Showing posts with label लेख. Show all posts
Showing posts with label लेख. Show all posts

Thursday, March 13, 2008

सोसाइटी में चोरी

कुछ दिन पहले हमारी सोसाइटी में चोरी हुई। एक आवासीय परिसर में २४ घंटे की चौकीदारी के बावजूद चोरी हो जाए, ये एक बड़ी बात है- इससे भी बड़ी बात यह कि चोरी पत्रकारों की सोसाइटी में हुई। उन लोगों के यहां, जो मानते हैं कि उनका चोर तो क्या पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती। बहरहाल, इसके बाद चोर पकड़ने की कवायद शुरू हुई। पुलिस वालों ने आकर पहले चौकीदारों को थप्पड़ लगाए। उसके बाद बताया कि ऐसी चोरी किसी भीतरी आदमी की मदद के बिना नहीं हो सकती।
इस तर्क से बहुत सारे लोग सहमत थे- खुद मैं भी। सवाल यह उठा कि यह भीतरी आदमी कौन हो सकता है? सबसे पहले नज़र गई उन चौकीदारों पर, जिन्हें पता था कि किन-किन फ्लैट्स में लोग बाहर गए हैं। इसके बाद उन बाहरी लोगों पर, जो सोसाइटी में काम करने आते हैं- यानी कामवालियां, धोबी, बढ़ई और वे मजदूर जो अलग-अलग फ्लैट्स में मरम्मत या बचे-खुचे काम के लिए आते जाते हैं या कुछ दिन से रह रहे हैं।
इस संभावना पर किसी ने विचार नहीं किया कि क्या सोसाइटी में रहने वाला कोई शख्स भी इस चोरी के पीछे हो सकता है। इसकी वजहें भी साफ थीं। खुद मेरा भी मानना है कि सोसाइटी में रहने वाला कोई आदमी ऐसी चोरी में शरीक नहीं हो सकता। जो रहते हैं, वे पढ़े-लिखे लोग हैं, ज़्यादातर पत्रकार हैं। उनके पास इतने साधन हैं कि वे चोरी न करें। वैसे उन पर शक न करने की वजहें और भी रही होंगी। जैसे अपने साथ रहने वालों पर शक किया जाए तो इसमें कुछ अपनी संकीर्णता भी झांकती है। दूसरी बात यह कि जो रह रहे हैं, वे अपनी तरह से ताकतवर भी हैं। यानी पुलिस उन्हें उस तरह थप्पड़ या डंडे नहीं मार सकती, जिस तरह किसी बढ़ई, मजदूर या धोबी को मार सकती है।
बहरहाल, पुलिस सोसाइटी के दो चौकीदारों और चार मजदूरों को पकड़ कर ले गई। सोसाइटी वाले आश्वस्त और संतुष्ट हुए कि चोरी तो पकडी जाएगी। जिन सज्जन के यहां चोरी हुई, वे भी सक्रिय थे। उन्होंने चौकीदारों का इतिहास निकाल लिया जो अपने-आप में काफी संदिग्ध था। मसलन, उनमें से एक को पहले भी एक सोसाइटी से निकाला जा चुका था। यही नहीं, वह रात में कहीं और भी काम करता था। सबसे बड़ी बात यह कि उस चौकीदार के परिवार वालों के बयान कई मामलों में गलत साबित हुए।
शक की यह सूई चोर पकड़ने और उसे साबित करने के लिए पर्याप्त थी। इसके बाद पुलिस को बस चोर की धुनाई करनी थी कि वह बता दे कि माल उसने कहां छुपा रखा है। लेकिन यहीं कुछ मुश्किल आ गई। सोसाइटी के कुछ पुराने लोगों और जागरूक पत्रकारों को यह लग रहा था कि चोर तो पकड़ा जाए, लेकिन इस कवायद में बेगुनाह लोगों के साथ बदसलूकी न हो। इसके अलावा यह सवाल भी कहीं टीस रहा था कि दिन-रात मानवाधिकारों का सवाल उठाते हम लोग सिर्फ शक की बिना पर कुछ लोगों को कितने दिनों तक पुलिस के हवाले छोड़ सकते हैं। कानून बताता है कि अदालत में पेश किए बिना पुलिस किसी को चौबीस घंटे से ज्यादा नहीं रख सकती। जबकि चोरी के संदेह में गिरफ्तार ये छह लोग तीन दिन पुलिस हिरासत में रहे। पता चला, पूछताछ करने वाले इंस्पेक्टर को बाहर जाना पड़ा। अपने एक-एक घंटे का हिसाब रखने वाले पत्रकारों ने लेकिन पुलिसवालों से नहीं पूछा कि छह गरीब लोगों के तीन दिन उन्होंने हवालात में क्यों कटने दिए। इन तीन दिनों में इनके घरों में क्या हुआ होगा, इसका हमें पता नहीं। हम बस मोटा अंदाजा लगा सकते हैं कि हो सकता है, इनमें से कुछ के घर चूल्हा भी न जला हो। किसी दूर-दराज के इलाके से आए और दिहाड़ी कमाकर गुजारा करने वाले इन बेघरबार लोगों को पता चले कि उनका कमाऊ सदस्य चोरी के आरोप में जेल में है तो वह किस डर या अंदेशे से घिरा होगा- इसका बस अंदाजा लगाया जा सकता है। या हो सकता है, यह मेरी मध्यवर्गीय भावुक सोच हो जिसका पाला पहले ऐसे संकटों से नहीं पड़ा है। जबकि इन गरीबों को अक्सर अपनी बेगुनाही को लेकर ऐसे इम्तिहानों से गुजरना पड़ता हो, कुछ दिनों की जेल या फाकाकशी झेलनी होती हो। कहा जा सकता है कि पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार नहीं किया था, बस पूछताछ के लिए ले गई थी। लेकिन लोगों के लिए बस इतना तथ्य काफी है कि चोरी के मामले में पुलिस इन्हें पकड़ कर ले गई। अब ये दाग आने वाले सालों में इनका पीछा करता रहेगा और फिर किसी सोसाइटी में चोरी होगी तो याद दिलाया जाएगा कि इन लोगों को पहले भी पुलिस पकड़ कर ले जा चुकी है।
मैं इस अनुमान से इनकार नहीं करता कि इनमें कोई चोर हो सकता है। आखिर चोरी हुई है और चौकीदारों की मिलीभगत नहीं तो लापरवाही साबित है। निश्चित तौर पर इस अंदेशे में भी साझेदार हूं कि अगर चोर न पकड़ा गया तो आने वाले दिनों में चोरी की कुछ और घटनाएं हो सकती हैं। इस बात का भी हामी हूं कि जिन चौकीदारों ने लापरवाही की, उन्हें बाहर होना चाहिए। लेकिन मेरी आपत्ति चोर पकड़ने और खोजने के तरीके को लेकर है। जिस दिन चोरी की बात खुली, उस दिन हर कमजोर या गरीब आदमी संदिग्ध हो उठा। बाहर से आकर काम करने वाले मजदूरों और मिस्त्रियों की शामत आ गई। उनके औजार चेक किए गए, उनसे सख्ती से पूछताछ की गई और अगर कोई हकलाता दिखा तो थप्पड़ भी लगाए गए। ये स्थिति बन ही नहीं पाई कि कोई मजदूर सीना तानकर बोल सके कि उसे इस तरह अपमानित करने का हक़ किसी को नहीं है। वरना यह अपमान पिटाई तक चला जाता।
चोर अब तक नहीं पकड़ा गया है। पुलिस चोर पकड़ने के जो तरीके जानती है, उनमें कई लोगों की पिटाई शामिल है जो कुछ लोगों की इच्छा के बावजूद मुमकिन नहीं हुई। जिनके घर चोरी हुई, उन्हें यह जायज मलाल है कि उनकी ताकत और कोशिश के बावजूद चोर अब तक फरार है, और यह शिकायत भी कि यह सोसाइटी के कुछ लोगों के दखल की वजह से हुआ है। दखल देने वालों में मैं नहीं हूं, लेकिन पकड़े गए लोगों के प्रति हमदर्दी जताने का गुनहगार मैं भी हूं, यह बोध मुझे कुछ कचोटता और डराता दोनों है। बहरहाल, इस अधूरे किस्से को लिखने का मतलब सिर्फ यह बताना है कि हम जब चोर पकड़ने निकलते हैं तो हमारे भीतर छुपे कई चोर दिखने लगते हैं। हम किसी को उसके गुनाह की नहीं, उसकी गरीबी और कमजोरी की सजा देने लगते हैं। हमारी सोसाइटी में दाखिल होने वाले चोर पकड़े जाएं, यह जरूरी है, लेकिन उतना ही यह जरूरी है कि हम अपने भीतर छुपे चोर की शिनाख्त कर सकें।

Thursday, October 11, 2007

नाचते गाते लोग

शादी-ब्याह के दिनों में समूचे उत्तर भारत की सड़कों पर एक दृश्य बेहद आम है। बैंड-बाजे के साथ कोई बारात धीरे-धीरे खिसक रही है और उसके आगे कुछ हिंदी फिल्मों की तेज़ धुनों पर बच्चे से बूढ़े तक- जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं- कूल्हे मटका कर, कमर हिलाकर, हाथ ऊपर-नीचे फेंक कर कुछ ऐसा कर रहे हैं जो उनके मुताबिक नाचना है। इस नाच में लड़के के मां-बाप, भाई-बहन, मित्र-परिजन- सभी शामिल होते हैं और जो शामिल नहीं होता, वह या तो अतिशय शर्मीला माना जाता है या फिर दूर का ऐसा रिश्तेदार, जिसके लिए यह शादी थिरकने का अवसर नहीं है। संभवतः महारानी विक्टोरिया के ज़माने की अजीबोगरीब अंग्रेज़ पोशाक पहन कर बैंड-पार्टी के ग़रीब शहनाई वाले 'बंबई से आया मेरा दोस्त' से लेकर 'ये देश है वीर जवानों का' तक की मोटी-कर्कश धुनें निकाला करते हैं और सिर पर ट्यूबलाइट ढो रही महिलाओं के बीच सूट-बूट पहने लोग नाच-नाच कर अपनी खुशी का इजहार करते रहते हैं।
सड़क का यातायात अस्त-व्यस्त कर देने वाले इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम को चिढ़ते और झुंझलाते हुए देखने का सौभाग्य हम सबको अक्सर मिलता रहता है। दरअसल यह सड़कनाच उत्तर भारत के मध्यवर्गीय समाजों में इन दिनों पसरी संस्कृतिविहीनता का सबसे नायाब नमूना है। यह वह समाज है, जिसमें बच्चों को संगीत और नृत्य की शिक्षा देने का आम तौर पर चलन नहीं है। गाने-बजाने का शौक अच्छी चीज नहीं समझा जाता है, नाचना तो ख़ैर बहुत दूर की चीज है। ऐसे में किसी को नाचना पड़ जाए तो वह हिंदी फिल्मों की नकल न करे तो क्या करे।
दरअसल मोटे तौर पर जो हिंदी भाषी समाज है, उसके लिए संस्कृति और मनोरंजन के मायने कभी सिनेमा हुआ करता था और अब इन दिनों उनमें टीवी आ जुड़ा है। संस्कृति की सारी सीख उसे यही दो माध्यम देते हैं। अचरज नहीं कि शास्त्रीय संगीत और नृत्य उसकी सांस्कृतिक परिभाषा में अजूबी चीज़ें हैं जिनकी ज्यादा से ज्यादा पैरोडी की जा सकती है। शब्दों की दुनिया में साहित्य उसे सुहाता नहीं, कविता उसे मोहती नहीं, आधुनिक चित्रकला तो खैर उसके लिए चुटकुला है। गीत-संगीत की उसकी सांस्कृतिक समझ उन फिल्मी गानों से बनती है जिनमें झोंपड़ी में चारपाई होती है और सोलह साल की लड़की सत्रह साल के लड़के को अपने दिल का हाल बताती है।
ऐसे में शादी-ब्याह के मौके पर उसे जब अपने उल्लास की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम चुनना होता है तो उसके पास उन फूहड़ नृत्यों की भौंडी नकल के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता जिनकी कुछ धुनें उसे याद रहती हैं। बल्कि यह अवसर उसके लिए वर्षों से संचित संकोच को तोड़ने का अवसर होता है। कई लोग जैसे शादी में शराब पीकर अपना अहं तुष्ट करते हैं, वैसे ही नाच कर भी खुद को तसल्ली दे देते हैं कि हां, उनमें अपनी खुशी जाहिर करने की कुव्वत बची हुई है। जो बहुत बूढी महिलाएं और जो वृद्ध पुरुष नाच नहीं पाते, वे किसी नाचने वाले के सिर पर कुछ रुपए घुमाते हुए बैंड वालों को थमाते हैं, जैसे वे भी अपने हिस्से का ज़रूरी सांस्कृतिक कर्त्तव्य पूरा कर रहे हों।
पहले ऐसे नृत्यों पर पुरुषों का एकाधिकार था। मगर इन वर्षों में महिलाओं ने इस एकाधिकार को तोड़ा है। वे भी साहस के साथ सड़क पर नाचती नज़र आती हैं। इनमें से कई ऐसी स्त्रियां होती होंगी जिन्होंने अपने बचपन और कैशोर्य में नृत्य या संगीत सीखने की इच्छा प्रगट की होगी और भाइयों और पिता से डांट सुनकर दिल को फिल्मी गीतों भर से बहला लिया होगा। ध्यान से देखिए तो ये सारे नाचते हुए स्त्री-पुरुष उल्लास मनाते नहीं दिखेंगे, बल्कि उनमें नाचने-गाने की जो इच्छा दबी रह गई उसे किसी तरह पूरा करने की हड़बड़ी दिखेगी।
मगर ध्यान से देखने लायक बात यहां दूसरी है। इस तरह नाचना क्या बताता है? यही कि समाजों के लिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति अपरिहार्य होती है। जो समाज अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां छोड़ देते हैं वे भी किसी शून्य में नहीं रह जाते। जीवन में उल्लास के और उदासी के भी ऐसे अवसर आते हैं जब मनुष्य और समाज उनको किसी माध्यम से व्यक्त करना चाहता है। जब संस्कृति बची नहीं रहती तो उसकी जगह अपसंस्कृति ले लेती है। यानी लोग नाचना-गाना तो चाहते हैं, मगर पाते हैं कि उन्हें यह आता नहीं या सिखाया नहीं गया। ऐसे में वे संस्कृति के नाम पर सिनेमा या टीवी द्वारा पेश किए जा रहे सतही और फूहड़ गीत-संगीत की उससे भी ज्यादा फूहड़ नकल कर सकते हैं और करते हैं।
अक्सर ऐसी बारातों में सड़कें एकाध घंटे जाम रह जाया करती हैं और उन पर न कोई झुंझलाता है और न नाराजगी व्यक्त करता है। भारतीय समाज के भीतर इस अनूठी सांस्कृतिकता ने जो अपनी सार्वभौमिक स्वीकृति बनाई है, यह उसी का प्रमाण है। हर किसी को मालूम है कि एक दिन वह भी किसी की बारात में शामिल होगा और सड़क पर नाचते हुए रास्ता जाम करेगा। आखिर हर किसी को अपने उल्लास को अभिव्यक्त करने का हक मिलना ही चाहिए। उत्तर भारतीय समाज ने इस अभिव्यक्ति के बाकी सारे माध्यम खो दिए हैं तो क्या हुआ। सड़कें बची हुई हैं और उन पर नाचने की छूट है।