हममें से बहुत सारे हैं
जिनकी पीठ पर चाबुक की तरह पड़ता हैये वक्त
बहुत सारी हताशाएं हैं
बहुत सारे टूटे हुए अरमान
लेकिन टीस इतने भर की नहीं है
हमारा चेहरा उतार लिया है किसी ने
खींच ली है हमारी ज़ुबान
हमारे हंसने और रोने का वक़्त और इसकी वजह
तय करता है वही
हमें हंसना नहीं है
बस उसकी हंसी में मिलानी है अपनी हंसी
लेकिन ये याद रखते हुए कि उससे ज्यादा गूंज और खनक
पैदा न हो इस हंसी में
और रोना तो कतई नहीं है,
बेआवाज़ रोना भी नामंजूर
ख़बरदार जो हवा ने भी देख लिया
और किसी पोली दीवार ने सुन लिया
ये निजताएं गोपनीय हैं
इन्हें अपने वेतन की तरह छुपा और संभाल कर रखिए
आत्मविश्वास बस इतना हो
जिससे चल जाए उसका काम
इतना नहीं कि डोलने लगे
उसका भी अपने-ऊपर भरोसा।
आप एक सामाजिक प्राणी हैं और कुछ तौर-तरीके निर्धारित हैं आपके लिए
ज्यादा से ज्यादा आप कर सकते हैं
अपनी झुकी हुई रीढ़ के साथ
इंतज़ार उस दिन का
जब एक चाबुक आपके हाथ में भी होगा
और आप किसी की पीठ पर उसकी सटाक
सुन कर ख़ुद को तसल्ली देकर कह सकेंगे
कि नहीं गई बेकार इतने दिनों की मेहनत और ज़िल्लत
और फिर अपनी खोई हुई हंसी और खनक
और अपने आत्मविश्वास को अपने हिलते हुए चाबुक के साथ
रखकर तौलेंगे
और इतराते हुए सोचेंगे मन ही मन
कहां से कहां कारवां पहुंच गया ज़िंदगी का
सच है, रंग लाती है मेहनत
और सब पर मेहरबान होती है नियति कभी न कभी।
Wednesday, October 17, 2007
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1 comment:
नई हूँ । पैदा तो 23 साल पहले हो गई थी लेकिन लग रहा है अभी ही पैदा हुई हूँ। पत्रकार बनना चाहती हूँ, लेकिन शायद नहीं नही पांऊगी। आप को आदर्श मानती हूँ लेखन में। यदि पत्रकारिता में चल रहे फेवरिज्म से बच गई तो जरूर कुछ बन कर दिखाऊगी।
दीप्ति, भारत में पैदा हुई हूँ, वही रहना चाहती हूँ।
कुछ बुरा लगा हो तो बताइयेगा।
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