एक
इंसान ही प्रतीक्षा नहीं करते किसी भगवान की
कि वह आए और उनके दुखदर्द दूर करे
भगवान भी राह देखता रहता है किसी इंसान की
जो आए और उसकी तकलीफ भी समझे
दरअसल सिर्फ भगवान जानता है कि
वह तभी तक है जब तक इंसान तकलीफ में है।
वह भी इंसान के दुख दर्द की पैदाइश है।
जिस दिन दुख-दर्द गए, उस दिन भगवान भी गया।
शायद इसलिए भगवान दुख-दर्द बनाए रखता है
यानी यह इंसान को तकलीफ़ पहुंचाने से ज़्यादा अपने बने रहने की युक्ति है।
चाहें तो हम देख सकते हैं इस भगवान को कुछ सहानुभूति से,
आखिर हर कोई किसी तरह बचे रहने की जुगत में ही तो लगा रहता है.
फिर भगवान हमारे बहुत सारे बोझ उठाता भी है।
अपनी नाकामियों के लिए भी हम उसे ज़िम्मेदार ठहराते हैं
और
बेईमानी से अर्जित सफलताओं के लिए भी उसे प्रसाद चढ़ाते हैं
और नाकामियों और कामयाबी के बीच किए-अनकिए गुनाहों का एक पूरा सिलसिला होता है
जिसके लिए कभी हम भगवान से माफ़ी मांगते हैं और कभी आंख चुराते हैं
वह होता है इसलिए अपने को पलट कर देखने की ज़रूरत महसूस होती है
जो हैं, उससे ऊपर उठने का दबाव महसूस होता है।
दो
हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो भगवान बनने की कोशिश में कुछ बेहतर इंसान बन गए।
हालांकि इससे यह साबित नहीं होता कि जो भगवान बनना चाहते हैं, वे बेहतर मनुष्य बनना चाहते हैं
अक्सर भगवान होने की हमारी कामना के पीछे उसकी बेशुमार ताकत का खयाल होता है
दरअसल यह ताकत है जो भगवान को भी बनाती है और इंसान को भी दौड़ाती है।
ताकत हो तभी आप दूसरों को दुख दर्द दे भी सकते हैं और उन्हें दूर भी कर सकते हैं।
इस लिहाज से लगता है कि ताकत सबसे बड़ी चीज़ है।
ताकत हो तो आदमी कुछ भी कर सकता है
सीधे भगवान बन सकता है।
लेकिन ऐसा होता नहीं।
ताकत हासिल कर भगवान बनने निकला आदमी जानवर या हैवान ही बन पाता है।
यानी ताकत इंसान को इंसान भी नहीं रहने देती।
ताकत की ख्वाहिशें जैसे ख़त्म ही नहीं होतीं
वह हर जगह छा जाती है, हर चीज़ पर हावी हो जाती है।
बुद्धि पर, विवेक पर, जीवन की किसी भी दूसरी कसौटी पर।
यानी ठीक से नतीजा निकालें तो हम पाते हैं कि ताकत से आदमी उठता कम गिरता ज़्यादा है।
दरअसल जब वह इस ताकत की व्यर्थता समझ जाता है तो ज़्यादा बेहतर आदमी होता है
और
ज़्यादा बेहतर आदमी होता है तो देवता कहलाने लगता है।
तीन
ईश्वर और आदमी और ताकत के इस खेल को करीब से देखने पर
समझ में आता है कि ज़िंदगी का खेल दौड़ने से नहीं, छोड़ने से सधता है
वरना हम आगे-आगे दौड़ते जाते हैं, पीछे की ज़मीन छूटती जाती है।
वैसे दौड़ने और छोड़ने से कहीं ज़्यादा तुक
छोड़ने और जोड़ने की मिलती है
जब हम कुछ छोड़ते हैं तो कुछ जोड़ते भी हैं
लेकिन अगर छोड़ने से पहले जोड़ने का खयाल आ जाए
तो वाक्य और जीवन दोनों में आखिर में छोड़ने की ही नौबत आएगी।
ध्यान से देखिए तो इस खेल में ताकत का सवाल भी पीछे छूट गया
और
ईश्वर का ख़याल भी,
वह कविता तो न जाने कहां रह गई
जो ताकत और ईश्वर को और इंसान और भगवान को जोड़ने और समझने की चाहत में शुरू की गई थी।
तो अब ऐसा करते हैं, सबकुछ छोड़ देते हैं।
तय है कि इससे भगवान नहीं सधेगा,
इंसान भी नहीं सधेगा,
कविता भी नहीं सधेगी
लेकिन देर तक चुप रहकर देखिए
सबकुछ को छोड़कर खोकर, सहकर देखिए
शायद इस मौन में
ईश्वर भी पांव दबाए चला आए
कविता भी आंख मलती हुई खड़ी हो जाए
मनुष्य भी सांस लेने लगे।
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