कविगण,
सही है कि यह वक़्त आपका नहीं,
लेकिन इतना बुरा भी नहीं
जिसे आप इस क़दर संदेह और नफ़रत से देखें
इस वक़्त बहुत सारे नामालूम से प्रतिरोध गुत्थम-गुत्था हैं
सदियों से चले आ रहे जाने-पहचाने अन्यायों से
यह वक़्त हैवानियत को कहीं ज़्यादा साफ़ ढंग से पहचानता है
यह अलग बात है कि हाथ मिलाने को मजबूर है उससे
सही है कि देह अब भी सह रही है चाबुक का प्रहार
लेकिन पीठ पर नहीं. चेहरे पर
यह ज़्यादा क्रूर दृश्य है
लेकिन ये भी क्या कम है कि दोनों अब आमने-सामने हैं
एक-दूसरे से मिला रहे हैं आंख
सही है कि वक़्त ने निकाली हैं कई नई युक्तियां
और शासकों ने पहन ली हैं नई पोशाकें
जो बाज़ार सिल रहा है नई-नई
उन्हें लुभावने ढंग से पेश करने के लिए
फिर भी कई कोने हैं
कई सभाएं
कई थकी हुई आवाज़ें
कई थमे हुए भरोसे
कई न ख़त्म होने वाली लड़ाइयां
जिनमें बची हुई है एक अच्छी कविता की गुंजाइश
Friday, October 5, 2007
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2 comments:
अच्छी कविता की गूंजाइश बची है, और आप वही लिख भी रहे हैं.
प्रियदर्शन जी..शायद यही वो कविताएं हैं जो मन में हौसलों के शब्द गढ़ती हैं...बाकी भरोसा आप जैसे लोगों के काम से पैदा हो रहा है....बिल्कुल ठीक कहा...अच्छी कविता की गुंजाइश हमेशा है
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