Tuesday, October 2, 2007

रांची से दिल्लीः १४ बरस बाद

८ जुलाई १९९३ को मैं रांची से दिल्ली के लिए चला
लगभग ये कसम खाकर कि ज्यादा नहीं ठहरूंगा
जल्दी ही लौट जाऊंगा अपने शहर
लेकिन तब नहीं मालूम था
बड़ी शिद्दत से खाई गई क़समें भी
पुरानी चिट्ठियों की तरह नए बने घर के किसी कोने में ठूंस दी जाती हैं
जहां न स्मृतियों की कोई हवा पहुंचती है न आत्मीयता की कोई रोशनी
अपने से किया घर लौटने का वादा भूलने में वक्त लगता है
लेकिन कभी वह दिन भी चला आता है,
जहां शहर लौटने का वादा ही नहीं, शहर भी बेमानी जान पड़ता है।

बहुत आसान है इस सबके लिए इस महानगर को ज़िम्मेदार ठहरा देना
कह देना कि उसके ऑक्टोपसी पंजों ने पीछे मु़ड़कर देखने की फुरसत नहीं दी
कि महानगर बडी से बडी कसमों को लील जाता है
लेकिन यह सच कम से कम अपने से नहीं छुपा पाऊंगा
कि इन सबके पीछे कुछ हिस्सा, कुछ हाथ मेरा भी रहा है
कि बेख़बरी में या जान बूझ कर
मोह में या मजबूरी
मैं छोड़ता गया या मुझसे छूटता गया
मेरा वह शहर जो कई साल तक
इस महानगर में बिल्कुल मेरे साथ-साथ चलता रहा
सड़कों पर घिसटता हुआ बसों के धक्के खाता हुआ
किसी तकलीफ़ में तसल्ली देता हुआ
किसी दुख में साझा करता हुआ।
हमेशा उम्मीद बंधाता हुआ
कि एक घर वहां हमेशा बना रहेगा
मेरे इंतज़ार में,
जो मेरी थकान में मेरी टूटन में, मेरी बेदखली में
मुझे आसरा देगा
एक क्यारी हमेशा खाली रहेगी जो मुझे किसी भी दिन नए सिरे से
रोपने को तैयार होगी।

लेकिन क्या इतने साल बाद भी वह आश्वस्ति मेरे साथ मेरे भीतर है?
बीच-बीच में जाता रहता हूं
अपने उस शहर को हर रोज़ कुछ टूटता कुछ बनता देखता रहता हूं
और कोशिश करता हूं इस नए बनते शहर से मेरी जान-पहचान मिटे नहीं।
लेकिन धीरे-धीरे अपने भीतर बनती उस खला को
नज़रअंदाज़ नहीं कर पाता
जो दरअसल मेरे शहर और मेरे बीच की है
और लगातार बड़ी होती जा रही है।
यह उदास करने वाला अहसास
अब पीछा नहीं छोड़ रहा
कि जिस शहर को मैं अपने हथेली के विस्तार की तरह देखता था
जिसकी सड़कें मेरे पांवों में लिपटी रहती थीं
वह धीरे-धीरे अजनबी होता जा रहा है
कि एक दिन मैंने शहर को छोडा था
अब उस शहर ने मुझे छोड़ दिया है।

लेकिन जब सब कुछ छूटता जा रहा है, टूटता जा रहा है
तब वह इतना बेसाख़्ता याद क्यों आ रहा है?
क्यों ऐसा अक्सर होता है
कि किसी उनींदी रात की सरहद पर जो सपना
नई दिल्ली के ग्रेटर कैलाश की किसी ऊंची इमारत से शुरू होता है
वह पलक झपकते रांची के किशोरगंज मुहल्ले की एक बेहद पुरानी गली में उतर जाता है
कि अंगूर की लतरों वाला एक पुराना आंगन अपने आम-अमरूद के पेडों के
साथ अब भी पुराने झूले, पुराने खेल, पुराने गाने और पुरानी गेंद
लेकर मेरे भीतर चला आता है
और मुझे याद दिलाने लगता है
कि कहीं तुम वही तो नहीं?

इस सवाल का जवाब खोजने के लिए नहीं
बस यह बताने के लिए लिखी है यह कविता
कि जब हम बहुत दूर चले जाते हैं तब भी
एक आंगन हमारे भीतर बचा रहता है
कहीं ऐसा न हो कि एक दिन ऐसा भी आए
जब वह आंगन भी चला जाए
यह उस दिन होगा
जब हमारी नींद में हमारी आंखों में हमारी रातों में
कोई सपना नहीं बचा रहेगा।

8 comments:

Avinash Das said...

बहुत ख़ूबसूरत कविताई के साथ आपने अपनी बात कही है। पर एक सवाल है, क्‍या स्‍मृतियां हमेशा कारुणिक ही होती हैं?

सुबोध said...

प्रियदर्शन जी आपने महानगर की भीड़ में...गुम होते..अपने छोटे छोटे शहरों और कस्बों की तकलीफों का एहसास करा दिया..

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

yaaden kya kewal dard ko hi audhe rahtee hai..?
lekin baaton ko lekar kawaitaee aandaz padhkar maza aa gaya

प्रियदर्शन said...

अविनाश, यह स्मृति या बीते दिनों की जुगाली का मामला नहीं है। यह हमारे बदलते जाने की बात है। इसमें करुणा या हास महत्त्व नहीं रखते, बस यह अपने बदलने को पहचानने की बात है।
फिर स्मृति आख़िर वही है जो बीत जाती है, और उसके साथ इसीलिए एक द्वंद्व का रिश्ता बनता है। बीती हुई सारी तक़लीफ़ें अच्छी लगती हैं, बीती हुई सारी खुशियां उदास करती हैं। हम हंस कर याद करें या रोकर, तथ्य यही है कि जो बीत गया वह अब उसी तरह लौट कर नहीं आएगा- न ग़म न खुशी। यह उसकी राहत भी है पीड़ा भी।

अनुराग अन्वेषी said...
This comment has been removed by the author.
Dipti said...

सातवी में जब थी तब एक पाठ था हमारी हिन्दी की किताब में। उसमें लेखक ने कहा था जवान होते बच्चे को अपना भविष्य सुनहरा लगता है और बुर्जुग होते जवान को अपना भूत। माफ कीजिएगा लेकिन महानगरों की सच्चाई जानते हुए भी हर शख्स यहां आता हैं,क्योकि वो कुछ बनना चाहता हैं।

दीप्ति।

Babban K Singh said...

Priyadarshanji,
aapne apne jaise bahuteron kaa daard upani isa chhoti si kavita main piro diyaa hai.

Unknown said...

"...कि जब हम बहुत दूर चले जाते हैं तब भी
एक आंगन हमारे भीतर बचा रहता है
कहीं ऐसा न हो कि एक दिन ऐसा भी आए
जब वह आंगन भी चला जाए......"
"..बीती हुई सारी तक़लीफ़ें अच्छी लगती हैं, बीती हुई सारी खुशियां उदास करती हैं.."

..काश ऐसा न हो कभी..काश - साभार - मनीष