Monday, May 19, 2008

रात

हालांकि अंधेरी होती है,
लेकिन रात फिर भी बहुत कुछ बताती है
रात न होती तो हमें मालूम न होता
कि आसमान कितनी दूरस्थ संभावनाओं से लैस
एक जगमग उपस्थिति है
हम सिर्फ सूरज की चुंधियाती रोशनी में
आते-जाते और छाते बादलों के रंग देखते
और फिर किसी सुबह या शाम
नाखून जैसे चांद को देखकर चिहुंक पड़ते
सितारों और आकाशगंगाओं से हमारा परिचय रात ने कराया है
हमारी बहुत सारी कल्पनाएं रात की काली चादर में चांद-सितारों
की तरह टंकी पड़ी हैं
हमारी बहुत सारी कहानियों की ओट में है रात
जो हमारी नींद पर अंधेरे की चादर डाल देती है
जो हमारे सपनों की रखवाली करती है
जो हमें अगली सुबह के लिए तैयार करती है
उसमें दिन वाला ताप और उसकी चमक-दमक भले न हो
एक छुपी हुई शीतल मनुष्यता है जो अंधेरे में भी महसूस की जा सकती है

ध्यान से देखो
तो रात हमारे जीवन की सबसे पुरानी बुढ़िया की तरह नज़र आती है
क्षितिज के एक छोर से दूसरे छोर तक अपने काले बाल पसारे
सुनाती हुई हमें एक कहानी
जो सभ्यता की पहली रात से जारी है
सोए-सोए हम कहानी में दाखिल हो जाते हैं
हम जिन्हें सपने कहते हैं
वे रात की सुनाई हुई कहानियां ही तो हैं
जो हर सुबह थम जाती हैं
और रात को नए सिरे से शुरू हो जाती हैं
सारे देवता, सारे राक्षस, सारे सिकंदर, सारे शहजादे सारी परियां
तरह-तरह के रूप धर इन कहानियों में चले आते हैं

दरअसल यह रात का जादू है
जो सबसे ज्यादा प्रकाश की साज़िश से परिचय कराता है
रात को देखकर ही समझ में आता है
हमेशा अंधेरा प्रकाश का शत्रु नहीं होता
प्रकाश भी प्रकाश का शत्रु होता है
बड़ा प्रकाश छोटे-छोटे प्रकाशों को छुपा लेता है
या करीब के प्रकाश में दूर के प्रकाश नहीं दीखते
सूरज की रोशनी मे जो सितारे खो जाते हैं
रात उन्हें जगाती है, हम तक ले आती है
रात को ठीक से समझो
तो हमेशा अंधेरे से डर नहीं लगेगा,
बल्कि समझ में आएगा
अंधेरे में भी छुपी रहती हैं प्रकाश की गलियां
और जिसे हम प्रकाश समझते हैं
उसमें भी बहुत अंधेरा होता है।

यही वजह है कि हमारी रातों मे जितनी रोशनी बढ़ती जा रही है
हमारे दिनों में उतना ही अंधेरा भी बढ़ता जा रहा है

Tuesday, April 29, 2008

टैगोर हिल

एक खड़खड़ाती साइकिल याद आती है
एक सूना मैदान
दो पांव पैडल मारते हुए
कैरियर में दबी दो किताबें
और किसी रंगीन चादर की तरह बिछा हुआ एक पूरा शहर
जिस पर किसी शरारती बच्चे की तरह धमा चौकड़ी मचाते
घूमा करते थे हम
ठीक है कि यह नॉस्टैल्जिया है
ठीक है कि अपने पुराने शहर, पुराने घर और पुराने प्रेम पर
सैकड़ों-हजारों नहीं, लाखों कविताएं लिख और छोड़ गए हैं कवि
यानी मैं ऐसा कुछ नया नहीं कर रहा
जिस पर गुमान करूं, जिसे अनूठा बताऊं
लेकिन कोई तो बात है
कि जब भी कुछ लिखने बैठता हूं
वे पुराने दिन आकर जैसे कलम छीन लेना चाहते हैं
उन संवलाए पठारों के कालातीत पत्थर
कुछ इस तरह पुकारते हैं
जैसे उनकी हजारों या लाखों बरस की
उम्र का एक-एक लम्हा उनकी छाती में दर्ज हो
एक-एक कदम के निशान, एक-एक आहट की आवाज़
और उनकी तहों में दबा कोई कागज फड़फड़ाता हुआ बताता हो
कि उनके पास मेरे भी कुछ लम्हे बकाया हैं
कुछ सांसें, कुछ स्पंदन,
और अब वे यह सारा कर्ज सूद समेत वापस लेना चाहते हों
जबकि मैं बेखबर,
मुझे ठीक से पता भी न था
कि इन बेजान लगते पहाड़ों की इतनी गाढ़ी स्मृति होती है
कि इन पत्थरों के भीतर भी होता है याद का वह हिलता हुआ जल
जो कभी मुझे याद दिला जाएगा मेरा बीता हुआ कल
मैं तो बस रामकृष्ण मिशन की लाइब्रेरी से निकलता
और अनजाने चला जाता
टैगोर हिल के ऊपर बनी उस छतरीनुमा संरचना के नीचे
जहां से सूरज का डूबना जितना सुंदर लगता था
उतना ही बादलों का बिखरना भी।
तब मुझे क्या पता था कि
बीता हुआ बीतता नहीं लौट कर आता है
कि पुराने पत्थरों की बेआवाज़ दुनिया
सारी आवाजों, सारी निशानियों को बचाए रखती है
और ठीक उसी वक़्त सामने आकर खड़ी हो जाती है
जब आप भविष्य के आईने में अपनी शक्ल खोजना चाहते हैं
और पाते हैं कि यह शीशा तो अतीत के फ्रेम में कसा हुआ है।

Monday, April 21, 2008

कविता लिखते हुए

कविता लिखना आसान नहीं होता
लिखने से पहले अपने सोचने-देखने का ढंग बदलना पड़ता है
जैसे दुनिया पर पड़ी धूल गर्द झाड़कर उसे चमका रहे हों
ताकि उसको उसके महीन रंगों, उसकी असली चमक के साथ पहचान सकें।
कविता लिखने से पहले खुद को भी बदलना पड़ता है थोड़ा सा
तुम्हें कुछ देर की चुप्पी चाहिए
और वे सारी सुनी-अनसुनी आवाज़ें जो
आसपास बेआवाज़ सुनाई पड़ती रहती हैं
कहीं दूर बोलती चिड़िया
कहीं और दूर गु़ज़रती कोई गाड़ी
कहीं पास सब्ज़ी की पुकार लगाता कोई एक आदमी
कहीं और पास किसी खेलते हुए बच्चे की हंसी
कविता लिखते हुए अचानक तुम अपने आसपास की दुनिया के प्रति
सतर्क हो जाते हो, कुछ मुलायम और संवेदनशील
घास हो या आकाश, पेड़ हो या पत्थर
सबका छुपा स्पंदन, सबमें निहित चुप्पी
एकाएक जैसे तुम्हारे सामने खुलने लगते हैं
दुनिया जैसे एक नई आवाज़ में तुम्हें पुकारती लगती है
यह कोई जादू नहीं है,
बस अपने स्नायु तंत्र को कुछ जगा लेने का उद्यम है
अपनी आंख, अपने कान कुछ खोल लेने की कोशिश
ताकि तुम समेट, सुन देख सको अपने आसपास की सारी गंध, सारे स्वर, सारे दृश्य
ख़ासकर वे बेहद महीन, मद्धिम कण और फुसफुसाहटें
जो रोजमर्रा के शोर में गुम हो जाते हैं

कविता लिखना दुनिया को नए सिरे से देखना है
अपनी मनुष्यता को नए सिरे से पहचानना
इस पहचान में यह सवाल भी शामिल है
कि जब तुम कविता नहीं लिख रहे होते
तब भी दुनिया को इतनी मुलायम निगाहों से क्यों नहीं देख रहे होते?

कविता लिखना खुद को याद दिलाना है
कि सबसे पहले और आखिर में तुम मनुष्य हो
कि रोज़मर्रा का जो चाकू इस मनुष्यता को बार-बार छीलता और तार-तार करता है.
जो रोज़ तुम्हें कुछ कम मनुष्य रहने देता है
उसके विरुद्ध एक कवच का काम कर सकती है कविता।
इसकी इकलौती शर्त है कि इसे हमेशा सीने से लगाए रखो

लेकिन क्या यह आसान है
कविता को लगातार सीने से लगाए रखना
अपनी धुकधुकी के साथ महसूस करना?
इसकी भी चुकानी पड़ती है क़ीमत
इसकी भी डालनी पड़ती है आदत।

दरअसल कविता लिखते हुए ही समझ में आता है
कविता सिर्फ तब ही नहीं लिखी जा रही होती
जब तुम उसे कागज पर उतारते हो,
वह तब भी तुम्हारे भीतर बन रही होती है
जब तुम उससे पूरी तरह बेखबर होते हो।

Friday, March 28, 2008

वह आख़िरी ख़त

अखबारों में लगभग रोज़ पढ़ता हूं
और फिल्मों में भी अक्सर देखता हूं
एक ‘स्युसाइड नोट’, जो कोई मरने वाला अपने पीछे छोड़ जाता है
कभी उनसे हमदर्दी पैदा होती है
कभी ऊब
और कभी कोफ्त भी।
विदर्भ से आने वाली किसानों की ख़ुदकुशी की ख़बरें
परेशान करती हैं
लेकिन निजी त्रासदी से ज्यादा सामाजिक विडंबना की तरह
जिसके पीछे छुपे चेहरे आम तौर पर दिखते नहीं,
उन मौकों को छोड़कर
जब किसी किसान का परिवार टीवी पर बिलखता दिखाई पड़ता है
लेकिन यह रोज का किस्सा है
जिससे दो-चार होने की आदत सी पड़ गई है
यानी कुल मिलाकर खुदकुशी मेरे लिए ऐसी दास्तान नहीं
जो अनजानी या दिल तोड़ने वाली हो।
लेकिन इन सबके बावजूद,
उस असली ‘स्युसाइड नोट’ को छूते समय जिस तरह कांपे मेरे हाथ
जिस तरह सिहरा मेरा दिल
जिस तरह फट पड़ने को आया मेरा कलेजा
उन सबकी थरथराहट मेरे भीतर से जाने का नाम नहीं ले रही।

ऐसा कुछ नहीं है, उस पत्र में जिसका पहले से मुझे अनुमान न हो।
मृत्यु के ऐन पहले अपने क्षोभ, अपनी हताशा, जीवन से हार कर
मौत को चुनने के अपने तर्क
और
अपने बचे-खुचे सामान की सूची के साथ
अपने मां-पिता से जानी-पहचानी क्षमायाचना
अपने छोटे भाई-बहन को सलीके से रहने की
और
इन सबसे बढ़कर उसकी मौत पर दुखी न होने की हिदायत-
लेकिन यह अहसास कि यह पत्र वाकई मरने से पहले किसी लड़की ने लिखा है,.
कि एक हाथ ने आखिरी बार छुआ होगा यह कागज़
दो उंगलियों ने आख़िरी बार पकड़ी होगी कलम
कि उसका एक-एक शब्द बिल्कुल आखिरी बार लिखा जा रहा होगा
कि आख़िरी बार लगाया जा रहा होगा हिसाब
कि ज़िंदगी ने क्या-क्या दिया, क्या-क्या लिया,
कि आखिरी बार होगी अपने पिता से उम्मीद
कि वे महानगर में उसके अकेले और भुतहा लगते से कमरे से
उसका एक-एक सामान करीने से चुनकर निकालेंगे
और ले जाएंगे मां के पास
जो देखेगी, बेटी ने मौत का यह सफ़र चुनने से पहले
कहां-कहां से जुटाया ज़िंदगी का असबाब
जो रोएगी और उस घड़ी को कोसेगी
जब उसने बेटी को शहर में नौकरी खोजने और करने की इजाज़त दी

मृत्यु से ठीक पहले क्या सोचता है आदमी?
क्या सोच रही होगी वह लड़की मरने से पहले?
यह पत्र काफी कुछ उसके बारे में बताता है
लेकिन इस आखिरी पत्र के बाद भी
आई होंगी आखिरी घड़ियां
तब क्या उसे एक-एक लम्हा एक सदी जैसा नहीं लगा होगा?
जब उसने छत की किसी कुंडी से एक रस्सी लटकाई होगी
जब उसने दुपट्टे को अपनी गर्दन पर लपेटा होगा
और जब वह अपनी बची-खुची हिम्मत जुटा कर, अपनी सारी यादों को
पीछे धकेलकर
जिए जाने को कलपती ज़िंदगी की पुकार को अनसुना कर
एक ऐंठी हुई आखिरी तकलीफ के इंतज़ार में झूल गई होगी
जिसके बाद सबकुच ख़त्म हो जाएगा

न जाने कितनी बार देखा और सोचा हुआ है यह दृश्य
लेकिन मेरे हाथ में फिलहाल है अपनी मौत के प्रति
आगाह करती एक असली चिट्ठी
जिसे एक रस्सी थामने से पहले एक लड़की ने जतन से सिरहाने पर रखा था
जिसे मैं बार-बार देखता हूं
और शब्दों के बीच वह कंपन पहचानने की कोशिश करता हूं
जो उस लड़की के दिल में रहा होगा
वह आखिरी रुलाई पढ़ने की,
जो उसके भीतर अपने भाई, पिता, मां और प्रेमी की याद को लेकर उठी होगी।

मैं जानता हूं, मैं भावुक हो रहा हूं
जिस देश में बीते बीस साल में २२००० किसानों ने ख़ुदकुशी की हो
और जिनकी खबर से अखबारों के पन्ने रंगे हुए हों,
वहां एक मायूस लड़की की खुदकुशी के पहले का आखिरी ख़त
मेरे हाथ में पड़कर मेरे भीतर गड़ जाए
और मैं इसे छुपाने की कोशिश भी न करूं
तो इसमें आपको एक भावुकता दिख सकती है
लेकिन क्या करूं उस खलिश का, जो सारे तर्कों के बावजूद
मेरे भीतर बची हुई है,
बस याद दिलाती हुई
दूर से त्रासदियां बहुत छोटी, बहुत मामूली जान पड़ती हैं
उनके करीब जाओ तो समझ में आता है
ज़िंदगी कहां-कहां कितना-कितना जोड़ती है
मौत कैसे-कैसे कितना-कितना तो़ड़ती है

Monday, March 17, 2008

40 का होने पर

कहने को यह बहुत ज़्यादा उम्र नहीं होती
और साहित्य या राजनीति की दुनिया में तुम युवा ही कहलाते हो
लेकिन फिर भी चालीस साल का हो जाने के बाद
बहुत सारी चीजें ये बताने वाली निकल आती हैं
कि अब तुम युवा नहीं रहे।
उदाहरण के लिए तुम्हारे सफेद होते बाल
जो तुम्हारी कनपटियों से सरकते हुए दाढ़ी का भी हिस्सा हो जाते हैं
उदाहरण के लिए वे रिश्तेदार, जिन्होंने तुम्हें कभी बचपन या जवानी में देखा है
और तुम्हारी उम्र का यह पड़ाव देखकर
कुछ भावुक या अभिभूत हैं
कि अरे, तुम्हारे इतने सारे बाल सफ़ेद हो गए!
उदाहरण के लिए बरसों बाद मिली साथ पढ़ने वाली लड़की
जिसकी ढली हुई उम्र में तुम वह नौजवान और बेसुध करने वाली खिलखिलाहट
ढूढ़ने की कोशिश करते हो
जो पूरे दिन को खुशनुमा बना दिया करती थी
और अब जिसकी हांफती हुई दिनचर्या के बीच बची हुई सुंदरता के खंडहर में
तुम अपनी युवावस्था का खंडहर देखते हो
उदाहरण के लिए दफ़्तर के वे साथी
जिनकी चुहल तुम्हें बार-बार बताती है
अब तुम युवा नहीं रहे
धीरे-धीरे तुम याद करते हो
तुममें वह अतिरेकी भावुकता नहीं बची है
जिसने तुम्हारी जिंदगी के कई बरस तुमसे लिए
हालांकि तुम्हें याद रखने लायक कई लम्हे भी दिए
न ही वह स्वप्नशीलता बची हुई है
जिसके साथ कई नामुमकिन ख़्वाब नामुमकिन भरोसों के साथ तुम्हारे भीतर पलते रहे
अब तुम सयाने हो गए हो
ज़िंदगी की सपाट सड़क पर चलने के आदी,
भटकावों का बेमानीपन ख़ूब समझने लगे हो
और
किसी के काम आने की अपनी सीमाएं भी।
अब पहले की तरह हर काम के लिए निकल नहीं पड़ते
रंगमंच से राजनीति तक
और साहित्य से सिनेमा तक
अपनी यायावर दिनचर्या के बीच तुकतान बिठाने की बेलौस कोशिश करते हुए
हालांकि ध्यान से देखने पर तुम पाते हो
कि इस बदले हुए सरोकार की वजह तुम्हारे सयानेपन से कहीं ज़्यादा
तुम्हारे नए अभ्यास में है
वरना अक्सर पुरानी प्यास तुम्हें
अपने आगोश में लेना चाहती है
अक्सर पुराने ख्वाब तुम्हारी नींद में चले आते हैं
अक्सर तुम वह सब करना, नए सिरे से पाना और खोना
चाहते हो
जो तुम उम्र की किसी पुरानी सड़क पर छोड़ आए हो
जहां तुम्हारी छोटी-छोटी इच्छाओं के ढूह अब तक बाकी हैं
तुम हल्के से मुस्कुराते हो
पहचानते हो कि इस मुस्कुराहट में एक उदासी भी शामिल है
वह सब न कर पाने की कचोट भी
जिसके लिए तुमने अपनी ज़िंदगी के कई साल कभी होम किए
तुम अपनी आसपास की अस्त-व्यस्त दिनचर्या पर नज़र डालते हो
महसूस करते हुए कि कितना मज़बूत जाल तुमने अपने ही चारों तरफ
बुन लिया है
तुम आईना देखते हो
फिर से अपना चेहरा पहचानने की कोशिश में
और उसमें वह पुरानापन खोजने की चाहत में
जो तुम कभी थे
और हार कर अपने लिखने की मेज पर चले आते हो

Thursday, March 13, 2008

सोसाइटी में चोरी

कुछ दिन पहले हमारी सोसाइटी में चोरी हुई। एक आवासीय परिसर में २४ घंटे की चौकीदारी के बावजूद चोरी हो जाए, ये एक बड़ी बात है- इससे भी बड़ी बात यह कि चोरी पत्रकारों की सोसाइटी में हुई। उन लोगों के यहां, जो मानते हैं कि उनका चोर तो क्या पुलिस भी कुछ नहीं बिगाड़ सकती। बहरहाल, इसके बाद चोर पकड़ने की कवायद शुरू हुई। पुलिस वालों ने आकर पहले चौकीदारों को थप्पड़ लगाए। उसके बाद बताया कि ऐसी चोरी किसी भीतरी आदमी की मदद के बिना नहीं हो सकती।
इस तर्क से बहुत सारे लोग सहमत थे- खुद मैं भी। सवाल यह उठा कि यह भीतरी आदमी कौन हो सकता है? सबसे पहले नज़र गई उन चौकीदारों पर, जिन्हें पता था कि किन-किन फ्लैट्स में लोग बाहर गए हैं। इसके बाद उन बाहरी लोगों पर, जो सोसाइटी में काम करने आते हैं- यानी कामवालियां, धोबी, बढ़ई और वे मजदूर जो अलग-अलग फ्लैट्स में मरम्मत या बचे-खुचे काम के लिए आते जाते हैं या कुछ दिन से रह रहे हैं।
इस संभावना पर किसी ने विचार नहीं किया कि क्या सोसाइटी में रहने वाला कोई शख्स भी इस चोरी के पीछे हो सकता है। इसकी वजहें भी साफ थीं। खुद मेरा भी मानना है कि सोसाइटी में रहने वाला कोई आदमी ऐसी चोरी में शरीक नहीं हो सकता। जो रहते हैं, वे पढ़े-लिखे लोग हैं, ज़्यादातर पत्रकार हैं। उनके पास इतने साधन हैं कि वे चोरी न करें। वैसे उन पर शक न करने की वजहें और भी रही होंगी। जैसे अपने साथ रहने वालों पर शक किया जाए तो इसमें कुछ अपनी संकीर्णता भी झांकती है। दूसरी बात यह कि जो रह रहे हैं, वे अपनी तरह से ताकतवर भी हैं। यानी पुलिस उन्हें उस तरह थप्पड़ या डंडे नहीं मार सकती, जिस तरह किसी बढ़ई, मजदूर या धोबी को मार सकती है।
बहरहाल, पुलिस सोसाइटी के दो चौकीदारों और चार मजदूरों को पकड़ कर ले गई। सोसाइटी वाले आश्वस्त और संतुष्ट हुए कि चोरी तो पकडी जाएगी। जिन सज्जन के यहां चोरी हुई, वे भी सक्रिय थे। उन्होंने चौकीदारों का इतिहास निकाल लिया जो अपने-आप में काफी संदिग्ध था। मसलन, उनमें से एक को पहले भी एक सोसाइटी से निकाला जा चुका था। यही नहीं, वह रात में कहीं और भी काम करता था। सबसे बड़ी बात यह कि उस चौकीदार के परिवार वालों के बयान कई मामलों में गलत साबित हुए।
शक की यह सूई चोर पकड़ने और उसे साबित करने के लिए पर्याप्त थी। इसके बाद पुलिस को बस चोर की धुनाई करनी थी कि वह बता दे कि माल उसने कहां छुपा रखा है। लेकिन यहीं कुछ मुश्किल आ गई। सोसाइटी के कुछ पुराने लोगों और जागरूक पत्रकारों को यह लग रहा था कि चोर तो पकड़ा जाए, लेकिन इस कवायद में बेगुनाह लोगों के साथ बदसलूकी न हो। इसके अलावा यह सवाल भी कहीं टीस रहा था कि दिन-रात मानवाधिकारों का सवाल उठाते हम लोग सिर्फ शक की बिना पर कुछ लोगों को कितने दिनों तक पुलिस के हवाले छोड़ सकते हैं। कानून बताता है कि अदालत में पेश किए बिना पुलिस किसी को चौबीस घंटे से ज्यादा नहीं रख सकती। जबकि चोरी के संदेह में गिरफ्तार ये छह लोग तीन दिन पुलिस हिरासत में रहे। पता चला, पूछताछ करने वाले इंस्पेक्टर को बाहर जाना पड़ा। अपने एक-एक घंटे का हिसाब रखने वाले पत्रकारों ने लेकिन पुलिसवालों से नहीं पूछा कि छह गरीब लोगों के तीन दिन उन्होंने हवालात में क्यों कटने दिए। इन तीन दिनों में इनके घरों में क्या हुआ होगा, इसका हमें पता नहीं। हम बस मोटा अंदाजा लगा सकते हैं कि हो सकता है, इनमें से कुछ के घर चूल्हा भी न जला हो। किसी दूर-दराज के इलाके से आए और दिहाड़ी कमाकर गुजारा करने वाले इन बेघरबार लोगों को पता चले कि उनका कमाऊ सदस्य चोरी के आरोप में जेल में है तो वह किस डर या अंदेशे से घिरा होगा- इसका बस अंदाजा लगाया जा सकता है। या हो सकता है, यह मेरी मध्यवर्गीय भावुक सोच हो जिसका पाला पहले ऐसे संकटों से नहीं पड़ा है। जबकि इन गरीबों को अक्सर अपनी बेगुनाही को लेकर ऐसे इम्तिहानों से गुजरना पड़ता हो, कुछ दिनों की जेल या फाकाकशी झेलनी होती हो। कहा जा सकता है कि पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार नहीं किया था, बस पूछताछ के लिए ले गई थी। लेकिन लोगों के लिए बस इतना तथ्य काफी है कि चोरी के मामले में पुलिस इन्हें पकड़ कर ले गई। अब ये दाग आने वाले सालों में इनका पीछा करता रहेगा और फिर किसी सोसाइटी में चोरी होगी तो याद दिलाया जाएगा कि इन लोगों को पहले भी पुलिस पकड़ कर ले जा चुकी है।
मैं इस अनुमान से इनकार नहीं करता कि इनमें कोई चोर हो सकता है। आखिर चोरी हुई है और चौकीदारों की मिलीभगत नहीं तो लापरवाही साबित है। निश्चित तौर पर इस अंदेशे में भी साझेदार हूं कि अगर चोर न पकड़ा गया तो आने वाले दिनों में चोरी की कुछ और घटनाएं हो सकती हैं। इस बात का भी हामी हूं कि जिन चौकीदारों ने लापरवाही की, उन्हें बाहर होना चाहिए। लेकिन मेरी आपत्ति चोर पकड़ने और खोजने के तरीके को लेकर है। जिस दिन चोरी की बात खुली, उस दिन हर कमजोर या गरीब आदमी संदिग्ध हो उठा। बाहर से आकर काम करने वाले मजदूरों और मिस्त्रियों की शामत आ गई। उनके औजार चेक किए गए, उनसे सख्ती से पूछताछ की गई और अगर कोई हकलाता दिखा तो थप्पड़ भी लगाए गए। ये स्थिति बन ही नहीं पाई कि कोई मजदूर सीना तानकर बोल सके कि उसे इस तरह अपमानित करने का हक़ किसी को नहीं है। वरना यह अपमान पिटाई तक चला जाता।
चोर अब तक नहीं पकड़ा गया है। पुलिस चोर पकड़ने के जो तरीके जानती है, उनमें कई लोगों की पिटाई शामिल है जो कुछ लोगों की इच्छा के बावजूद मुमकिन नहीं हुई। जिनके घर चोरी हुई, उन्हें यह जायज मलाल है कि उनकी ताकत और कोशिश के बावजूद चोर अब तक फरार है, और यह शिकायत भी कि यह सोसाइटी के कुछ लोगों के दखल की वजह से हुआ है। दखल देने वालों में मैं नहीं हूं, लेकिन पकड़े गए लोगों के प्रति हमदर्दी जताने का गुनहगार मैं भी हूं, यह बोध मुझे कुछ कचोटता और डराता दोनों है। बहरहाल, इस अधूरे किस्से को लिखने का मतलब सिर्फ यह बताना है कि हम जब चोर पकड़ने निकलते हैं तो हमारे भीतर छुपे कई चोर दिखने लगते हैं। हम किसी को उसके गुनाह की नहीं, उसकी गरीबी और कमजोरी की सजा देने लगते हैं। हमारी सोसाइटी में दाखिल होने वाले चोर पकड़े जाएं, यह जरूरी है, लेकिन उतना ही यह जरूरी है कि हम अपने भीतर छुपे चोर की शिनाख्त कर सकें।

Tuesday, March 11, 2008

जश्ने आज़ादी ज़ख़्मे आज़ादी

दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय के एक छोटे से कमरे में उपस्थित युवा चेहरों को देखकर मुझे तसल्ली से ज़्यादा अंदेशा हुआ- क्या ‘चक दे इंडिया’ या ‘तारे ज़मीं पर’ जैसी चमकदार मुंबइया फिल्मों के आदी इन लड़कों को संजय काक की करीब सवा दो घंटे लंबी डॉक्युमेंटरी अपने साथ रख पाएगी? एक ऐसी डॉक्युमेंटरी, जिसमें अलग से कोई कहानी नहीं है, कोई नायक नहीं है और एक ऐसा पेचीदा यथार्थ है जिसका गड्डमड्ड इतिहास-भूगोल जैसे लगातार बदलता, और हाथ और दिमाग से फिसलता मालूम होता है?
लेकिन ‘जश्ने आज़ादी’ शुरू हुई तो सारे अंदेशे पीछे छूट गए। उस कमरे की रंगहीन सफेद दीवार पर उभरती तसवीरों और आवाज़ों के कोलाज में दीवार खो गई, कमरा खो गया और कमरे में पर्याप्त उजाले के बावजूद वे चेहरे खो गए जो फिल्म देखने इकट्ठा थे। धीरे-धीरे खुलता रहा कश्मीर नाम की उस वादी का सच, जिसमें आजादी एक छलने वाला शब्द है। यह एक नुचा-चिंथा कश्मीर है, जहां गिरती हुई बर्फ के फाहों के बीच एक पिता कब्रगाह में अपने बेटे की कब्र खोज रहा है- वह एचके, यानी हिज़्बुल मुजाहिद्दीन का कमांडर था, मारा गया। पिता ईद के दिन आया है, ताकि उसके नाम भी दुआ पढ़ सके। इस कश्मीर में लोग इस तरह मारे गए लोगों की गिनती कर रहे हैं जैसे वे कुछ खोए हुए सामान याद कर रहे हों। इस कश्मीर में एक छोटी सी लड़की अपने सामने हुई मुठभेड़ का हवाला देते-देते घबरा सी जा रही है। इस कश्मीर में अपने खोए हुए बच्चे की तस्वीर लेकर घूमते उसके घरवाले हैं। इस कश्मीर में अपने दिलों पर दहशत के निशान लिए जी रही बच्चियां ख्वाबों में अपने मर रहे पिता को देखती हैं। इन सबके बीच अमरनाथ यात्रा पर आया हुआ एक साधु कश्मीर की तरफ आंख उठाकर देखने वालों की आंख निकाल लेने की धमकी देता है।
नहीं, यह कोई भावनाओं को उभारने वाली फिल्म नहीं है। संजय काक ने शायद प्रयत्नपूर्वक खुद को इस आसान रास्ते से अलग रखा है। ये सारे दृश्य आपको खोजने पड़ते हैं- यह समझने के लिए कि वह कौन सी चीज़ है जो इस सपाट लगती फिल्म में आपको फिर भी बेचैन बनाए रखती है, जो आपको भावुक होकर कुछ देर बाद फिल्म को भूल जाने का मौका नहीं देती। इस तलाश में आप जब सूने लाल चौक पर तिरंगा फहराते और जन-गण-मन गाते भारतीय सैनिकों या फिर पूरे जोर-शोर से आजा़दी का नारा उछालते हुजूम के पीछे झांकते हैं तब इन चेहरों पर आपकी नज़र पड़ती है। तब आपको कश्मीर के सन्नाटे या शोर के पीछे की वह कारुणिकता, वह त्रासदी दिखाई पड़ती है जिसमें जले हुए घर हैं, सूखे हुए ख़ून सी सूख चुली रुलाइयां हैं और ताजा गिरे खून को साफ करने की नाकाम सी कोशिश है।
संजय काक न ज़्यादा दिखाते हैं न ज़्यादा बोलते हैं। वे स्थितियों और चरित्रों को बोलने देते हैं। कश्मीर की बेहद दिलकश झील के ऊपर तैरती है एक कवि की आवाज़- खोए हुए ज़मानों और ठिकानों को अपने सोज़, अपनी तकलीफ़ के साथ सहेजती आवाज़। इस तकलीफ के आसपास वे फूहड़ सैलानी निगाहें भी हैं जिनके लिए कश्मीर बस एक फिसलती हुई बर्फ या एक ख़ूबसूरत बाग़ है। इन सैलानियों की चीखती हुई आवाज़ें बताती हैं कि यह कश्मीर तो स्विट्जरलैंड से भी सुंदर है। सैलानियों के अलावा सैनिक हैं- कहीं अनाथ हुए बच्चों का स्कूल चलाते, कहीं ट्रांजिस्टर बांटते और ये वादा करते कि और भी अच्छी-अच्छी चीजें आएंगी और सबको मिलेंगी। पूरी फिल्म में कदम-कदम पर अंतर्विरोधों का यह जाल आपके पांव रोकता है, कई बार लगता है, अब ये फिल्म खत्म हो।
लेकिन फिल्म खत्म हो जाने के बाद भी ख़त्म नहीं होती। एक विशुद्ध राजनीतिक फिल्म होते हुए भी इसका राजनीतिक पाठ आसान नहीं है। सिर्फ इतना दिखाई पड़ता है कि सात लाख सैनिकों से भरे इस कश्मीर में अब भी गणतंत्र दिवस सन्नाटे के साथ मनाना पड़ता है और स्कूली बच्चों के कार्यक्रम में भी सुरक्षा का अभेद्य घेरा खड़ा करना पड़ता है। दूसरी तरफ जब भी सेना द्वारा तथाकथित मुठभेड़ में मारे गए किसी लडके की मय्यत निकलती है तो जैसे वह कश्मीर की आजादी के लिए निकाले गए जुलूस में तबदील हो जाती है। जाहिर है, भारत की वर्चस्ववादी राजनीति और सैन्य नीति के खिलाफ कश्मीर का गुस्सा सारे दमन के बावजूद कायम है।
हालांकि फिल्म इतिहास और वर्तमान को लेकर कई सवाल खड़े करती है। संजय काक कश्मीरियों के संघर्ष को पांच सौ साल की गुलामी से जोड़कर देखते हैं। इसमें एक तरह का अवांछित सरलीकरण चला आता है जिसमें वह विडंबना आसानी से समझ में नहीं आती जो १९४७ के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच झूल रहे कश्मीर के समाज और राजनीति में पैदा हुई है। दूसरी बात यह कि जिस कश्मीरियत की बात बार-बार की जाती है, उसे यह फिल्म परिभाषित करने की कोशिश नहीं करती। अगर करती तो यह बात शायद ज़्यादा खुलकर आती कि पहचानों की कोई एक परिभाषा नहीं होती, उनकी कई परतें होती हैं और कश्मीरियत भी ऐसी कई परतों से मिलकर बनी चीज है।
बहरहाल, संजय को न सवाल खड़े करने की फ़िक्र है न जवाब खोजने की जल्दी। न ही कोई कहानी बुनने की कोशिश उनमें दिखती है। वे गड्डमड्ड तारीखों और जगहों के बीच हमें वह कश्मीर दिखाते हैं जहां बीस साल में १८,००० से ज्यादा लोगों ने जान गंवाई है, उन कब्रिस्तानों में ले चलते हैं जहां लोग नाम और चेहरों से नहीं, नंबरों से पहचाने जाते हैं। इस पूरी फिल्म में कोई कश्मीरी पंडित नहीं दिखता- और संजय इसे भी कश्मीर के उस खालीपन की तरह पेश करते हैं जिस पर लोगों का ध्यान जाना चाहिए- एक पेंटिंग में खाली छूटी उस जगह की तरह, जो पेंटिंग को फिर भी अर्थ देती है।
शायद इसी तटस्थता के कारण फिल्म न कहीं शुरू होती है, न कहीं खत्म होती है। वह जैसे चलती रहती है- ख़त्म हो जाने के बाद भी। दिल्ली विश्वविद्यालय के उस कमरे में फिल्म के खत्म होते-होते बैठे हुए लडकों की तादाद अचानक बढ चुकी थी और उनके पास ढेर सारे सवाल थे। कश्मीर का बेहद मुश्किल यथार्थ समझने की कोशिश में पूछे गए सवाल, फिल्म की राजनीति और तटस्थता से जुड़े सवाल। इन सवालों के बीच साफ था कि ‘जश्ने आज़ादी’ अपने मक़सद में कामयाब रही है- वह दूर से छूती है और बिना अहसास कराए बहुत भीतर तक उतर जाती है। ये एक बड़ी कामयाबी है।