Sunday, March 27, 2011

ईश्वर से


ईश्वर।

सोचता हूं,

तुम्हारे ख़िलाफ़ बगावत का एक परचम

बुलंद करूं।




संपूर्ण तुम, तटस्थ तुम, निर्लिप्त तुम,

सबके निर्माता सबके नियंता।

मेरे अधूरेपन पर उठी हुई उंगली तुम।

तुम उन अंशों में हो, जहां हम नहीं हैं।



हमारे भीतर उपजे हुए डर तुम।

हमारे तमाम डरों में सहचर तुम।

मेरे आकार की सीमा तुम्हारे निराकार से आहत होती है प्रभु।



सभी कर्मों से विरत तुम।

सभी परिणामों से परे।

सभी तृष्णाओं से ऊपर तुम,

सभी तृप्तियों से निष्काम।


तुम्हारे होने का भाव

वह अंधकार है

जो हमें घेरता है बार-बार।

हमारी आस्था नहीं

हमारी आस्था का कच्चापन

तुम्हें टेरता है बार-बार।

1 comment:

Sandeep Singh said...

सर पुरानी शराब के बारे में तो सुना था कि सुरूर जल्द चढ़ता लेकिन आज तो ये आपकी कविता के साथ देख रहा हूं...1990 में शुरू हुई खुदा से इस मुखालफत को विराम मिलता नहीं दिख रहा क्योंकि सवाल बेहद प्रासंगिक हैं और समयचक्र से परे हैं।