने वालों में मैं नहीं हूं, लेकिन पकड़े गए लोगों के प्रति हमदर्दी जताने का गुनहगार मैं भी हूं, यह बोध मुझे कुछ कचोटता और डराता दोनों है। बहरहाल, इस अधूरे किस्से को लिखने का मतलब सिर्फ यह बताना है कि हम जब चोर पकड़ने निकलते हैं तो हमारे भीतर छुपे कई चोर दिखने लगते हैं। हम किसी को उसके गुनाह की नहीं, उसकी गरीबी और कमजोरी की सजा देने लगते हैं। हमारी सोसाइटी में दाखिल होने वाले चोर पकड़े जाएं, यह जरूरी है, लेकिन उतना ही यह जरूरी है कि हम अपने भीतर छुपे चोर की शिनाख्त कर सकें।
Thursday, March 13, 2008
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2 comments:
Dont know but sure i cant beat or support for beating any poor person. Need to rule out these faults.
बेवजह किसी को पीटना ठीक नहीं
पर हिंदुस्तानी पुलिस का चोर पकडने का यही तरीका है।
बचपन में एक जोक सुना था
कौनसे देश की पुलिस सर्वश्रेष्ठ है यह तय करने के लिए भारत, चीन, जापान और अमेरिका की पुलिस के बीच मुकाबला था। एक बडे अपराधी को 24 घंटे में पकडना था। कोई यह नहीं कर पाया पर बाकी सब 24 घंटे में लौट आए।
भारतीय पुलिस नहीं लौटी। जजेज देखने गए कि भारतीय पुलिस कहां है।
जज हक्के बक्के देखो तो सामने एक पुलिसवाला बंदर को पेड से बांधकर पीट रहा है और कह रहा है।
कबूल कर कि, तू ही वो अपराधी है।
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