Wednesday, November 28, 2007

आग

अपने लिखने पर बहुत भरोसा रहा हमें
एक भोला भरोसा
जो एक कमजोर सी कलम के बूते देखता रहा दुनिया बदलने का सपना
जबकि दुनिया हमें बदलती रही
उसने हमारे लिए कलमें बनाईं
उनका मोल लगाया
उसने हमारी आग को अपनी धमन भट्ठियों के लिए इस्तेमाल किया
उसने हमारे हुनर से अपने घर सजाए
उसने हमारे ऊपर सुविधाओं का पानी डाला
हम पहले धुआं हुए, कुछ की आंखों में गड़े
फिर राख हुए
समाधिलेख की सामग्री बने
वैसे हमें बुझाने के और भी आसान तरीके सामने आ गए
लोगों ने पहले हमारा जादू देखा
फिर इस जादू का बिखरना देखा
हम बंद हो गए एक माचिस की डिबिया में
हम छोटी-छोटी तीलियों में बदल गए
बस इतने से आश्वस्त और खुश
कि हमारे भीतर बची हुई है आग
कि थोड़ी सी रगड़ से वह दिखा सकती है अपना कमाल
कि अब भी उसमें कहीं भी जल उठने, कुछ भी जला देने की क्षमता है
लेकिन माचिस की डिब्बी में बंद ये तीलियां
यह तक नहीं देख पाईं
कि वे किन पाकशालाओं, किन जेबों के हवाले हैं
और
किनका चूल्हा चलाने, किनकी सिगरेट जलाने में
उनका इस्तेमाल हो रहा है।
हम आग थे, हममें जलने की संभावनाएं थीं
हममें बदलने की संभावनाएं थीं
लेकिन हमने हवाओं से मुंह छुपाया
दिशाओं से पाला बदला
कुछ भी देखने से इनकार किया
ये भी नहीं देखा
जिसे हमें मशाल समझते रहे
वह तीली-तीली सिमटती गई
बडी उपमाओं के नीचे बनते रहे छोटे-छोटे यथार्थ
ध्यान से देखें तो जिनमें दिखेगी एक अट्टाहासी कामयाबी
आग को जीतकर ही इंसान ने सभ्यता बनाई
आग को गुलाम रखकर ही वह अपनी इस सभ्यता को बचा रहा है।

5 comments:

Unknown said...

बहुत बहुत सुंदर...एक बेचैनी शुरु से अंत तक...मशाल के तीली बनने की बेबसी और बनाने वालों की जीत।

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

इस आग को जलने दीजिएगा, दुनिया कितनी भी कोशिश कर ले ये बुझने ना पाए।

सुभाष नीरव said...

एक बेचैन करने वाली खूबसूरत कविता के लिए बधाई!

अमिताभ मीत said...

आह ! जलने दीजियेगा ... जलाए रखियेगा ये आग.. इस आग की बहुत ज़रूरत है इस दुनिया को.. बकौल दुष्यंत कुमार :

हो गई है पीर परबत सी .... पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही ..........
हो कहीं भी आग ... लेकिन आग जलनी चाहिए

अजित वडनेरकर said...

हमें और क्या चाहिये इसके सिवा...यही जज्बा है हमारी थाती, पूंजी है यही, भरोसा और जीतने की निशानी भी...वाह वा...शुक्रिया