समय बहुत दूर चला जाता है
इतनी दूर कि बस एक छाया की तरह नज़र आता है
हवाएं ख़ामोश निकल जाती हैं
दिशाएं चुपचाप बदल लेती हैं पाला
उम्र नाम का एक अदृश्य प्रेत
हमारे जिस्म में बैठा
कहीं बदलता रहता है पुर्ज़े
उसे ठीक-ठीक पता होता है
जोड़ों में कब से शुरू होता है दर्द
हड्डियां कब चटखने लगती हैं
कब शरीर देने लगता है जवाब-
यह शुरुआत है
जो सिर्फ़ याद दिलाती है
वसंत बीत गया अब मौसमों के साथ ज़्यादा एहतियात से पेश आने की ज़रूरत है
कि बेक़ाबू हौसलों के पंख लगाकर उड़ने की जगह
सयाने फ़ैसलों की सड़क पर चलने का वक़्त है
शायद यही बालिग़ होना है
इसमें कुछ थकान होती है, कुछ एकरसता की ऊब
कि बनी-बनाई पटरियों पर ठिठक कर रह गई है ज़िंदगी
थोड़ी सी उदासी भी
कि कितना कुछ किए जाने को था, जो अनकिया रह गया
लेकिन इन सबके बावजूद
न भरोसा ख़त्म होता है न ख़्वाब
न ये इरादा कि अभी बहुत कुछ करने लायक बाक़ी है
यह छलना हो, जलना हो या चलना हो
ज़िंदगी लेकिन इसी से बनती है।
Sunday, September 30, 2007
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2 comments:
बिल्कुल ठीक..प्रियदर्शन जी..समय का शायद यही..वो सच है..जो डरता भी है..और भीतर भरोसा भी कायम करता है...
अभी बहुत कुछ करने लायक बाक़ी है
--यही तो जीवन है जो आपको अंतिम सांस तक ले जाता है. बहुत अच्छे भाव पेश किये हैं.
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