दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय के एक छोटे से कमरे में उपस्थित युवा चेहरों को देखकर मुझे तसल्ली से ज़्यादा अंदेशा हुआ- क्या ‘चक दे इंडिया’ या ‘तारे ज़मीं पर’ जैसी चमकदार मुंबइया फिल्मों के आदी इन लड़कों को संजय काक की करीब सवा दो घंटे लंबी डॉक्युमेंटरी अपने साथ रख पाएगी? एक ऐसी डॉक्युमेंटरी, जिसमें अलग से कोई कहानी नहीं है, कोई नायक नहीं है और एक ऐसा पेचीदा यथार्थ है जिसका गड्डमड्ड इतिहास-भूगोल जैसे लगातार बदलता, और हाथ और दिमाग से फिसलता मालूम होता है?
लेकिन ‘जश्ने आज़ादी’ शुरू हुई तो सारे अंदेशे पीछे छूट गए। उस कमरे की रंगहीन सफेद दीवार पर उभरती तसवीरों और आवाज़ों के कोलाज में दीवार खो गई, कमरा खो गया और कमरे में पर्याप्त उजाले के बावजूद वे चेहरे खो गए जो फिल्म देखने इकट्ठा थे। धीरे-धीरे खुलता रहा कश्मीर नाम की उस वादी का सच, जिसमें आजादी एक छलने वाला शब्द है। यह एक नुचा-चिंथा कश्मीर है, जहां गिरती हुई बर्फ के फाहों के बीच एक पिता कब्रगाह में अपने बेटे की कब्र खोज रहा है- वह एचके, यानी हिज़्बुल मुजाहिद्दीन का कमांडर था, मारा गया। पिता ईद के दिन आया है, ताकि उसके नाम भी दुआ पढ़ सके। इस कश्मीर में लोग इस तरह मारे गए लोगों की गिनती कर रहे हैं जैसे वे कुछ खोए हुए सामान याद कर रहे हों। इस कश्मीर में एक छोटी सी लड़की अपने सामने हुई मुठभेड़ का हवाला देते-देते घबरा सी जा रही है। इस कश्मीर में अपने खोए हुए बच्चे की तस्वीर लेकर घूमते उसके घरवाले हैं। इस कश्मीर में अपने दिलों पर दहशत के निशान लिए जी रही बच्चियां ख्वाबों में अपने मर रहे पिता को देखती हैं। इन सबके बीच अमरनाथ यात्रा पर आया हुआ एक साधु कश्मीर की तरफ आंख उठाकर देखने वालों की आंख निकाल लेने की धमकी देता है।
नहीं, यह कोई भावनाओं को उभारने वाली फिल्म नहीं है। संजय काक ने शायद प्रयत्नपूर्वक खुद को इस आसान रास्ते से अलग रखा है। ये सारे दृश्य आपको खोजने पड़ते हैं- यह समझने के लिए कि वह कौन सी चीज़ है जो इस सपाट लगती फिल्म में आपको फिर भी बेचैन बनाए रखती है, जो आपको भावुक होकर कुछ देर बाद फिल्म को भूल जाने का मौका नहीं देती। इस तलाश में आप जब सूने लाल चौक पर तिरंगा फहराते और जन-गण-मन गाते भारतीय सैनिकों या फिर पूरे जोर-शोर से आजा़दी का नारा उछालते हुजूम के पीछे झांकते हैं तब इन चेहरों पर आपकी नज़र पड़ती है। तब आपको कश्मीर के सन्नाटे या शोर के पीछे की वह कारुणिकता, वह त्रासदी दिखाई पड़ती है जिसमें जले हुए घर हैं, सूखे हुए ख़ून सी सूख चुली रुलाइयां हैं और ताजा गिरे खून को साफ करने की नाकाम सी कोशिश है।
संजय काक न ज़्यादा दिखाते हैं न ज़्यादा बोलते हैं। वे स्थितियों और चरित्रों को बोलने देते हैं। कश्मीर की बेहद दिलकश झील के ऊपर तैरती है एक कवि की आवाज़- खोए हुए ज़मानों और ठिकानों को अपने सोज़, अपनी तकलीफ़ के साथ सहेजती आवाज़। इस तकलीफ के आसपास वे फूहड़ सैलानी निगाहें भी हैं जिनके लिए कश्मीर बस एक फिसलती हुई बर्फ या एक ख़ूबसूरत बाग़ है। इन सैलानियों की चीखती हुई आवाज़ें बताती हैं कि यह कश्मीर तो स्विट्जरलैंड से भी सुंदर है। सैलानियों के अलावा सैनिक हैं- कहीं अनाथ हुए बच्चों का स्कूल चलाते, कहीं ट्रांजिस्टर बांटते और ये वादा करते कि और भी अच्छी-अच्छी चीजें आएंगी और सबको मिलेंगी। पूरी फिल्म में कदम-कदम पर अंतर्विरोधों का यह जाल आपके पांव रोकता है, कई बार लगता है, अब ये फिल्म खत्म हो।
लेकिन फिल्म खत्म हो जाने के बाद भी ख़त्म नहीं होती। एक विशुद्ध राजनीतिक फिल्म होते हुए भी इसका राजनीतिक पाठ आसान नहीं है। सिर्फ इतना दिखाई पड़ता है कि सात लाख सैनिकों से भरे इस कश्मीर में अब भी गणतंत्र दिवस सन्नाटे के साथ मनाना पड़ता है और स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में भी सुरक्षा का अभेद्य घेरा खड़ा करना पड़ता है। दूसरी तरफ जब भी सेना द्वारा तथाकथित मुठभेड़ में मारे गए किसी लडके की मय्यत निकलती है तो जैसे वह कश्मीर की आजादी के लिए निकाले गए जुलूस में तबदील हो जाती है। जाहिर है, भारत की वर्चस्ववादी राजनीति और सैन्य नीति के खिलाफ कश्मीर का गुस्सा सारे दमन के बावजूद कायम है।
हालांकि फिल्म इतिहास और वर्तमान को लेकर कई सवाल खड़े करती है। संजय काक कश्मीरियों के संघर्ष को पांच सौ साल की गुलामी से जोड़कर देखते हैं। इसमें एक तरह का अवांछित सरलीकरण चला आता है जिसमें वह विडंबना आसानी से समझ में नहीं आती जो १९४७ के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच झूल रहे कश्मीर के समाज और राजनीति में पैदा हुई है। दूसरी बात यह कि जिस कश्मीरियत की बात बार-बार की जाती है, उसे यह फिल्म परिभाषित करने की कोशिश नहीं करती। अगर करती तो यह बात शायद ज़्यादा खुलकर आती कि पहचानों की कोई एक परिभाषा नहीं होती, उनकी कई परतें होती हैं और कश्मीरियत भी ऐसी कई परतों से मिलकर बनी चीज है।
बहरहाल, संजय को न सवाल खड़े करने की फ़िक्र है न जवाब खोजने की जल्दी। न ही कोई कहानी बुनने की कोशिश उनमें दिखती है। वे गड्डमड्ड तारीखों और जगहों के बीच हमें वह कश्मीर दिखाते हैं जहां बीस साल में १८,००० से ज्यादा लोगों ने जान गंवाई है, उन कब्रिस्तानों में ले चलते हैं जहां लोग नाम और चेहरों से नहीं, नंबरों से पहचाने जाते हैं। इस पूरी फिल्म में कोई कश्मीरी पंडित नहीं दिखता- और संजय इसे भी कश्मीर के उस खालीपन की तरह पेश करते हैं जिस पर लोगों का ध्यान जाना चाहिए- एक पेंटिंग में खाली छूटी उस जगह की तरह, जो पेंटिंग को फिर भी अर्थ देती है।
शायद इसी तटस्थता के कारण फिल्म न कहीं शुरू होती है, न कहीं खत्म होती है। वह जैसे चलती रहती है- ख़त्म हो जाने के बाद भी। दिल्ली विश्वविद्यालय के उस कमरे में फिल्म के खत्म होते-होते बैठे हुए लडकों की तादाद अचानक बढ चुकी थी और उनके पास ढेर सारे सवाल थे। कश्मीर का बेहद मुश्किल यथार्थ समझने की कोशिश में पूछे गए सवाल, फिल्म की राजनीति और तटस्थता से जुड़े सवाल। इन सवालों के बीच साफ था कि ‘जश्ने आज़ादी’ अपने मक़सद में कामयाब रही है- वह दूर से छूती है और बिना अहसास कराए बहुत भीतर तक उतर जाती है। ये एक बड़ी कामयाबी है।
Tuesday, March 11, 2008
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3 comments:
प्रियदर्शन जी जश्न ऐ आजादी को जानकर अच्छा लगा, इसे कहा से देखा जा सकता है?
Rajesh Roshan
लेख पढ़ा । शायद यह फिल्म यह भी बता रही हो कि कैसे स्वर्ग को नर्क बनाया जा सकता है । हममें से बहुत से अपनी अपनी ओर से इस प्रयास में लगे हैं ।
घुघूती बासूती
वक्त के साथ भले ही सब कुछ बदलता नज़र आ रहा हो लेकिन अभी भी बहुत कुछ है जिस पर आज का भारतीय युवा (ख़ासकर अध्ययनरत मध्यम वर्ग)गंभीर है। उसकी फिक्र केवल ख़ुद के लिए ही नहीं बल्कि अपने आसपास के समाज के लिए भी है। और एसा तबका देश की आधी आबादी का भी आधा नहीं तो चौथाई से कम भी नहीं,इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मेरा मानना है कि जश्ने आज़ादी के संदेश को ये युवा वर्ग ही दूसरों तक पहुँचाएगा, पर शर्त केवल ये है कि संजय काक की इस फिल्म का संदेश जागरूक युवाओं तक जरूर पहुँचे जिसके लिए एसे निर्देशकों , जागरूक बौद्धिक लोगों और आप की तरह मंशा रखने वालों को इन युवाओं को सही दिशा में रौशनी दिखाते रहना होगा। ब्लाग की दुनिया में नया हूँ पर विचार के धरातल पर नहीं, य़ुवा होने के नाते जो भी कहा है अपने अनुभवों के आधार पर है।
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