Monday, July 13, 2009

सोया हुआ वह परिवार

सड़क के बिल्कुल किनारे
गुडी-मुडी सोया दिखा वह परिवार
नीचे की रेत पर बिछी तुड़ी-मुड़ी चादर के मुचड़े हुए सिरे
और उसके भीतर सिकुड़े बदन बता रहे थे
कि चादर के हिसाब से पांव समेटने का अभ्यास
पुराना है
बगल के प़ेड़ के पास तने से बंधी संदूक दिखी
और सिहरा हुआ मैं बस इतना सोच पाया
कि पूरा घर साथ चला है।
यह रात दस बजे के आसपास का समय होगा
जो दिल्ली या गाज़ियाबाद की भीड़ भरी सड़कों पर
सोने के लिहाज से काफी असुविधाजनक होता है
फिर भी सोया हुआ था पूरा परिवार
बेख़बर गहरी नींद में,
इस बात से बेपरवाह कि कहीं कोई उसका संदूक
तो नहीं चुरा ले जाएगा।
शायद इसलिए नहीं कि संदूक में चुराने लायक
कुछ नहीं रहा होगा,
यह असंवेदनशील ख़याल हमारी तरह के
लोगों को ही आ सकता है जो
पुराने पड़ गए कपड़ों और संदूकों को बेकार समझ कर
अपनी आत्मतुष्ट दया पर इतराते हुए
महरी या मजदूर या कबाड़ीवाले या चौकीदार
किसी को भी पकड़ा देते हैं।

हो सकता है, इस सोए हुए परिवार को
भी कहीं से मिला ही हो वह संदूक
और उसमें भी किसी के दिए हुए बेडौल कपड़े ही ठुंसे पड़े
हों कुछ पुराने बर्तनों और बहुत सहेजकर रखी गई कुछ चूड़ियों
और कुछ टूटे खिलौनों के बीच,
लेकिन इस विस्थापित समय में
यह उसकी सबसे मूल्यवान थाती है
उसका छूटा हुआ घर है
उसकी छूटी हुई याद है
बच्चों की अधनींदी आंखों की आखिरी चमकती उम्मीद है
घरवाली का ठहरा हुआ अपार धीरज है
और किसी मेहनतकश के न ख़त्म होने वाले सफ़र का इकलौता असबाब है
फिर भी यह परिवार इस संदूक को भूलकर
चादर के नीचे से सड़क किनारे की चुभती हुई रेत
पर ही नींद की गहरी सांसें ले आ रहा है
तो समझना चाहिए, वह बहुत दूर से पैदल चलकर आया है
इतना थका हुआ है कि उसकी थकान उसके पूरे वजूद पर,
उसकी सारी चिंताओं पर हावी है,
इस डर पर भी कि कोई अचानक आकर उसे उठा नहीं देगा।
यह सोचकर कलेजा मुंह को आता है
कि छोटे-छोटे बच्चों ने भी सूखी जीभ, डरी हुई आंखों
और जलते हुए पांवों के बीच यह सफर तय किया होगा।

लेकिन इतना क्यों सोच रहा हूं मैं इस परिवार के बारे में?
जिस राजधानी से मैं रोज़ गुज़रता हूं
उसकी कई सड़कों पर ऐसे सैकड़ों परिवार सोए होते हैं
उनके पास भी ऐसे ही संदूक होते होंगे, ऐसी ही चादरें
उनके नीचे रेत की यही चुभन होती होगी
और इतनी ही गहरी थकान
कि आती-जाती गाड़ियों के शोर
में भी वे सो लेते होंगे।
फिर क्यों अपनी सोसाइटी के बाहर अचानक
दिख गया यह परिवार मेरे भीतर इतनी करुणा जगा रहा है
कि पूरे परिवार को उठाकर कायदे का खाना खिलाकर कहीं ठीक से सुला
देने की बड़ी गहरी इच्छा जागती है
और जिसे दबाने की कोशिश में मैं
खुद को दबा हुआ और कातर महसूस करता हूं।
क्या इसलिए कि इस वक्त मैं पैदल चल रहा हूं
और मेरी आंखें आसपास देख पा रही हैं?
या इसलिए कि ठीक अपने पड़ोस में ऐसा पड़ोस
मुझे विचलित कर रहा है।

समझने की बात सिर्फ इतनी है कि
इस महानगर में रहते हुए
हम आंख मूंद कर ही जी पाते हैं।
तेज-तेज चलाते हैं गाड़ी, तेज-तेज़ करते हैं बहस,
घर या दफ़्तर या म़ॉल से निकल कर
तेज-तेज कदमों से पहुंचते हैं पार्किंग तक
और फिर चढ़ा लेते हैं शीशे
चला लेते हैं एसी और स्टीरियो
कि बाहर की धूल और ध्वनियां
शीशे पर सिर पटक कर लौट जाएं।
तेजी से चलाते हुए गाड़ी
इस तरह निकलते हैं, जैसे दुनिया के सबसे ज़रूरी काम
हमारे लिए ही छूटे पड़े हैं।
इन सबके बावजूद
ठीक अपनी सोसाइटी के बाहर
इत्मिनान से शुरू हो रही एक
रात की बेखबर चहलकदमी में
जब पेड़ के नीचे दिख जाता है कोई परिवार
गुडीमुडी सोया हुआ
कोई संदूक पेड़ से लगा हुआ,
कुछ मुड़े हुए पांवों को ढंकने में नाकाम चादर मुचड़ी हुई
तो लगता है, उस परिवार की गरीबी
हमारे मुंह पर थप्पड़ मार रही है।

कहां से आया है यह परिवार?
कितनी दूर चलकर?
क्या छोड़कर?
क्या सोचकर?
क्य़ा कुछ करने के इरादे से?
क्यों अपने घर और गांव छोड़कर चले आ रहे हैं
इतने सारे परिवार?
कौन है इनके विस्थापन का ज़िम्मेदार?

जानता हूं, जब नींद आने लगेगी,
ये सारे सवाल खत्म हो जाएंगे
नहीं सोचूंगा
कि महानगर की एक अनजानी सडक के किनारे
कैसे कटी होगी इस परिवार की रेतीली-चुभती हुई, पहली फटेहाल रात?
सुबह मर्द कहीं मजदूरी खोजेगा
औरत कहीं करेगी बर्तन-बासन
और बच्चे शुरू में शहर की नई गाड़ियों को
हैरानी और कौतूहल से देखेंगे
और फिर उन्हें पोछते-पोछते बडे हो जाएंगे।

8 comments:

संगीता पुरी said...

आपकी संवेदनशीलता को दर्शाती हुई दिल को छू लेने वाली रचना है ये !!

सुशील छौक्कर said...

एक भारत ये भी है। जिसकी तरफ से हम आँखे मुंदे हुए है। सच आपकी लेखनी का जवाब नही। सच्चे सादे शब्दों से एक दर्द कह दिया।

अभिनव आदित्य said...

बेहद मार्मिक... दिल्ली, मुंबई जैसे मेट्रो शहर की दौड़ती-भागती ज़िंदगी में अंतर्मन की संवेदना कभी-कभी यूँ ही छलक आती है. मन पर मस्तिष्क भारी पड़ जाता है और हम बहुत कुछ महसूस करते हुए भी आगे बढ़ जाते हैं.

www.baharhaal.blogspot.com

निर्मला कपिला said...

जानता हूं, जब नींद आने लगेगी,
ये सारे सवाल खत्म हो जाएंगे
नहीं सोचूंगा
कि महानगर की एक अनजानी सडक के किनारे
कैसे कटी होगी इस परिवार की रेतीली-चुभती हुई, पहली फटेहाल रात?
आपकी संवेदन्शीलता और भावनाओं से ओत्प्रोत कविता लाजवाब है और अदमी की लाचारी है कि वो चाहते हुये भी कुछ नहीं कर सकता आभार्

मुकेश कुमार तिवारी said...

प्रियदर्शन जी,

बहुत ही मार्मिक प्रसंग और उतना ही सजीव चित्रण।
बेहद कसी हुई कविता अपने से बिल्कुल दूर नही जाने देती।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

Manoj Sinha said...

बहुत दिनों के बाद कविता पढ़ी, कुछ कहने का सामर्थ्य नहीं है. अद्भुत!

अर्चना said...

ईश्वर से प्रार्थना है आपकी सम्वेदना कभी नीद ना आये. इसी तरह झकझोरते रहीये अपने प्रशन्सको का मन.

हरकीरत ' हीर' said...

वाह...बहुत खूब....!!

प्रियदर्शन जी बहुत ही सजीव प्रस्तुति की है आपने भावनाओं को बखूबी अंजाम दिया है आपने ......!!

इस सुंदर रचना की हार्दिक बधाई .....!!