Tuesday, August 11, 2015

दुख

एक

कुछ दुख बेहद बोलते हुए होते हैं
कुछ छूट जाने का दुख
कुछ प्राप्त न कर पाने का दुख
कभी-कभी अपमान सहने का दुख
और इस पर भी चुप रहने का दुख
कभी-कभी दूसरों के उपहास का दुख
ख़ुद को सही न समझे जाने का दुख
किसी मोड़ पर अकेले प़ड जाने का दुख
किसी मोड़ पर किसी से छले जाने का,
किसी के छोड़ दिए जाने का दुख
और सबसे बड़ा ज़िंदगी को व्यर्थ जिए जाने का दुख।

दो

कुछ दुख बेहद चुपचाप होते हैं
वे कभी-कभी हलक में अटक जाते हैं,
अनमनेपन में उलझ जाते हैं
कभी-कभी तो मुस्कान में भी छुप जाते हैं
वे नींद में आते हैं दबे पांव
किन्हीं पुराने दिनों की यादों के साथ
जो किन्हीं नए दिनों के अंदेशों से बंधी होती हैं
ये दुख अपना पता नहीं बताते
वे लंबे समय की टीस से बने थके हुए दुख होते हैं
वे हड्डियों की पोरों में बसे दुख होते हैं
वे आंखों की कालिमा में धंसे दुख होते हैं
कोई पूछता भी है तो आप नहीं कह सकते
कि आपको कोई दुख है
और है तो किस बात का है
कई बार आप ख़ुद से भी पूछ बैठते हैं
इतना दुख किस बात का है
और उदासी-उलझन-अनमनेपन के बीच खोजते रहते हैं अपने दुख का धागा।

तीन


कुछ दुख अनायास चले आते हैं
जैसे वे घात में बैठे हों
और जब खुशियां आपका माथा सहला रही हों
आपके छाला लगे पांवों पर मलहम लगा रही हों
यह तसल्ली दे रही हों कि सबकुछ ठीक है सुंदर है
किसी कांटे की तरह पांवों में चुभ जाते हैं
गजब ये है कि तकलीफ का बहता हुआ रक्त
तब आप किसी को दिखा भी नहीं सकते
आप जानना चाहते हैं, कब से छुपा बैठा था ये दुख
आप जानना चाहते हैं, क्यों अचानक याद आया आपके सुख का हत्यारा यह दुख
कि आप अपने पीछे-पीछे और पीछे जाते हैं
कि कोई छूटी हुई पीड़ा सिर उठाती है
याद दिलाती है कि उस दुख को छोड़कर जो भी सुख होगा नकली होगा
उस दुख को पहचानोगे, तभी यह सुख भी आत्मा का विहंसता हुआ हिस्सा होगा.
न जाने कितने छुपे हुए दुखों की पोटली लेकर चलते हैं हम
और ज़िंदगी की किसी शाम को कैसे उस पोटली से निकल कर
गिर पड़ता है कोई दुख
उसे उठाने के लिए, गले से लगाने के लिए, फिर से पोटली में बांधने के लिए
कभी-कभी झुकना पड़ता है, रुकना पड़ता है और अपने को फिर से देखना पड़ता है।

चार

कुछ दुख हमसे बात भी करते हैं
उनकी पनीली आंखें
हमारे कातर चेहरों पर टिकी होती हैं
उनके भुरभुरे हाथ हमारे अनमने कंधों पर पड़े होते हैं।
वे बंधाते हैं धीरज,
भरोसा दिलाते हुए कि वे देर तक नहीं रहेंगे
चले जाएंगे जल्दी।
कुछ दुख हो जाते हैं इतने आत्मीय
कि उनके बिना अपना भी वजूद लगता है आधा-अधूरा।

पांच

कुछ दुख लौट-लौट कर आते हैं
हमेशा दुख की तरह नहीं, दुख की याद की तरह
जिसमें दरअसल एक तरह का सुख छुपा होता है
इस तसल्ली के जुड़ा कि बेवफ़ा नहीं निकले दुख,
वादा निभाया और छोड़कर चले गए।
इन छूटे हुए दुखों से हम हंस कर मिलते हैं।
अचरज करते हुए कि हमने ही झेले थे ये दुख
उनके प्रति कृतज्ञ होते हुए कि ये दुख न होते
तो न सुख आता, न सुख का मोल ही समझ में आता,
उन्हें धन्यवाद देते हुए कि दुखों ने जितना तोड़ा, उतना जोड़ा भी
वरना सुख का यह अकेलापन तो काटने दौड़ता है।



Thursday, April 10, 2014

काश कि पहले लिखी जातीं ये कविताएं


एक


वह एक उजली नाव थी जो गहरे आसमान में तैर रही थी
चांदनी की झिलमिल पतवार लेकर कोई तारा उसे खे रहा था
आकाशगंगाएं गहरी नींद में थीं
अपनी सुदूर जमगग उपस्थिति से बेख़बर
रात इतनी चमकदार थी कि काला आईना बन गई थी
समय समय नहीं था एक सम्मोहन था जिसमें जड़ा हुआ था यह सारा दृश्य

यह प्रेम का पल था
जिसका जादू टूटा तो सारे आईने टूट गए।

दो

वह एक झील थी जो आंखों में बना करती थी
इंद्रधनुष के रंग चुराकर सपने अपनी पोशाक सिला करते थे
कामनाओं के खौलते समुद्र उसके आगे मुंह छुपाते थे
एक-एक पल की चमक में न जाने कितने प्रकाश वर्षों का उजाला बसा होता था
जिस रेत पर चलते थे वह दोस्त हो जाती थी
जिस घास को मसलते थे, वह राज़दार बन जाती थी
कल्पनाएं जैसे चुकती ही नहीं थीं
सामर्थ्य जैसे संभलती ही नहीं थी
समय जैसे बीतता ही नहीं था

वह भी एक जीवन था जो हमने जिया था

 तीन

वह एक शहर था जो रोज़ नए रूप धरता था
हर गली में कुछ बदल जाता, कुछ नया हो जाता
लेकिन हमारी पहचान उससे इतनी पक्की थी
कि उसके तिलिस्म से बेख़बर हम चलते जाते थे
रास्ते बेलबूटों की तरह पांवों के आगे बिछते जाते
न कहीं खोने का अंदेशा न कुछ छूटने का डर
न कहीं पहुंचने की जल्दी न किसी मंज़िल का पता
वे आश्वस्ति भरे रास्ते कहीं खो गए
वे अपनेपन के घर खंडहर हो गए
हम भी न जाने कहां आ पहुंचे
कभी ख़ुद को पहचानने की कोशिश करते हैं
कभी इस शहर को।

कुछ वह बदल गया
कुछ हम बीत गए।



Sunday, March 10, 2013

यह भी प्रेम कविताएं




एक
प्रेम को लेकर इतनी सारी धारणाएं चल पड़ी हैं
कि यह समझना मुश्किल हो गया है कि प्रेम क्या है।
एक धारणा कहती है, सबसे करो प्रेम
दूसरी धारणा बोलती है, बस किसी एक से करो प्रेम
तीसरी धारणा मानती है, प्रेम किया नहीं जाता हो जाता है
एक चौथी धारणा भी है, कि पहला प्रेम हमेशा बना रहता है
बशर्ते याद रह जाए कि कौन सा पहला था या प्रेम था।
पांचवीं धारणा है, प्रेम-व्रेम सब बकवास है, नज़रों का धोखा है।

अब वह शख्स क्या करे जिसे इतनी सारी धारणाएं मिल जाएं
और प्रेम न मिले?
या मिले तो वह प्रेम को पहचान न पाए?
या जिसे प्रेम माने, वह प्रेम जैसा हो, लेकिन प्रेम न निकले?

क्या वाकई जो प्रेम करते हैं वे प्रेम कविताएं पढ़ते हैं?
या सिर्फ प्रेम उनकी कल्पनाओं में होता है?
लेकिन कल्पनाओं में ही हो तो क्या बुरा है
आख़िर कल्पनाओं से भी तो बनती है ज़िंदगी
शायद ठोस कुछ कम होती हो, मगर सुंदर कुछ ज़्यादा होती है
और इसमें यह सुविधा होती है कि आप अपनी दुनिया को, अपने प्रेम को
मनचाहे ढंग से बार-बार रचें, सिरजें और नया कर दें।
हममें से बहुत सारे लोग जीवन भर कल्पनाओं में ही प्रेम करते रहे
और शायद खुश रहे
कि इस काल्पनिक प्रेम ने भी किया उनका जीवन समृद्ध।


दो

जो न ठीक से प्रेम कर पाए न क्रांति
वे प्रेम और क्रांति को एक तराजू पर तोलते रहे
बताते रहे कि प्रेम भी क्रांति है और क्रांति भी प्रेम है
कुछ तो यह भरमाते रहे कि क्रांति ही उनका पहला और अंतिम प्रेम है।
कविता को अंतिम प्रेम बताने वाले भी दिखे।

प्रेम के नाम पर शख्सियतें भी कई याद आती रहीं
मजनूं जैसे दीवाने और लैला जैसी दुस्साहसी लड़कियां
और इन दोनों से बहुत दूर खड़ा, शायद बेखबर भी,
अपना कबीर जो कभी राम के प्रेम में डूबा मिला
और कभी सिर काटकर प्रेम हासिल करने की तजबीज़ बताता रहा।
न जाने कितनी प्रेम कविताएं लिखी गईं, न जाने कितने प्रेमी नायक खड़े हुए
न जाने फिल्मों में कितनी-कितनी बार, कितनी-कितनी तरह से, कल्पनाओं के सैकड़ों इंद्रधनुषी रंग
लेकर रचा जाता रहा प्रेम।

लेकिन जिन्होंने किया, उन्होंने भी पाया
प्रेम का इतना पसरा हुआ रायता किसी काम नहीं आया
जब हुआ, हर बार बिल्कुल नया सा लगा
जिसकी कोई मिसाल कहीं हो ही नहीं सकती थी
जिसमें छुआ-अनछुआ
जो कुछ हुआ, पहली बार हुआ।


तीन
वे जो घरों को छोड़कर
दीवारों को फलांग कर
जातियों और खाप को अंगूठा दिखाकर
एक दिन भाग खडे होते हैं
वे शायद अपने सबसे सुंदर और जोखिम भरे दिनों में
छुपते-छुपाते कर रहे होते हैं
अपनी ज़िंदगी का सबसे गहरा प्रेम।
वे बसों, ट्रेनों होटलों और शहरों को अदलते-बदलते
इस उम्मीद के भरोसे दौड़ते चले जाते हैं
कि एक दिन दुनिया उन्हें समझेगी, उनके प्रेम को स्वीकार कर लेगी।
ये हमारे लैला-मजनूं, ये हमारे शीरीं फरहाद, ये हमारे रोमियो जूलियट
नहीं जानते कि वे सिर्फ प्रेम नहीं कर रहे
एक सहमी हुई दुनिया को उसकी दीवारों का खोखलापन भी दिखा रहे होते हैं
वे नहीं समझते कि उन दो लोगों का प्रेम
कैसे उस समाज के लिए ख़तरा है
जिसकी बुनियाद में प्रेम नहीं घृणा है, बराबरी नहीं दबदबा है,
साझा नहीं बंटवारा है।
वे तो बस कर रहे होते हें प्रेम
जिसे अपने ही सड़ांध से बजबजाती और दरकती एक दुनिया डरी-डरी देखती है
और जल्द से जल्द इसे मिटा देना चाहती है।


Sunday, September 23, 2012


कुछ झूठी कविताएं

एक
झूठ लिखूंगा अगर लिखूंगा कि कभी झूठ नहीं बोला
सच बोलने के लिए अब भी नहीं लिख रहा
यह समझने के लिए लिख रहा हूं
कि सच-झूठ के बीच किस तरह झूलता रहा हमारा कातर वजूद।
जीवन भर सच बोलने की शिक्षा और शपथ के बीच
कई फंसी हुई गलियां आईं जब झूठ ने ही बच निकलने का रास्ता दिया।
जब सच से आंख मिलाने का साहस नहीं हुआ तब झूठ ने ही उंगली पकड़ी और कहा, आगे चल।
यह झूठ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन नहीं है,
बस यह समझने की कोशिश है कि आखिर क्यों जी यह झूठी ज़िंदगी
क्या रस मिलता रहा इसमें?
या जैसे 24 कैरेट सोना ठोस नहीं हो पाता,
उसमें भी दो कैरेट करनी पड़ती है मिलावट
क्या कुछ वैसा ही है ज़िंदगी का माज़रा?
जो सच के धागों से बुनी होती है
लेकिन झूठ के फंदों में फंसी होती है?
या यह एक झूठा तर्क है
अपने जिए हुए को, अपने किए हुए को सही बताने का
झूठ को सच के सामने लाने का?

दो
सच बोलने के लिए जितना साहस चाहिए
झूठ बोलने के लिए उससे ज्यादा साहस चाहिए
आखिर पकड़े जाने का ख़तरा तो झूठ बोलने वाले को उठाना पड़ता है।
सच बोलने वाले को लगता है, सिर्फ वही सच्चा है
जबकि झूठ बोलने वाला जैसे मान कर चलता है, सब उसकी तरह झुठे हैं
इस लिहाज से देखें तो झूठ सच के मुकाबले ज़्यादा लोकतांत्रिक होता है।
सच इकहरा होता है, झूठ रंगीन
सच में बदलाव की गुंजाइश नहीं होती, झूठ में भरपूर लचीलापन होता है
कहते हैं, झूठ के पांव नहीं होते, लेकिन उसके पंख होते हैं
लेकिन कहते यह भी हैं
दलीलों की ज़रूरत झूठ को पड़ती है
सच को नहीं।

तीन
अक्सर बहुत ज़ोर से सच बोलने का दावा करने वाले
भूल जाते हैं कि सच क्या है
सच की दिक्कत यह है कि वह आसानी से समझ में नहीं आता
ज़िंदगी सच है या मौत?
अंधेरा सच है या रोशनी?
अगर दोनों सच हैं तो फिर दोनों में फ़र्क क्या है?
सच सच है या झूठ?
झूठ भी तो हो सकता है किसी का सच?
और ज़िंदगी के सबसे बड़े सच
सबसे नायाब झूठों की मदद से ही तो खुलते हैं।
पूरा का पूरा रचनात्मक साहित्य अंततः कुशल ढंग से बोला गया झूठ ही तो है
जो न होता तो ज़िंदगी के सच हमारी समझ में कैसे आते?
कायदे से सच को झूठ का आभारी होना चाहिए
झूठ है इसलिए सच का मोल है।

चार
झूठ है सबकुछ
झूठ है ज़िंदगी जिसे ख़त्म हो जाना है एक दिन
झूठ हैं रिश्ते जो ज़रूरत की बुनियाद पर टिके होते हैं
झूठ है प्यार, जो सिर्फ अपने-आप से होता है- दूसरा तो बस अपने को चाहने का माध्यम होता है
झूठ है अधिकार, जो सिर्फ होता है मिल नहीं पाता
झूठ है कविता- अक्सर भरमाती रहती है
झूठ हैं सपने- बस दिखते हैं होते नहीं
झूठ है देखना, क्योंकि वह आंखो का धोखा है
झूठ है सच, क्योंकि उसके कई रूप होते हैं
झूठ हैं ये पंक्तियां- इन्हें पढ़ना और भूल जाना।