Tuesday, October 9, 2007

युद्ध

युद्ध हम सबने देखा
हम सब हुए आहत
हम सबने की निंदा
ताकि ख़ुद को हो तसल्ली
कि अब भी हमारे भीतर
है थोड़ी सी आंच ज़िंदा
बहुत दूर था मेसोपोटामिया
वहां हम कैसे जाते
रक्त में नहाई दजला-फुरात की
रुलाई कैसे सुन पाते
यों भी था शोर बहुत
ढेर सारे संदेशवाहक
जो दिख रहा था
जो आ रहा था
उस पर संदेह करते नाहक
हमने विरोध किए
हमने धरने दिए
घायल बच्चों और रोती मांओं की
चीख सुन रोया किए
और क्या कर सकते थे
ताक़तवर के आगे
बस प्रार्थना की
कि उसकी अंतरात्मा जागे
अगर न जागे
तो भी बनी रहे उसकी दया़
हम हैं कायर ये मानने में
काहे का शर्म कैसी हया
हम पर न आए
जो दूसरों पर आई आफत
किसी तरह बची रहे
हमारे लिए ये तसल्ली ये राहत
किसी कमबख़्त ईश्वर से
की जाने वाली ये दुआ
कि शुक्र है हमारे साथ
ये सब न हुआ

2 comments:

सुबोध said...

बिल्कुल ठीक बात...हम सबने युद्ध शब्द सुना है..उसके बारे में पढ़ा है..युद्ध की त्रासदी कोई उनसे पूछे जिन्होने युद्ध के साथ आयी तबाही का मंजर झेला है....कैसे महसूस किया होगा उन्होने...अपनो की मौत पर जश्न मनाते दुश्मनों के चेहरों की खुशियां को...

अनुराग अन्वेषी said...

bahut shandar kavita.