Thursday, October 11, 2007

नाचते गाते लोग

शादी-ब्याह के दिनों में समूचे उत्तर भारत की सड़कों पर एक दृश्य बेहद आम है। बैंड-बाजे के साथ कोई बारात धीरे-धीरे खिसक रही है और उसके आगे कुछ हिंदी फिल्मों की तेज़ धुनों पर बच्चे से बूढ़े तक- जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं- कूल्हे मटका कर, कमर हिलाकर, हाथ ऊपर-नीचे फेंक कर कुछ ऐसा कर रहे हैं जो उनके मुताबिक नाचना है। इस नाच में लड़के के मां-बाप, भाई-बहन, मित्र-परिजन- सभी शामिल होते हैं और जो शामिल नहीं होता, वह या तो अतिशय शर्मीला माना जाता है या फिर दूर का ऐसा रिश्तेदार, जिसके लिए यह शादी थिरकने का अवसर नहीं है। संभवतः महारानी विक्टोरिया के ज़माने की अजीबोगरीब अंग्रेज़ पोशाक पहन कर बैंड-पार्टी के ग़रीब शहनाई वाले 'बंबई से आया मेरा दोस्त' से लेकर 'ये देश है वीर जवानों का' तक की मोटी-कर्कश धुनें निकाला करते हैं और सिर पर ट्यूबलाइट ढो रही महिलाओं के बीच सूट-बूट पहने लोग नाच-नाच कर अपनी खुशी का इजहार करते रहते हैं।
सड़क का यातायात अस्त-व्यस्त कर देने वाले इस तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम को चिढ़ते और झुंझलाते हुए देखने का सौभाग्य हम सबको अक्सर मिलता रहता है। दरअसल यह सड़कनाच उत्तर भारत के मध्यवर्गीय समाजों में इन दिनों पसरी संस्कृतिविहीनता का सबसे नायाब नमूना है। यह वह समाज है, जिसमें बच्चों को संगीत और नृत्य की शिक्षा देने का आम तौर पर चलन नहीं है। गाने-बजाने का शौक अच्छी चीज नहीं समझा जाता है, नाचना तो ख़ैर बहुत दूर की चीज है। ऐसे में किसी को नाचना पड़ जाए तो वह हिंदी फिल्मों की नकल न करे तो क्या करे।
दरअसल मोटे तौर पर जो हिंदी भाषी समाज है, उसके लिए संस्कृति और मनोरंजन के मायने कभी सिनेमा हुआ करता था और अब इन दिनों उनमें टीवी आ जुड़ा है। संस्कृति की सारी सीख उसे यही दो माध्यम देते हैं। अचरज नहीं कि शास्त्रीय संगीत और नृत्य उसकी सांस्कृतिक परिभाषा में अजूबी चीज़ें हैं जिनकी ज्यादा से ज्यादा पैरोडी की जा सकती है। शब्दों की दुनिया में साहित्य उसे सुहाता नहीं, कविता उसे मोहती नहीं, आधुनिक चित्रकला तो खैर उसके लिए चुटकुला है। गीत-संगीत की उसकी सांस्कृतिक समझ उन फिल्मी गानों से बनती है जिनमें झोंपड़ी में चारपाई होती है और सोलह साल की लड़की सत्रह साल के लड़के को अपने दिल का हाल बताती है।
ऐसे में शादी-ब्याह के मौके पर उसे जब अपने उल्लास की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम चुनना होता है तो उसके पास उन फूहड़ नृत्यों की भौंडी नकल के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता जिनकी कुछ धुनें उसे याद रहती हैं। बल्कि यह अवसर उसके लिए वर्षों से संचित संकोच को तोड़ने का अवसर होता है। कई लोग जैसे शादी में शराब पीकर अपना अहं तुष्ट करते हैं, वैसे ही नाच कर भी खुद को तसल्ली दे देते हैं कि हां, उनमें अपनी खुशी जाहिर करने की कुव्वत बची हुई है। जो बहुत बूढी महिलाएं और जो वृद्ध पुरुष नाच नहीं पाते, वे किसी नाचने वाले के सिर पर कुछ रुपए घुमाते हुए बैंड वालों को थमाते हैं, जैसे वे भी अपने हिस्से का ज़रूरी सांस्कृतिक कर्त्तव्य पूरा कर रहे हों।
पहले ऐसे नृत्यों पर पुरुषों का एकाधिकार था। मगर इन वर्षों में महिलाओं ने इस एकाधिकार को तोड़ा है। वे भी साहस के साथ सड़क पर नाचती नज़र आती हैं। इनमें से कई ऐसी स्त्रियां होती होंगी जिन्होंने अपने बचपन और कैशोर्य में नृत्य या संगीत सीखने की इच्छा प्रगट की होगी और भाइयों और पिता से डांट सुनकर दिल को फिल्मी गीतों भर से बहला लिया होगा। ध्यान से देखिए तो ये सारे नाचते हुए स्त्री-पुरुष उल्लास मनाते नहीं दिखेंगे, बल्कि उनमें नाचने-गाने की जो इच्छा दबी रह गई उसे किसी तरह पूरा करने की हड़बड़ी दिखेगी।
मगर ध्यान से देखने लायक बात यहां दूसरी है। इस तरह नाचना क्या बताता है? यही कि समाजों के लिए सांस्कृतिक अभिव्यक्ति अपरिहार्य होती है। जो समाज अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां छोड़ देते हैं वे भी किसी शून्य में नहीं रह जाते। जीवन में उल्लास के और उदासी के भी ऐसे अवसर आते हैं जब मनुष्य और समाज उनको किसी माध्यम से व्यक्त करना चाहता है। जब संस्कृति बची नहीं रहती तो उसकी जगह अपसंस्कृति ले लेती है। यानी लोग नाचना-गाना तो चाहते हैं, मगर पाते हैं कि उन्हें यह आता नहीं या सिखाया नहीं गया। ऐसे में वे संस्कृति के नाम पर सिनेमा या टीवी द्वारा पेश किए जा रहे सतही और फूहड़ गीत-संगीत की उससे भी ज्यादा फूहड़ नकल कर सकते हैं और करते हैं।
अक्सर ऐसी बारातों में सड़कें एकाध घंटे जाम रह जाया करती हैं और उन पर न कोई झुंझलाता है और न नाराजगी व्यक्त करता है। भारतीय समाज के भीतर इस अनूठी सांस्कृतिकता ने जो अपनी सार्वभौमिक स्वीकृति बनाई है, यह उसी का प्रमाण है। हर किसी को मालूम है कि एक दिन वह भी किसी की बारात में शामिल होगा और सड़क पर नाचते हुए रास्ता जाम करेगा। आखिर हर किसी को अपने उल्लास को अभिव्यक्त करने का हक मिलना ही चाहिए। उत्तर भारतीय समाज ने इस अभिव्यक्ति के बाकी सारे माध्यम खो दिए हैं तो क्या हुआ। सड़कें बची हुई हैं और उन पर नाचने की छूट है।

6 comments:

Bhupen said...

आपने तो शादी में सड़क पर नाचते लोगों की हक़ीक़त बयां कर डाली! सहज अभिव्यक्ति भी बंद समाजों में कैसा भौंडा रूप ले लेती हैं इसका आपने सटीक विश्लेषण किया है.

ghughutibasuti said...

आपका विश्लेषण तो बिल्कुल सही है । हर संस्कृति में नाच गाना जीवन का अभिन्न अंग होता है । किन्तु जब भारत के मध्यम वर्ग के पास कुछ नहीं रह गया था तो वे अपने को दूसरों से बेहतर सिद्ध करने के चक्कर में सभी तरह के उल्लास पर पाबन्दी लगा बैठे । यहि दबा छिपा प्रतिबन्धित उल्लास आज सड़कें जाम कर रहा है ।
घुघूती बासूती

tanivi said...

बहुत खूब लिखा है, उत्तर भारतीय बारातों का बिल्कुल सही चित्र खींचा है .हिंदी फिल्मों की भोंडी नक़ल को लोग कितनी खुशी से अपना लेते हैं। पर इसका दूसरा पहलू यह भी है कि खुशी जाहिर करने सबका अपना-अपना अंदाज है और क्या कहें ?

सुबोध said...

प्रियदर्शन जी बात पते की...का सफर कुछ थमा हुआ सा लग रहा है....विचारों के लिहाज से बेहतरीन बॉल्ग का यूं थम जाना कुछ अखरता है..

Dipti said...

एक ऐसा विषय जिस पर इंसान दो राय रखता हैं। जब वो उस बारात का हिस्सा होता है तब ये सब सही हो जाता है हमारी संस्कृति बन जाता है, लेकिन जब वो ही शख्स बारात के लगाये जाम से झुंझलाता है तो ये भौंडा नाच बन जाता हैं।

दीप्ति।

Sugrove said...

kash mai hindi mai type kar pata to yahi aapke is lekh ke liye sachcha samman hota.
aapne hum logo ki us sachchai ko shabdo me ukera hai jo hum aaye din bhugatate hai aur mauka milte hi khud usme sharik ho jate hai.
Surendra