Monday, August 18, 2008

नष्ट कुछ भी नहीं होता

नष्ट कुछ भी नहीं होता,
धूल का एक कण भी नहीं,
जल की एक बूंद भी नहीं
बस सब बदल लेते हैं रूप

उम्र की भारी चट्टान के नीचे
प्रेम बचा रहता है थोड़ा सा पानी बनकर
और अनुभव के खारे समंदर में
घृणा बची रहती है राख की तरह

गुस्सा तरह-तरह के चेहरे ओढ़ता है,
बात-बात पर चला आता है,
दुख अतल में छुपा रहता है,
बहुत छेड़ने से नहीं,
हल्के से छू लेने से बाहर आता है,

याद बादल बनकर आती है
जिसमें तैरता है बीते हुए समय का इंद्रधनुष
डर अंधेरा बनकर आता है
जिसमें टहलती हैं हमारी गोपन इच्छाओं की छायाएं

कभी-कभी सुख भी चला आता है
अचरज के कपड़े पहन कर
कि सबकुछ के बावजूद अजब-अनूठी है ज़िंदगी
क्योंकि नष्ट कुछ भी नहीं होता
धूल भी नहीं, जल भी नहीं,
जीवन भी नहीं
मृत्यु के बावजूद








20 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत सुंदरम्,शिवम्, सत्यम्।
संम्पूर्ण कविता।

सुशील छौक्कर said...

बहुत ही उतम कविता। मुझे बहुत अच्छी लगी।

विजय गौड़ said...

पहली बार आपके ब्लाग पर आना हुआ। अच्छा लगा। कविता भी सुन्दर है। बधाई एवं शुभकामनाऎं।

बालकिशन said...

सुंदर और अच्छी कविता.
पढ़कर अच्छा लगा.

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है !बधाई !!

Anil Pusadkar said...

pehli baar aapke b log par aaya.dil khush ho gaya,achhi rachna,badhai aapko

Unknown said...

नष्ट कुछ भी नहीं होता
बस सब बदल लेते हैं रूप
थोड़ा सा पानी,थोड़ी सी राख
थोड़े अँधेरे हल्के उजाले
जो याद दिलाते हैं
हर उस बात की
जो अस्तित्व खो चुका है...
पर फिर भी है

शोभा said...

कभी-कभी सुख भी चला आता है
अचरज के कपड़े पहन कर
कि सबकुछ के बावजूद अजब-अनूठी है ज़िंदगी
क्योंकि नष्ट कुछ भी नहीं होता
धूल भी नहीं, जल भी नहीं,
जीवन भी नहीं
मृत्यु के बावजूद
बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई स्वीकारें।

Sandeep Singh said...

नष्ट कुछ भी नहीं होता
धूल भी नहीं, जल भी नहीं,
जीवन भी नहीं
मृत्यु के बावजूद
.......................
नष्ट कुछ भी नहीं होता
अस्तित्व में आते ही
एक नाम और
उससे रिश्ता जो बन जाता.....

रंजू भाटिया said...

नष्ट कुछ भी नहीं होता,
धूल का एक कण भी नहीं,
जल की एक बूंद भी नहीं
बस सब बदल लेते हैं रूप
बहुत सही लिखा है .बहुत पसंद आई आपकी यह रचना मुझे

onair said...

mafi chahunga....galat jagah par likh raha hoon,,,adhunik hindi ka sabse bada kavi kaun...poll me muktibodh ka nam gayab hai...ajib laga

BOLO TO SAHI... said...

kitni bariki se badlavo ko ukera hai...kuch bhi nahi badlta. bas rup badal lete hain.
bohot acha laga..umid hai tazi kavita se samay samay par padhne ko milengi.
kaushlendra

एस. बी. सिंह said...

उम्र की भारी चट्टान के नीचे
प्रेम बचा रहता है थोड़ा सा पानी बनकर
और अनुभव के खारे समंदर में
घृणा बची रहती है राख की तरह।

बहुत सुंदर कविता ।

शायदा said...

सुंदर कविता। सचमुच नष्‍ट तो कुछ भी नहीं होता...नष्‍ट होकर भी जिंदा दिखता है कहीं न कहीं।

Unknown said...

नैनं छिन्दन्ति शाश्त्रानी नैनं दह्यती पावकः, सब कुछ ब्रह्म में लीन हो जाता है. आत्मा तो अजर-अमर है.मरकर ऐसा सिर्फ़ लगता है कि कुछ नही बचा, लेकिन वो तो कण कण में हैं. हर अक्षर में है.

Ila said...

बहुत सुन्दर कविता है१
इला

naina3dec said...

WELL WRITTEN...

alka_astrologer said...

bahut acchi kavita arth purna

Suman said...

sachmuch bahut gahari samvedna ki kavita hai...ek dum sach... kuchh bhi nasht nahin hota...roop badal jata hai ..samay use dhundhla kar deta hai.aur choonki kuchh bacha rahata hai isiliye vivek chahiye ki kya yaad rakha jaye aur kise kaise roop mein prastut kiya jaye... akhir hame bachana aur banana kya hai...hamara swapan kya hai...

Priyankar said...

"उम्र की भारी चट्टान के नीचे
प्रेम बचा रहता है थोड़ा सा पानी बनकर
और अनुभव के खारे समंदर में
घृणा बची रहती है राख की तरह|"

मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति ! बेहतरीन कविता !!